उत्तर प्रदेश चुनावों की घोषणा होते ही कानपुर के कमिश्नर असीम अरुण ने वीआरएस के लिए आवदेन किया तो प्रवर्तन निदेशालय के जॉइंट डायरेक्टर राजेश्वर सिंह का भी वीआरएस आवदेन स्वीकार कर लिया गया. दोनों ही नौकरशाहों के बारे में कहा जा रहा है कि दोनों जल्द ही बीजेपी का दामन थाम लेंगे. जिसके बाद से नौकरशाहों के राजनीतिक प्रेम पर एक बार फिर सवाल उठने लगे और उनकी सेवा के दौरान निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े हो गए, लेकिन इसके अलावा यह भी सवाल उठने लगा कि नौकरशाहों की पहली पसंद बीजेपी ही क्यों बन रही है.
हालांकि बीजेपी से नौकरशाहों का प्रेम पुराना रहा है. जोकि जनसंघ से बीजेपी तक के सफर में आज तक दिख रहा है. 1952 में फैज़ाबाद के डीएम रहे केकेके नायर जनसंघ में आए और 1967 में जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा सांसद बने. श्रीश चंद्र दीक्षित जो कि आईपीएस रहे और पहले बीजेपी में आए और बाद में विहिप में चले गए. विहिप के ही नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल जो कि आईपीएस थे उनको बीजेपी ने राज्यसभा भेजा. इसके अलावा समाजवादी पार्टी के बेहद करीबी अधिकारी नीरा यादव के आईपीएस पति महेंद्र सिंह यादव भी बीजेपी में शामिल हुए.
वहीं मायावती सरकार में डीजीपी रहें बृजलाल वर्तमान में बीजेपी से राज्यसभा सांसद हैं. ऐसे में अब इस लिस्ट में कई सारे पूर्व नौकरशाहों के नाम जुड़ रहे हैं, जिसमें अरविंद शर्मा जो कि गुजरात कैडर के आईएएस रहे हैं. वहीं सचिदानंद राय जो कि डीआईजी स्टांप रहे हैं. अब असीम अरुण और राजेश्वर सिंह का भी बीजेपी में आना लगभग तय हो गया है.
नौकरशाहों के बीजेपी में आने की सबसे बड़ी वजह अगर देखी जाएं तो इनके शीर्ष नेतृत्व का नौकरशाही पर भरोसा. जब भी बीजेपी या इसके गठबंधन की सरकार आती है तो एक आरोप इनकी सरकार पर जरूर लगता है कि सरकार को नौकरशाह चला रहे हैं. अभी भी केंद्र की सरकार हो या उत्तर प्रदेश सरकार दोनों पर यह आरोप लगातार रहा है कि कुछ नौकरशाह पार्टी के नेताओं को भी अनदेखा करते हैं और सरकार में हस्तक्षेप ज्यादा है. ऐसे में नौकरशाह और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जो रिश्ते बनते हैं वो बाद में राजनीतिक रिश्तों में तब्दील हो जाते हैं.
हालांकि, नौकरशाहों की पैरासूट लैंडिंग से संगठन और कार्यकर्ताओं पर असर पड़ता है, क्योंकि जिसने 60 साल तक अधिकारी बनकर काम किया हो वो ना तो जनता और ना ही कार्यकर्ताओं के बीच अन्य नेताओं के तरह सहजता से काम नहीं कर पाता जिसको लेकर संगठन को काफी मेहनत करनी पड़ती है.
Source : Nishant Rai