तो एमपी के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम रमन सिंह और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की राज्य की राजनीति खत्म हो गई, अब ये नेता केंद्र के साथ नई पारी खलेंगे, इन तीनों नेताओं को बीजेपी ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है, देखने में तो ये पार्टी का आम फैसला लगता है लेकिन ज़रा इसके मायने समझने की कोशिश कीजिए. शिवराज सिंह चौहान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और कैलाश विजयवर्गीय राष्ट्रीय महासचिव यानि शिवराज सिंह चौहान का कद अब कैलाश विजयवर्गीय से छोटा होगा, जो शिवराज कल तक कैलाश विजयवर्गीय को एमपी में विवादित बयानों का मसीहा मानते थे वो अब उनसे पूछेंगे कि बताइए विजयवर्गीय जी क्या काम किया जाय ?
वैसे बीजेपी की वेबसाइट कहती है कि पहले से ही 7 राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और 7 राष्ट्रीय महासिचव हैं, इनमें शिवराज, रमन और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे नेताओं का नाम और जुड़ गया है. कहने को ये नेता अब राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की टीम के साथ काम करेंगे लेकिन जरा सोचिए. जब ये संदेश आया होगा, तब साधना भाभी ने क्या कहकर बताया होगा, रमन सिंह की पत्नी वीणा सिंह को कौन सा दौर याद आया होगा और वसुंधरा को ये फैसला किसने सुनाया होगा.
अब जरा इसके आफ्टर इफेक्ट को भी समझ लीजिए, मसलन जब शिवराज सिंह चौहान दिल्ली में बैठेंगे तो एमपी की कमान कौन संभालेगा ? वैसे शिवराज के जाने के बाद तो इस पर पहला अधिकार नरोत्तम मिश्रा का है लेकिन जब शिवराज की चल ही नहीं पा रही है तो ये संभव होगा कैसे ? क्यों कि शिवराज तो खुद ही प्रभात झा वाली कैटेगिरी में आ गए हैं. कुछ इसी तरह का हाल रमन सिंह का भी है. उन्होंने जोर आजमाइश करते हुए अपने खास धरम लाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष तो बनवा दिया लेकिन अब छत्तीसगढ़ की कमान किसके हाथ में होगी, खुदा ही जाने.
फिर भी मैं शिवराज सिंह चौहान को स्टेट्समैन कहूंगा.
मैं अपनी इस बात पर लौटूंगा लेकिन आपको पहले एक बात और बताता हूं, जरा एक सेकेंड के लिए सोचिए कि सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला 10 मिनट में तो लिया नहीं गया होगा. इसके लिए पहले से रणनीति बनी होगी लेकिन कभी आपने सोचा कि ये फैसला अगर एमपी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव से पहले लिया गया होता तो शायद तस्वीर कुछ और ही होती लेकिन फिर भी ऐसा कुछ नहीं किया गया.
दरअसल शिवराज का बढ़ता कद कुछ लोगों की आंखों में खटक रहा था, क्यों कि चुनाव हारने के बाद किसी नेता के प्रति इतनी सिंपेथी का पैदा होना सत्ता के शीर्षासन के लिए मुसीबत खड़ी कर सकता था. शिवराज सिंह चौहान चुनाव हारने के बाद भी एक स्टेट्समैन की तरह पारी खेल रहे थे, वो विपक्ष को अपने अनुरूप ढाल चुके थे, इसकी तस्वीर कमलनाथ के शपथ ग्रहण में दिख भी गई थी. शिवराज की सधी हुई राजनीति के कैनवस तले देश की मौजूदा पॉलिटिक्स चारों खाने चित्त हो रही थी.
ये शिवराज सिंह चौहान ही थे जो सत्ता गंवाने के बाद भी मुस्कुरा रहे थे, कमलनाथ को बधाई दे रहे थे, खुद को चौकीदार बता रहे थे, और हारने के बाद भी आभार यात्रा निकाल रहे थे. ट्विटर पर मामा भांजे का वो संवाद किसी भी राजनेता के लिए ये संदेश था कि वाकई में टाइगर जिंदा है. बीना ट्रेन से जाना हो या रैन बसेरों का निरीक्षण करना शिवराज अपने हर दांव में राजनीति की नई दिशा की रचना कर रहे थे.
मैं शिवराज सिंह चौहान में स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को देखता हूं. क्यों कि पार्टी में पद छोटा या बड़ा होना कोई मायने नहीं रखता है. मायने रखता है आपका काम, जो वाकई में बोलता है, और शिवराज सिंह चौहान उन्ही लोगों में शुमार होते होते हैं, जिनका सियासत में डंका बजता है.
पर एक सवाल अब मन में आता कि अब एमपी किसको मामा बोलेगा. कहते हैं कि अटल जी भीड़ में भी अपनों को पहचान लेते थे और गले लगा लेते थे ठीक ऐसी ही यादाश्त शिवराज सिंह चौहान की भी है. वो भी पुराने लोगों को भीड़ में पहचान लेते हैं. हम अटल जी को पोखरण, कारगिल, चन्द्रयान जैसे बड़े फैसलों के लिए याद करते हैं तो शिवराज सिंह चौहान भी कुछ इसी तरह के नेता हैं. लाडली लक्ष्मी जैसी योजना एमपी जैसे राज्य में तैयार कर के उस पर इतना बेहतर काम करना आसान नहीं था. ये शिवराज का ही कमाल था कि एमपी की कृषि विकास दर कभी 20 फीसदी से कम नहीं हुई, आज जानकर दुख होता है कि 10 फीसदी पर आ चुकी है.
सबसे बड़ी बात जानते हैं क्या थी, लोगों में गुस्सा राज्य सरकार के लिए नहीं था बल्कि केंद्र सरकार के प्रति था, हां सरकार की कुछ नीतियों का विरोध जरूर था लेकिन ये सत्ता से हटा देने वाला बिल्कुल नहीं था. खैर शिवराज, रमन सिंह और वसुंधरा जी को नई पारी की बधाई.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
Source : News Nation Bureau