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एशिया महाद्वीप और महाशक्ति बनने की होड़

दुनिया के कुल भू-भाग का 30 प्रतिशत हिस्सा एशिया महाद्वीप खुद में समेटे हुए है, 49 देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं, भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी की भूमध्य सागर, आर्कटिक महासागर, प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर से घिरा एशिया.

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Rupesh Ranjan
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Asia continent

Asia continent ( Photo Credit : News Nation )

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दुनिया के कुल भू-भाग का 30 प्रतिशत हिस्सा एशिया महाद्वीप खुद में समेटे हुए है, 49 देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं, भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी की भूमध्य सागर, आर्कटिक महासागर, प्रशांत महासागर और हिन्द महासागर से घिरा एशिया. उत्तर- दक्षिण में एशिया और यूरोप के बीच यूराल पर्वत विभाजन की लकीर खीचता है, रूस, अज़रबैजान, जॉर्जिया, ग्रीस, कज़ाकिस्तान और  तुर्की जैसे  देश यूरोप औऱ एशिया दोनों महाद्वीपों में फैले हैं.  दक्षिण में स्वेज - नहर एशिया और अफ्रीका महाद्वीप को अलग करती तो है लेकिन अफ्रीकी देश मिस्र को भी एशिया में एक देश के रूप में शामिल किया जा सकता है.  अर्थव्यवस्था की बात करें तो एशिया दुनिया की 80 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व भी करता है और यहीं से शुरु हो जाती है.  आगे बढ़ने की वह अन्धी दौड़ जिसमें दौड़ना बड़े देशों की ऐसी मजबूरी है जिसे चाह कर भी नहीं छोड़ा जा सकता पूंजीवाद आया तो बड़ी आबादी वाले देशों को बड़े बाज़ार के रूप में देखा जाने लगा और महाशक्तियों ने वहां अपने वर्चस्व को बढ़ा कर खुद को समृद्ध भी किया. ऐसे में चुनौती थी महाशक्ति बनने की चाह रखने वाले देशों के लिए या तो वह खुद को रोक कर महाशक्तियों की दौड़ में मूकदर्शक बने रहते या फिर खुद भी मैदान में कूद पड़ते... और रुस दौड़ में शामिल होने का महत्वाकांक्षी फैसला लिया.

विस्तारवाद और उसके नतीजे

हालांकि विस्तारवाद की अन्धी दौड़ के नतीजे जापान बहुत पहले भुगत चुका था और आज तक उसकी पीढियाँ अपने पूर्वजों की गलतियों का अपनी नस्लों की बर्बादी के रूप में झेल रही हैं, फिर भी विस्तारवाद का तिलिस्म है कि कम नहीं होता है किसी ज़माने में सोवियत संघ रहा आज का रूस भी खुद को "ब्लैक होल" मान बैठा था जो भी देश छोटा हो, टूट सकता हो वह सोवियत संघ के झंडे तले आ जाए. साल था 1979, अफगानिस्तान ऐसा कि जहाँ दुनिया जीतने वाला ब्रितानी साम्राज्य भी तीन बार नाकाम हुआ, साल 1839 से 1919 के बीच ब्रिटेन ने तीन एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध लड़े.

1. पहला एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध 1839 में शुरू हुआ और तीन साल में अफगानी जनजातियों ने बेहद सामान्य हथियारों के साथ ब्रिटेन को हरा दिया. 1842 में ब्रिटेन द्वारा भेजी गई भारी भरकम 16000 सैनिकों की फौज में से सिर्फ एक ज़िंदा वापस लौटा. 

2. ब्रिटेन ने 36 साल बाद फिर कोशिश की 1878 से 1880 के बीच हुए दूसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान ब्रितानी संरक्षित राज्य बन गया. लेकिन ब्रिटेन को काबुल में एक रेज़िडेंट मिनिस्टर रखने की अपनी नीति को छोड़ना पड़ा और एक नये अफ़ग़ान अमीर को चुनकर देश से अपनी सेनाओं को वापस बुला लिया. साल 1919 में दुनिया पहले विश्व युद्ध के परिणामों को झेल रही थी तो इधर ब्रिटेन के अफ़ग़ान शासक ने खुद को आज़ाद मुल्क घोषित कर दिया, नाराज़ ब्रिटेन फिर हमला किया. 3-4 महीने तक फिर खूनी संघर्ष हुआ. लेकिन पहले विश्व युद्ध की मार झेल रहा ब्रिटेन अब अफगानिस्तान की आज़ादी को सत्य मान बेवफा अफगानिस्तान से निकल लिया.

एशियाई विस्तारवाद की शुरुआत

सोवियत संघ के अघोषित समर्थन से चल रही सरकार के राष्ट्रपति नूर मुहम्मद तारकी को  सरेआम शूली पर लटका दिया गया. सोवियत संघ के वर्चस्व को यह खुली चुनौती थी. साल था 1979 और अमेरिका की शह पर नूर मुहम्मद के विदेश मंत्री हफ़िजूद्दीन अमीन ने उनका कत्ल कर खुद को सुप्रीम नेता घोषित कर दिया, 25 दिसंबर 1979 को पहली बार अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने हमला कर दिया और हफ़िजूद्दीन अमीन की सरकार का अन्त हुआ. पहाड़ी और पथरीली ज़मीन पर अगले 10 साल तक सोवियत सेना और अमेरिकी मदद से सिर उठाते मुजाहिदीनों के बीच गृह युद्ध चला जिसकी सोवियत सेना को भी भारी कीमत चुकानी पड़ी. 

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की आमद

15 फरवरी 1989 को सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान से लौट गई और छोड़ गई अब तक मिल कर खेल रहे दो दोस्तों को एक गद्दी पर राज करने के लिए फिर वही हुआ जो सत्ता के लिए हमेशा होता रहा है, तख़्त-ओ-ताज़ कुर्बानी मांगते हैं, अफ़ग़ानिस्तान में भी कुर्बानी का दौर आया. 

दो दोस्तों की दोस्ती की कुर्बानी

अमरीका की शह, डॉलरों और पाकिस्तान के प्रशिक्षण पर खड़े हुए मुजाहिद्दीनों में भी बहादुर दिखने और मरने मारने की दौड़ थी, इस दौड़ में 

👉 कबीलाई लड़ाके
👉 तालिबानी लड़ाके (उर्दू में तालिब छात्रों को कहते हैं, तालिब शब्द से ही तालिबानी बना है)
👉 मुस्लिम कट्टरपंथी देशों (विशेषकर सऊदी अरब) के लड़ाके जिसमें ओसामा-बिन-लादेन भी शामिल था अब चूंकि सबका दुश्मन सोवियत संघ जा चुका था तो सबको तख़्त नज़र आने लगा था.

सोवियत सेना के जाते ही तत्कालीन राष्ट्रपति मुहम्मद नजीबुल्लाह ने कहा था, ''मैं अफगानिस्तान की मदद करने के लिए सोवियत संघ की जनता और सोवियत सरकार का शुक्रिया अदा करता हूं.'' 18 मार्च 1992 को मजबूरी में अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह ने ऐलान कर दिया कि जैसे ही उनके विकल्प की व्यवस्था होती है वो अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे, पिछले कई सालों से करीब 15 अलग-अलग मुजाहिदीन संगठन काबुल की तरफ़ बढ़ रहे थे और उन सबका एक ही उद्देश्य था नजीबुल्लाह को सत्ता से हटाना. अप्रैल महीने में उनकी बीवी और बेटियाँ भारत चली गई थीं.

उन्होंने खुद के लिए भी भारत से शरण मांगी थी नरसिम्हा राव गुपचुप तरीके नजीबुल्लाह शरण देने को तैयार भी थी लेकिन वह देश नहीं छोड़ सके और संयुक्त राष्ट्र के दफ़्तर में अगले साढ़े चार सालों तक शरणार्थी बन कर रहे. आखिरकार 27 सितंबर, 1996 को तालिबानी लड़ाके काबुल स्थित संयुक्त राष्ट्र के कार्यालय तक पहुंच गए.मशहूर पत्रकार डेनिस जॉन्सन ने एसक्वायर पत्रिका के अप्रैल 1997 के अंक में 'लास्ट डेज़ ऑफ़ नजीबुल्लाह' शीर्षक से लिखे लेख में लिखा, "थोड़ी देर में तालिबान के लड़ाके संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर में घुस आए. उन्होंने नौकर से पूछा नजीबुल्लाह कहां हैं? उसने कुछ बहाना बनाने की कोशिश की लेकिन वो उसे धक्का देते हुए अंदर घुस आए और भवन की तलाशी लेने लगे. कुछ ही मिनटों में उन्होंने नजीब को उनके भाई शाहपुर युसुफ़ ज़ई, अंगरक्षक जाफ़्सर और सचिव तुखी के साथ ढ़ूंढ़ लिया. नजीबुल्लाह को खींच कर उनके कमरे से निकाला गया. उन्हें बुरी तरह से पीटा गया. उनके गुप्तांगों को काट लिया गया और सिर में गोली मार कर पहले क्रेन पर लटकाया गया और फिर राजमहल के नज़दीक के लैंप पोस्ट से टांग दिया गया. जब लोगों की नज़र उन पर पड़ी तो उनके मृत शरीर की आंखे सूजी हुई थीं और उनके मुंह में ज़बरदस्ती सिगरेट ठूस दी गई थी. उनकी जेबों में ठूसे गए करेंसी नोट भी साफ़ दिखाई पड़ रहे थे."

खूँखार तालिबन की आमद

साल 1998 में तालिबान पहली बार आधिकारिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर पहुंचा खुद को रूढ़िवादी धार्मिक मूल्यों का समर्थक बताता तालिबान एक खुले और सभ्य समाज का दुश्मन साबित हुआ, महिलाओं के लिए अफ़ग़ानिस्तान नर्क बन गया, खुद को शरीयत का समर्थक बताते तालिबान ने जीना दूभर कर देने वाले प्रतिबन्ध लगाए

👉 बिना हिजाब के महिलाएं घर से बाहर न निकलें
👉 पुरुषों को दाढ़ी रखना अनिवार्य
👉 टीवी देखना, संगीत सुनना हराम
👉 बच्चियों का तालीम लेना हराम

महज़ 3 सालों में अफ़ग़ानिस्तान आतंकवाद का गढ़ बन गया जिसका नमूना अल-कायदा ने 2001 में अमरीका पर हमला के रूप में पेश किया

9/11 का हमला और अमरीका का तालिबान पर हमला

अमरीका एक बार फिर अफ़ग़ानिस्तान में घुसा और इस बार प्रत्यक्ष रूप से उद्देश्य था अल-कायदा और तालिबान को खत्म करना, अफ़ग़ानिस्तान में लोकतंत्र लाना. अरबों डॉलर हज़ारों अमरीकी सिपाहियों की जान और 20 साल के संघर्ष के बाद अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से यह कह कर लौटा की अब अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को खुद आगे की लड़ाई लड़नी पड़ेगी. नतीजा महज़ 10 दिनों के अंदर तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया, आज तालिबान सरकार बनाने को तैयार है. 

कल का आतंकवादी संगठन आज की सरकार है

विडम्बनाएं देखिए कल तक दुनिया की महान शक्तियां जिसे आतंकवादी संगठन मानती थीं आज सब उन्हीं से बात करने को मजबूर हैं. इस सब में सबसे अलग भूमिका निभा रहे हैं. चीन, पाकिस्तान, सऊदी अरब जैसे देश जो कि तालिबान के विरोध करने की बजाय उसे खुल कर समर्थन दे रहे हैं. 

मौकापरस्ती का सटीक उदाहरण - चीन
वन नेशन- वन रोड प्रोजेक्ट, और अपनी विस्तारवादी नीतियों को साकार करने के लिए चीन साउथ चीन सागर में  अपनी दादागिरी दिखाता है और भारत,ताइवान, फिलीपींस, ब्रुनेई, मलेशिया और वियतनाम, इंडोनेशिया, सिंगापुर देशों से लगातार उलझता रहता है. 

👉श्री लंका से उसका हम्बनटोटा बन्दरगाह भारी कर्ज़ के कारण 99 साल की लीज़ पर हथिया लिया
👉पाक अधिकृत कश्मीर में उसने अपना महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट बना लिया, जिसके लिए भारत से कभी मंज़ूरी नहीं ली गई
अब अफ़ग़ानिस्तान की बारी है क्यूंकि तालिबान अधिकारिक तौर पर ऐलान कर चुका है कि चीन विकास करने के लिए उसका आधिकारिक साथी होगा

एशिया विस्तारवाद का परिचायक

चीन पहला एशियाई मुल्क नहीं है जो अंधाधुंध विस्तार कर रहा है, एशिया के कई महत्वकांक्षी देश ऐसा कर इसके नतीजे भुगत चुके हैं, जिनमें जापान, सोवियत संघ (रशिया), इराक, पाकिस्तान, सऊदी अरब वो बड़े नाम हैं जो आज तक अपनी गलतियों की कीमत चुका रहे हैं.कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि साम्राज्यवाद की जिस तस्वीर में दुनिया बहुत रंगीन नज़र आती है, उस तस्वीर से इंसानी ख़ून की गंध आती है और कीमत आने वाली कई नस्लों को चुकानी होती है. अफ़ग़ानों से बेहतर इसे आज शायद ही कोई समझ सके, वो अफ़ग़ानिस्तान जहां आज सुनहरे बालों और नीली आँखों वाले बच्चे कूड़ा बीनते दिखते हैं. 

Source : PANKAJ KUMAR JASROTIA

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