'सानेहा नहीं टलता सानेहे पे रोने से हब्स-ए-जाँ न कम होगा बे-लिबास होने से'
चुनाव की सबसे बड़ी हेडलाईन अगर मोदी के बाद कोई है तो वो है जातिवादी राजनीति का सफाया. अलग अलग एक्सपर्ट अलग अलग मीडिया में अलग अलग तरीके से जो एक बात कह रहे है वो है कि इस चुनाव में जातिवादी राजनीति का सफाया हो गया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिया जा रहा है कि यूपी में महागठबंधन रोकने में विफल रहा है तो दूसरी ओर बिहार में साफ ही हो गया है. लेकिन गौर करने पर ये फिर एक अर्धसत्य है जिसको पूरा सच बनाकर परोसा जा रहा है. चुनावी आकंड़ों को गौर करने पर ये तो पता चलता है कि बीजेपी ने यूपी में जीत हासिल की है और वो भी ऐसी जिसकी उम्मीद नहीं की जा रही थी, लेकिन ये उम्मीद सिर्फ वही पत्रकार नहीं कर रहा था जो मैदान में नहीं गया था या फिर जिसके दिमाग में किसी के लिए कोई पक्षपात नहीं था. चुनावी नतीजों को पढ़ने से पता चलता है कि जातिवादी गठबंधन को उसके वोट तो भरपूर मिले है लेकिन उसकी नीति ने जातियों का एक दूसरा गठबंधन तैयार कर दिया, जिसके लिए किसी को जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी.
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बात घूमफिर कर इसीलिए मीडिया पर चली जाती है क्योंकि चुनाव की दुनिया का सब कुछ उसकी के पास लेखा जोखा है, लिहाजा उसी के इर्दगिर्द हर कहानी का आंक़ड़ा जाता है. जो सड़कों पर घूम रहे थे उनको दिख रहा था कि जातियों के जिस गठबंधन को मोदी के खिलाफ रामबाण मान रहे थे, विपक्षी दल वही जातियों का गणित उनकी शातिर समझ को मात देकर बीजेपी के पक्ष में झुक गया. उदाहरण के तौर यूपी और बिहार (जोकि जातिवादी राजनीति की प्रयोगशाला रहे है) को लेते है. गठबंधन में पिछड़ों का नाम जरूर दिया था लेकिन पूरी जातिवादी राजनीति के सहारे खड़ी समाजवादी पार्टी के बारे में आम फहम धारणा है कि अपने कार्यकाल में ये रूल बना चुकी थी कि मलाईदार पोस्टिंग्स पर पहले यादव का हक है और अगर पोस्ट फिर भी खाली है तो उसका फायदा उसकी चुनावी सफर की हमसफर मुस्लिमों को मिलना चाहिए. इसीलिए पिछड़ों की ज्यादातर जातियों ने यादव राजनीति के मसीहाओं से या तो किनारा कर लिया था या फिर पूरे मोलभाव के बाद ही रिश्ता तय किया था. 2012 में बसपा के खिलाफ एक जातिय इंजीनियरिंग के सहारे सत्ता में आएं हुए अखिलेश यादव इस राजनीति के मसीहा मुलायम सिंह यादव को सिर्फ पिता ही मान रहे थे और अपने को चाणक्य और जातिवाद की राजनीति का नया चाणक्य ऐसे में ये भूल गए कि 2012 की पूरी रणनीति उनके पिता और चाचा शिवपाल सिंह की थी और मुख्यमंत्री के पद पर उनका नाम सिर्फ बेटा होने के नाते था. इसीलिए उन्हें जैसे ही लगा कि बसपा से बात हो सकती है तो उन्होंने बाकि इंजीनियरिंग को ताक पर रखा और जुट गए यादव और दलित गठबंधन को सॉलिड बनाने में. मुसलमान की इस देश में मजबूरी को तमाम क्षेत्रीय दल या गैरभाजपाई दल जानते है कि उनको बीजेपी को हराने वाले दल की तलाश रहती है और इस तलाश में कभी कांग्रेस, कभी बसपा और कभी समाजवादी पार्टी का दर पर जाना पड़ता है. ऐसे में अगर बसपा और समाजवादी पार्टी का एक बड़ा विकल्प हो तो फिर कोई कंन्फ्यूजन नहीं हो सकता है. ऐसे में बसपा और सपा की बात बन गई.
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बसपा ने भी 2007 के प्रयोग को ताक पर रख सीधे सपा के यादव वोटबैंक के साथ मुस्लिमों का फैवीकोल मान लिया. इसके बाद जो तस्वीर सामने आई वो थी कि दलित, यादव और मुस्लिम का एक गठबंधन और इसी गठबंधन को मीडिया वालों ने महागठबंधन मान लिया, हालांकि दल दो ही थे और बीजेपी कई दलों के साथ यूपी में थी फिर भी महागठबंधन दो दलों का. लेकिन एक समस्या आई कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश की शुरूआती हिस्सों में यादव वोटबैक तो है ही नहीं तब मुस्लिमों और दलितों के वोट बैंक में कौन सी जाति हाथ बंटा सकती है तब अजित सिंह की याद आई. अजित सिंह कभी पिछड़ों के मसीहा चरणसिंह की विरासत को संभालने के दावेदार थे और फिर जाट नेता के टैग पर टिक गए. जातिवादी राजनीति की इंतिहा के प्रतीक माने जाने वाले अजित सिंह ने कितने दल बदले इस बात को अचानक पूछने पर वो शायद ही क्रम से बता पाएं. खैर उनको खोजा गया. चूंकि कैराना चुनाव में उनके साथ मिल कर जीत का स्वाद चख चुका ये गठबंधन इस बात पर मुतमईन हो गया कि जिन सीटों पर यादव नहीं है वहां जाट उसका विकल्प बन जाएंगे. इस बात के साथ ही ये गठबंधन तैयार हो गया. चुनाव के परिणाम को देखते है तो पता चलता है कि सहारनपुर से शुरू हुए इस गठबंधन को लगभग 42 फीसदी वोट मिला है और अगर हम इस बात को देखते है कि मुस्लिम के अलावा दलित और यादव या फिर जाट वोट को जोड़ते है तो लगभग इतना ही वोट पड़ा है और मुजफ्फरनगर की सीट बताती है कि बालियान की जीत का गणित जाट वोटों ने नहीं बल्कि इस जातिय गठबंधन के खिलाफ तैयार हुए दूसरे गठबंधन ने तैयार किया है. इस इलाके में गांव शहर एक साथ जुड़े हुए है. शहरों में वही लोग है जिनकी जड़े गांव में धंसी हुई है और ज्यादातर पहली, दूसरी या फिर तीसरी पीढ़ी से ही शहर में आए हैं. लिहाजा उनकी वोटिंग का पैटर्न आज भी उसी तरह का है जिस तरह गांव का होता है.
बीजेपी के हक में कैसे हुआ वोटों का बंटवारा?
अब गांव में देखते है तो आम कहावत भी याद आती है कि गांव छत्तीस कौंमों का. भले ही गांव में कुछ ही जातियां हो लेकिन ये ही बोला जाता है कि गांव में छत्तीस कौम रहती हैं. अब भला तीन कौम का गठबंधन होने पर बाकि 33 कौम अपने आप ही एक साथ दिखने लगी और अहसास करने लगी और एक सामान्य से गणित में भी कि यदि तैतीस कौम में हर के दो वोट हो तो भी छियासठ बैठते है और दूसरी तरफ तीन कौमों में हर के दस गुणा भी जोड़े तो भी साठ ही बैठते है. इसी लिए एकमुश्त पड़े मुस्लिम वोट बैंक की भरपाई करने के लिए सवर्ण वोटों का एक बड़ा हिस्सा तैयार हुआ तो दूसरी मध्यमवर्गीय जातियों ने जाट और यादव की भरपाई कर दी. दलितों में जाटव और गैरजाटव का विभाजन भी बीजेपी के हक में चला गया और पूरे तौर पर देखते है तो ये पता चलता है कि यादव दलित और मुस्लिम मतों ने एक साथ काफी हद तक वोट किया है. हां इस जाति के गणित के फेल होने के पीछे दूसरी जातियों का लगभग एक साथ होना है. महागठबंधन ने इस बात की परवाह की ही नहीं कि उसके प्रचारकों में सामान्य वर्ग के या फिर यादव के अतिरिक्त किसी दूसरे पिछड़े वर्ग में शामिल किसी नेता को स्टार प्रचारक बनाया जाएं. उनके टिकट वितरण को देखे तो जिन सीटों पर उन्होंने अपने गठबंधन की आधार जातियों के अलावा किसी दूसरी जाति को टिकट दिया है तो उस सीट पर वो जाति का वोट भी कुछ हद तक महागठबंधन के पक्ष में गया है. ऐसे में ये कहना कि जातिय राजनीति का तिलिस्म टूटा ये कुछ ज्यादा ही हो जाता है. इसी तरह से बिहार में बीजेपी,जेडीयू और लोकजनशक्ति पार्टी का गठबंधऩ भी एक जातिय धुव्रीकरण की रणऩीति थी. तेजस्वी के पास उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और वोट के नाम पर सिर्फ नाम यानि कांग्रेस थे और थे मुस्लिम वोटर. लिहाजा जातियों का पलड़ा आसानी से बीजेपी की ओर झुक गया और एक जातिय गठबंधन का दूसरे जातिय गणित ने सफाया कर दिया.
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बात थोड़ी लंबी है और कुछ पीछे तक जाती है. चुनाव में आरएलडी के एक सीनियर स्ट्रैटिजिस्ट ने फोन किया और कहा कि चौधरी साहब को मुजफ्फरनगर से लड़ा रहे है और जयंत को बागपत से. मेरे मुंह से पहला शब्द ही निकला की लाख वोट से हारेंगे चौधरी साहब और पचास हजार के लपेटे से जयंत को हार मिलेगी. वो परेशान हो गए और कारण पूछने लगे तो मैंने कहा कि साफ तौर पर चौधरी अजीत सिंह मुजफ्फरनगर में वोट मांगने के लिए सिर्फ एक ही आधार रखेंगे कि आखिरी बार चुनाव लड़ रहा हूं इस बार इज्जत रख लो तो मुजफ्फरनगर का जवाब होगा कि साहब आप तो यहां पहली बार चुनाव लड़ रहे हो अभी तक तो बागपत में थे तो आखिरी चुनाव कैसा? एक बात तो चुनाव लड़ कर अजीत सिंह के पिता चरणसिंह तक हार चुके थे लिहाजा ये आपका आखिरी कैसा पहला है. दूसरा युवा वोटर उनके साथ जुड़ नहीं पाएंगा नई सीट है इसीलिए उधर दूसरी तरफ जयंत अगर बागपत से लड़ते है तो युवा कहेंगे कि भाई पहले बाबा को वोट दिया जिताया, फिर पिता को दिया और अब जयंत को क्या स्थानीय युवा को कभी मौका नहीं मिल पाएगा? बात आई गई हो गयी और चुनाव भी हो गए. मैं चुनाव के रिजल्ट को लेकर पूरी तरह से आशान्वित था कि जनता का जातिय जोड़ गुणा भाग और मोदी का नाम चुनावी ऊंट को मेरे आंकलन की करवट ही बैठाएगा. ऐसा हुआ तो लेकिन पूरी तरह नहीं. मोदी पूरी तरह जातिय राजनीति का चक्रव्यूह तो नहीं बेध पाए लेकिन उसमे सेंध लगाने में कामयाब हुए. रिजल्ट ने बताया कि अजीत सिंह और जयंत चौधरी हार तो गए लेकिन हार का अंतर बेहद कम था और ये बात इस बात की ओर इशारा करती है कि उनकी जाति ने इन दोनों सीटों पर ज्यादा संख्या में इन्ही को वोट किया न कि बीजेपी. हालांकि बीजेपी राष्ट्रवाद के नाम पर इस वोट बैंक को हिला तो पाई है लेकिन इस किले को ढहा नहीं पाई है. अब आने वाले चुनाव के लिए देखना है कि क्या ये महागठबंधन के नेता इस बंधन में कुछ और जाति के ठेकदारों को शामिल कर एक बृहद् गठबंधन बनाते है या अपनी-अपनी जातियों के दम पर नया तिलिस्म रचते है. इसके लिए कुछ दिन का इंतजार करना होगा.
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Source : Dhirendra Pundir