ये एक कटाक्ष से भरपूर संजीदा संवाद है फिल्म 'आर्टिकल 15' में.जी हां मैं बात कर रही हूं एक ऐसी फिल्म की जो आजकल थियेटर में भी खूब चल रही है और विवादों में भी अच्छी जगह बनाई हुई है. हमारे देश की जड़ तक फैले कास्ट सिस्टम को दर्शाती एक स्याह फिल्म. भारतीय संविधान के तहत आर्टिकल 15 एक ऐसा कानून है जो भारत के तमाम नागरिकों को हर तरह से समान अधिकार देता है और किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाने का अधिकार भी .
फिल्म देखने के बाद कई बार सोचा कि इस पर आप सबसे कुछ बात करूं और अपनी प्रतिक्रिया आपके साथ साझा करूं.फिर सोचा कुछ लोग नाराज़ हो जाएंगे.लेकिन आज कुछ ऐसा हुआ कि इस फिल्म से जुड़ी हुई और कुछ अलग से भी अपने अनुभव साझा करने का मन हुआ.तो अब जो नाराज़ हों उनका भी स्वागत और जो पसंद करें उनका आभार. हालाकि जिस दिन से फिल्म देखकर आई थी उसी दिन से मेरे भीतर कुछ चल रहा था. कई तरह की मिश्रित भावनाएं.
लेकिन मैंने फिर भी कुछ नहीं लिखा.अब बताती हूं कि आज ऐसा क्या हुआ कि मैं लिखने बैठी.दरअसल आज नया कार क्लीनर मुझसे मिलने आया.गाड़ी सफाई की बात तय हो गई तो उसने पीने के लिए पानी मांगा.मैंने फ्रिज से एक गिलास पानी दिया तो वो हाथ लगाकर ऊपर से पानी गिराकर पीने चला.मैंने टोक दिया कि ऐसे क्यों पी रहे हो, ठीक से पी लो.तो उसने मना कर दिया.बोला मैडम हम लोग मुंह लगाकर नहीं पी सकते ना आपके गिलास में.
मेरे अंदर भी इन सब मुद्दों को लेकर द्वंद तो चल ही रहा था.मैंने भी सुना दिया.क्या दिमाग खराब रहता है जिसे देखो उसका.पीने वालों का भी और पिलाने वालों का भी.कई लोग ऐसी हरकत करते हैं. पियो ठीक से.वो शायद मेरी नाराज़गी से डर गया.मुझसे एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल मांगी और उसमें पानी डालकर ले के चला गया.यानी मेरी नाराजगी दिखाने के वाबजूद उसने गिलास से मुंह लगाकर पानी नहीं पीया.और ये कोई पहली बार नहीं हुआ था.कई लोग पहले भी ऐसा करते रहे हैं.पहले किरण आंटी (हमारी मेड) भी ऐसा ही करती थीं, बहुत मुश्किल से उन्हें अपने सोफ़े पर बैठने के लिए तैयार कर पाई और हमेशा सुबह हमारे यहां 3 कप चाय बनती है और एक साथ ही पिया जाता है. चाहे वो मेड हों या हम हों.ना बर्तन में भेदभाव ना फर्नीचर में.
लेकिन बचपन से लेकर बड़े होने तक घर से लेकर बाहर तक, गांव से लेकर शहर तक और अपनों से लेकर परायों तक.अच्छे से लेकर बुरों तक हर किसी से जुड़ी हुई ऐसी बातें-वारदातें सामने आती रही हैं.जो ये बताती हैं कि कथित ऊंची जाति हो या कथित नीची जाति समाज के ये भेदभाव इन सभी के लिए सामान्य बात है. अगर आपने ये फिल्म देखी है तो आपसे अपनी बात कहने में मुझे आसानी होगी और अगर नहीं देखी है तो आप फिल्म के नज़रिये से नहीं सामान्य नज़रिये से मेरे अनुभवों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं.
मैं फिल्म की चर्चा बाद में करूंगी.उससे पहले इस संजीदा मुद्दे से जुड़ी अपनी कुछ मेमोरी आपको बतऊंगी.मेरा ननिहाल बिहार के छपरा में है.बचपन में वहां खूब जाना होता था और महीनों गर्मी की छुट्टी वहीं बीतती थी.इससे कई तरह के फायदे हुए, लेकिन जो सबसे बड़ा फायदा हुआ वो था गांव के माहौल, सामाजिक तानाबाना और कल्चर को समझने का.गांव में हमारे घर के पास ही एक शिव मंदिर था.हम वहां दर्शन के लिए तो जाते ही थे.कई बार आरती के लिए भी चले जाते थे क्योंकि उसके बाद स्वादिष्ट प्रसाद खाने को मिलता था.एक बार गांव की एक महिला नानाजी से किसी काम के लिए आई थीं, साथ में उनकी सात-आठ साल की बेटी भी थी.तभी मंदिर का घंटा बजने लगा.
उस बच्ची से एक दो बार पहले भी मैं मिल चुकी थी और थोड़ी बातचीत थी.सो घंटा बजते मैंने उत्साह से उसे साथ चलने का इशारा किया और हम मंदिर की तरफ दौड़ गये.मंदिर में पिछले कुछ दिन से मैं एक वाद्य भी बजाने लगी थी.वहीं पुजारी का बेटा जो हमारी उमर का ही था वो भी एक दूसरा वाद्य यंत्र बजाता था.मुझे देखते उसने एक बाजा मुझे पकड़ा दिया.मैं आरती के साथ उसे बजाने लगी.मेरे साथ जो बच्ची गई थी वो मंदिर की सीढ़ियों से नीचे खड़ी मुझे देख रही थी.मैंने देखा तो इशारा कर के उसे अंदर आने को कहा.लेकिन उसने आने से मना कर दिया.मैंने जोर से गुस्से में घूरते हुए बुलाया तो सहमते हुए वो अंदर आ गई.तभी पुजारी ने उसे देख लिया और आरती का उनका सुर ही बदल गया.जैसे भूत देख लिया हो.
इशारे में जूनियर पुजारी को तेवर दिखाये और बच्ची की तरफ इशारा किया.दूसरे पुजारी ने मामला समझ लिया और बच्ची का हाथ पकड़ कर खींचते हुए मंदिर से बाहर ले गया.मैं हैरान.मेरे कुछ समझ में नहीं आया.मैंने मंदिर का बाजा वहीं फेंका और उसके पीछे दौड़ गई.छोटे पुजारी से चिल्ला के पूछा- मामा क्यों उसको बाहर किया.मैं ले के आई थी.उसने तपाक से कहा- अच्छा .ठीक है तुम्हारे नाना से कहते हैं शाम को.किसी को भी मंदिर में घुसा देंगे क्या.
मुझे कुछ समझ में नहीं आया और मैंने उसका हाथ पकड़ा, जिसका नाम भी मुझे मालूम नहीं था और बिना प्रसाद लिए धीरे-धीरे मरे हुए मन से घर वापस आ गई.ना उसने कुछ कहा ना मैंने कुछ बोला. वो पहला मौका था जब मुझे ये पता चला था कि हर व्यक्ति मंदिर में नहीं घुस सकता और भगवान के घर भी वही जा सकता है जो कथित तौर पर उच्च हो.कुछ दिन बाद हम नानी के साथ गांव के दुसाधटोली किसी काम से गये तो एक छोटा-सा मंदिर दिखा जिसके बारे में ये पता चला कि ये इस दुसाध टोली का मंदिर है और यहां के लोग इसी मंदिर में पूजा के लिए जाते हैं.तब भी मुझे आश्चर्य हुआ था कि भगवान भी बंटे हुए हैं.
दुसाध टोली या हरिजन टोली से जब कोई महिला-पुरुष कथित ऊंची जाति के यहां काम करने आते तो उन्हें या तो पत्तल में खाना दिया जाता था या उनके लाए गये बर्तन में.वो लोग भी इसका विरोध नहीं करते थे ना ही मेरे सिवा किसी को इसमें कुछ अलग या गलत लगता था.सब कुछ सामान्य सा था.दोनों तरफ के लोग इसके आदी थे.लेकिन यहीं से मेरे साथ एक ऐसा एहसास शुरु हुआ जो आज अपने शबाब पर है.जब किसी के साथ ऐसा होता तो मैं उसकी जगह खुद को सोचती.कि अगर मेरे साथ ऐसा होता तो मैं कैसा महसूस करती.और मैं मानसिक तौर पर उनके साथ होती गई.उनकी तरफ़. मैं मौका खोजती उनके साथ सामान्य व्यवहार करने का.उन्हें ये एहसास दिलाने का कि वो हमारे बीच के ही हैं.मैं उन्हें अलग ट्रीट नहीं करती.लेकिन फिर लगता कि अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ सकता.और मैं निराश हो जाती.
मैं देखती कि गांवो में महिलाएं अपने बर्तन साथ लेकर चलतीं.शहरों में भी वो कभी हमारे सामने कुर्सी या तखत-चौकी पर नहीं बैठती थीं.हमारे घर की महिलाएं खाना ऊपर से देती थीं और दूसरी तरफ वो भी ध्यान रखती थीं कि उनका बर्तन छू न जाए.हमारे घर में जो मेड काम करने के लिए आती थीं उनसे नानी पहले ही पूछ लेती थी कि 'कौन बिरादर हो' ? हमारे कथित उच्च ब्राह्मण परिवार द्वारा उनकी जाति जानने के बाद ये तय होता था कि उनसे काम कराना है या नहीं.कराना भी है तो क्या कराना है.उनकी जाति हमारे किचेन में घुसने लायक है कि नहीं.वगैरह.वगैरह.और जब वो काम करने लगती थीं तो उनके लिए चाय का अलग कप रखा जाता था.कि भूल से भी कोई उसमें ना पी ले.और ऐसा किसी एक घर में नहीं बल्कि पूरे समाज की यही व्यवस्था थी.दशकों बीत गये.हम बड़े हो गये.लेकिन हमारे परिवारों की सोच बड़ी नहीं हुई..हां राजनीतिक रूप से एक परिवर्तन जरूर देखने को मिलने लगा.और वो था नेताओं का दलित के घर भोजन करना.फोटो खिंचवाना और उस आधार पर खुद को उनका मसीहा बताकर वोट मांगना.यानी वो दलित हैं.हमसे अलग हैं.ये एहसास दिलाने का एक अनोखा और नया तरीका.जिसका कोई विरोध भी न कर पाए.
अब बात करते हैं अनुभव सिंहा की फिल्म आर्टिकल 15 की.मैं इस बात पर बाद में चर्चा करूंगी कि इस फिल्म में जाति-विषमता के मुद्दों को किस तरह से फिल्माया गया है. उससे पहले मैं ये बताना चाहूंगी कि मुझे इस फिल्म से क्या आपत्ति है.पहली आपत्ति ये है कि फिल्म अगर सत्य घटना पर आधारित है तो उसमें आरापियों और पीड़ितों की सही जाति दिखाई जानी चाहिए थी.ना कि उसमें कोई परिवर्तन करना था.डायरेक्टर सिर्फ ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते कि 'फिल्म का किसी सत्य घटना से कोई लेना-देना नहीं है.' दूसरी आपत्ति ये है कि इसमें निषाद (दलितों का एक नेता) के कैरेक्टर को इतना ग्लोरिफाई किया गया है जो कि पच नहीं पाता.इसको सामान्य रखा जाता तो समाज की हक़ीकत के करीब लगता.तीसरी आपत्ति ये है कि इस फीचर फिल्म में इतनी जगह तो बनाई ही जा सकती थी कि एससी/एसटी एक्ट के होने वाले दुरुपयोग पर कुछ बात कर ली जाए.कम से कम फिल्म के किसी किरदार के जरिए कुछ लाइन्स डाली जा सकती थीं.या आरक्षण की वजह से परेशान युवक के डायलॉग को और स्पष्ट किया जा सकता था.
तो फिल्म को सत्य घटना पर आधारित समझ कर देखने की भूल ना करें.ये फिल्म किसी एक घटना पर आधारित नहीं बल्कि देश में होने वाली कई ऐसी घटनाओं का आइना कही जा सकती है. चलिए अब बात करते हैं फिल्म की काबीलियत की.यानी ये फिल्म कितनी रियलिस्टिक है.और किस हद तक अपना मैसेज देने में कामयाब रही है.तो इसके लिए मैं इस फिल्म को 10 में 9 नंबर दूंगी.एक ऐसा संवेदनशील सब्जेक्ट जिस पर कभी इतनी मुखरता से फिल्म नहीं बनाई गई.तमाम तरह के इशूज फिल्मकारों ने उठाए लेकिन याद नहीं आता कि इतने बेबाक अंदाज़ में और इतनी हिम्मत के साथ जातीय विषमता को किसी हिंदी फिल्म में दिखाया गया हो.और बड़ी बात ये कि अगर दिखाया भी गया होगा तो किसी आर्ट फिल्म के जरिये.जबकि ये फिल्म पूरी तरह से कमर्शियल है और ऐसी फिल्मों के दर्शक काफी होते हैं यानी फिल्म समाज के ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचा पाती है.
अब एक-एक कर के इस फिल्म के कुछ डायलॉग्स और सीन के जरिये मैं आपको इस फिल्म की गंभीरता और संदेश बताती हूं.-
1- फिल्म के एक सीन में एक पुलिस वाला एक दलित नेता के लिए कहता है कि 'फलाना नेताजी जब सत्ता में रहते हैं तो मूर्तियां बनवाते रहते हैं और जब सत्ता से बाहर हो जाते हैं तो पूरा ही दलित हो जाते हैं'.इस डायलॉग के जरिये इस त्रासदी को दर्शाने की कोशिश की गई है कि दलितों के नेता भी उनकी स्थिति को सुधारने के लिए नहीं बल्कि अपनी सुख सुविधा के लिए ही मरे रहते हैं.
2- संविधान के आर्टिकल 15 में जिस समानता की बात की गई है , कैसे समाज के कथित उच्च वर्ग का एक तबका कदम-कदम पर उसकी धज्जियां उड़ाता है और आज़ादी के सात दशक के बाद भी उस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं है.इस पर आधारित कई सीन फिल्म में दिखे हैं.जैसे 'इन लोगों के साथ ऐसा ही होना चाहिए'.'इनको इनकी औकात में रहना चाहिए'.'इनका छुआ आप नहीं खा सकते'. इस तरह के संबोधनों से एक वर्ग की सामाजिक स्थिति को दिखाया गया है.
3- दो दलित लड़कियों के पेड़ से लटकते शव और एक बाल्मीकि समाज के व्यक्ति का बजबजाते नाले में सिर तक घुसकर उसकी सफाई करने जैसे दृश्य रोंगटे खड़े कर देते हैं.ये दिखाते हैं कि हम कितने उदासीन हो चुके हैं कि हमारे आसपास लगातार ऐसी खबरें आती हैं कि नाले के सफाई के दौरान जहरीली गैस से कई लोगों की जान चली गई.(देश में लगभग 7 लाख लोग आज भी इसी तरह से नाले को साफ करने का काम को करते हैं.जबकि ये 1993 में भारत में बैन हो चुका है ) वहीं दलित लड़कियों की हत्या कर पेड़ पर टांगकर बेशर्म इश्तेहार पेश किया गया .लेकिन हमें जैसे ये न्यूज़ अफेक्ट ही नहीं करते.हम देखकर आगे बढ़ जाते हैं जैसे किसी और देश की बात चल रही हो.
4- फिल्म की शुरुआत में ही एसएसपी अयान जब एक गांव से गुजरते वक्त अपने ड्राइवर को पानी का बोतल लाने को बोलता है तो वो ये कहकर पानी लाने से मना करता है कि ये दलितों का गांव है और यहां से सील्ड वाटर बोटल भी नहीं ले सकते.जिस पर विदेश से आये ब्राहमण एसएसपी को काफी आश्चर्य होता है.
5- फिल्म के एक सीन में एक ऊंचि जाति का ठेकेदार कहता है कि 'इन लोगों को इनकी औकात में रखने के लिए इन्हें मार के टांग दिया.एसएसपी अयान पूछता है कि 'और ये औकात क्या होती है.' इस पर ठेकेदार कहता है - 'हमारे यहां काम करने वालों की औकात वही होती है, जो हम तय करते हैं '. यानी समाज का एक ऐसा वर्ग जिसके लिए आज़ादी और अधिकार शब्द का कोई मतलब नहीं है.
6- फिल्म में एक ऐसे नेता के दोहरेपन को बखूबी दिखाया गया है जो ब्राह्मण-दलित एकता की खूब बातें करता है और सियासी रोटियां सेंकता है.जो कि वास्तव में हमारे देश की राजनीति में हकीकत है. साइकिल , फूल, पंजा की भी चर्चा सटायर अंदाज में की गई है और ये बताने की कोशिश की गई है कि दलितों की इस स्थिति के लिए समाज के साथ-साथ ये भी भरपूर जिम्मेदार हैं.
7- फिल्म के सीन में हीरो अपने साथ काम करने वाले सभी पुलिसकर्मियों से उनकी जाति पूछता है और ये जानने की कोशिश करता है कि कौन किससे ऊंचा है और कौन किससे नीचा.वो विदेश से पढ़कर आया है जहां अपने देश की तारीफ के पुल बांधा करता था और यहां आकर ऐसी ओछी हकीकत को देखकर परेशान है.इस सीन के जरिये ये दिखाने की कोशिश की गई है कि देश के बड़े शहरों में रहने वाले युवाओं को अपने देश की ऐसी हकीकत के बारे में कितना पता है.
8- फिल्म के आखरी सीन में ब्राह्मण पुलिस अफसर एक गरीब सी दिख रही महिला की दुकान से खाना लेकर खाता है, वो भी बिना उनकी जाति पूछे.तभी अपने सहकर्मियों के बीच ह्यूमर पैदा करने के लिए वो पूछता है- 'कौन जात हो अम्मा..' सभी हंस पड़ते हैं और तभी एक ट्रक वहाँ से गुज़रता है जिस पर लिखा होता है 'मेरा भारत महान'.जो कि ये संदेश देता है कि तमाम विषमताओं, रुढ़िवादियों.समस्याओं के बावजूद भी हम ये कहते नहीं थकते कि सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा.
आपने लक्ष्मणपुर बाथे की खबर देखी होगी. घोड़ी पर बारात लाने की वजह से पीटे गए दलितों की सैकड़ों खबरें पढ़ी होंगी.दलित बस्तियों से लड़कियों को उठाकर रेप की खबरें पढ़ी होंगी.ऊंची जाति के कुओं से पानी भरने पर पीटे जाने की घटना आपको याद होगी. कुर्सी पर बैठकर खाना खाने पर दलित की हड्डियां तोड़ने की खबरें पढ़ी होंगी.अपने आसपास, अपने घर में किसी ख़ास जाति वाले लोगों के लिए अलग से रखा गया चाय का कप देखा होगा..ऊम्र में बड़ा होने के बावजूद बुजुर्गों का कथित ऊंची जाति के बच्चों को भी सलामी ठोकते देखा होगा.लेकिन अफसोस फिर भी आपके अंदर कुछ नहीं हुआ तो आप ना हीं खुद को देशभक्त कहिये ना ही आजाद देश का व्यक्ति.ना एक इंसान, ना ही मानव. क्योंकि तब आपकी सोच गुलामी में जकड़ी हुई है.मानसिक गुलामी जस-की-तस आज भी कायम है.यहां तक कि आपके अंदर सामान्य मानवता का भी अंत हो चुका है.
तो आखिरकार ये फिल्म है अपने मुल्क पर गर्व करने वालों के लिए.शहरों में रहने वाले उन एलियन के लिए जिन्हें लगता है कि जो उनके आस-पास है वहीं भारत है.बाकी देश के सत्तर प्रतिशत हिस्सों से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है.ये फिल्म उन लोगों के लिए भी है जो राष्ट्रगान पर खड़े होकर, भारत माता की जय बोलकर, जय हिंद बोलकर खुद को देशभक्त समझते हैं.या वो लोग जो सोशल मीडिया पर अपने प्रोफाइल पर देशभक्त लिखकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं.तो इस फिल्म को देखकर समाज के कुछ लोगों पर भी इसके संदेशों का असर होता है तो फिल्म सार्थक होगी.अन्यथा आजकल फिल्मों का विरोध कर अपनी राजनीति चमकाने का फैशन तो चल ही रहा है.हमें किस तरफ रहना है .राष्ट्र के साथ या राष्ट्र के खिलाफ.ये हमारी विवेकशक्ति पर निर्भर करता है.
Source : Jaya Pandey