कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को देश की यात्रा को कन्याकुमारी से शुरू करते हुए कश्मीर तक करना चाहिए ताकि वो मीडिया के बौंनों के बनाए हुए देश से मुक्ति पाकरअसली देश को देख सकें. जिससे वो अहसास कर सके कि देश के युवा को मालूम है कि उनको क्या चाहिए तब उनकी रणनीति जीत के ज्यादा करीब होगी. राहुल गांधी के पिछले कुछ सालों का कार्यकाल देखते है तो वो एक जुझारू नेता के तौर पर परिपक्व हुए है, उनके इंटरव्यू पूरी तौर पर अलग और विश्वास से भरे हुए दिखे.
जनता के सामने अगर किसी को प्रधानमंत्री मोदी से जूझते हुए संसद या फिर सड़क पर देखा तो वो राहुल के अलावा कोई दूसरा नाम आसानी से जेहन में नहीं आया. ऐसे में राहुल को ये बात बहुत नाराजगी की है कि वो मतदाताओ के मिजाज से ज्यादा अपनी टीम को नहीं समझ पाएं. कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ऐसे नेताओं से भरी हुई है जो अब पंचायत चुनावों की जीत को भी तरस सकते है लेकिन वही नेता देश की संसद में जीत की रणनीति तैयार करते है.
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संसद में कवरेज के दौरान अहंकार से भरे हुए इन नेताओं की कहानियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जब इन्होंने अपने सामने पार्टी तो दूर की बात है अपने नेता का ही सम्मान नहीं किया. पार्टी ने जो भी रणनीति तैयार की वो इसी ग्रुप ने तैयार की. इस ग्रुप के नेताओं को अगर आप गौर से देखेंगे तो आसानी से पता चल जाएंगा कि अब फील्ड से ज्यादा इऩका ताल्लुक हवा में कहानियां सुनाने वाले बौनों से ज्यादा है.
मीडिया के बौंने जिनकी भाषा अंग्रेजी है और वो बेहद शानदार अंग्रेजी में देश में पांच साल में जनता के मोदी से अलगाव की कहानी इन नेताओं को सुना रहे थे. आपको हैरानी तब होती है कि अगर आप इन लोगों से बात करते है तो आपको पता चलता है कि ये वेनेजुएला और भारत दोनों को एक कर के भी परिणाम आंक सकते है. इस तरह के थिंक टैंक क्रियेट हुए जो कभी हिंदुस्तान की आम जनता की भाषाओं में थिंक करना तो दूर की बात है बात भी नहीं कर सकते है.
मैं कई बार सोचता हूं कि आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद जैसे लोग अच्छे आदमी हो सकते है लेकिन क्या ये किसी राज्य में जीत दिलाने के लिए सड़क पर उतर कर किसी मूवमेंट को चला सकते है. सैम और अय्यर तो हीरे है जिनको चाट लेने पर कोई भी मर सकता है( हालाकि हीरे को चाट कर सिर्फ हिंदुस्तानी फिल्मों में ही मरा जा सकता है साईंस के मुताबिक नहीं).
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राहुल गांधी राजनीति में प्रयोग करने से नहीं हिचके लेकिन ज्यादातर प्रयोग इन्हीं लोगों की सलाहों पर लिए गए और इन लोगों की सलाह उन्ही मीडिया के अंग्रेजी दां बौंनों के आंकलन पर तैयार हुई जिनकी पूरी जिंदगी सिर्फ आरएसएस या बहुसंख्यकों को गाली देने में गुजर गई और सोशल मीडिया जैसा प्लेटफार्म था नहीं तो उनकी कही हुई कहानियों का भले ही देश की हकीकत से कोई रिश्ता हो न हो लेकिन वो ध्रुव सत्य मान ली गई क्योंकि कोई चैक कर नहीं सकता था और वो अंग्रेजी में लिख और बोल रहे थे.
राहुल गांधी ने जब राजनीति में शुरूआत की तब ये ही बौंने लुटियंस दिल्ली के सिरमौर थे और ज्ञान का अजस्र स्त्रोत भी लिहाजा वो इन्हीं प्रभावित भी हुए. अगर कोई भी गौर करके देखेंगा तो आसानी से देख सकता है कि जिस परमाणु ऊर्जा के फैसले को लेने के नाम पर इन लोगों ने पंचायत चुनाव न जीतने वाले मनमोहन सिंह को क्रांतिकारी नेतृत्व करार दिया वो आज भी वही का वही है और टोटल ऊर्जा के ऊपयोग का तीन फीसदा का बढ़कर महज 6 फीसदी होना था जिसमें आज भी कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है.
लेकिन एक गैंग की तरह ऑपरेट कर रहे इन लोगों ने पूरी तरह से साबित कर दिया कि ये क्रांत्रि हो गई है. तो क्रांत्रि हो गई. लेकिन क्रांति उस वक्त देश में हो रही थी और वो थी संचार माध्यमों में क्रांति ( ये विकास का ऐतिहासिक बदलाव है और मैं इसको वक्त के साथ चलने की मजबूरी मानता हूं जो हर राष्ट्र को अनिवार्य तौर पर बदलाव पर लाती है उसमें बदलाव को देश के आम आदमी से जोड़ने की जिम्मेदारी समझदार नेतृत्व पर ही होती है लेकिन वो नहीं हो तो बड़े बेतरतीब तरीके से जिंदगी में उतर आती है.
भारत में भी यही हुआ, सोशल मीडिया का अवतरण दशकों से दिल्ली और दौलताबाद के बीच की दूरी तरह से आम आदमी और दिल्ली की सत्ता रही है. कुछ ही रास्तों पर चल कर जातियों और धर्म की मिलीजुली सत्ता को सत्ता की चाबी मिल कर पार्टियों ने आम आदमी की आकांक्षाओं को पूरी तरह से कुचल कर रख दिया. लेकिन जनसंचार क्रांत्रि ने कई झूठों का पर्दाफाश कर दिया.
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अंग्रेजी मीडिया की एक जमात और फैशन के तौर पर वामपंथियों के गैंग्स के सारे तिलिस्म को काट कर रख दिया. राहुल गांधी ने इस बदलाव को आंकने में गलती कर दी. उनकी गलती इतनी सी रही कि जिन सलाहकारों से इस देश को समझ रहे है वो सब बाहर की डिग्रियों में पढ़ कर इस देश को समझ रहे थे. आप राहुल गांधी केआसपास के लोगों पर नजर दौड़ाईयें कुछ चेहरों को जिनको फैशन के तौर पर रखा गया मसलन प्रदीप जैन या लक्ष्मीनारायण को हराने वाली नटराजन हो बाकि के खानदानी शिजरे पर नजर दौड़ाए
कई कई पीढ़ियों से सत्ता भोग रहे नवावजादों के मैनेजमेंट कंपनियों के सहारे तैयार की गई छवियों के साथ ही वो इस पूरे चुनाव को लड़ रहे थे. अभी तक सैकड़ो बार उन लोगों से मुलाकात हुई हर बार रणनीतियों पर बेहद सधे हुए शब्दों से बात करते हुए वो लोग ज्यादातर किताबी दिखे उनकी कभी कभी हुई जीत में समीकरण जातिवाद या फिर लहर का ही योगदान हुआ न कि उनके खुद के कोई काम.
कई बार ऐसे लोगों से भी मुलाकात हुई जो आम आदमी से हाथ मिलाने के बाद सैनीटाईजर से हाथ साफ करते रहते है. ऐसे लोगों ने राहुल गांधी को जो सपना बेचा वो जमीन पर कही था ही नहीं. जनता ने ऐसे नेताओं की बात पर ध्यान देना काफी पहले बंद कर दिया. गुना जैसी सीट पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार बताती है कि लोगों ने झांसी की रानी को याद किया है सिंधिया को याद हो न हो लेकिन इतिहास के जागने की बारी थी.
जिस राफेल को राहुल ने रामबाण माना उसमें भ्रष्ट्राचार का जो आरोप बीजेपी पर चस्पाना चाहा वो कांग्रेस पर आसानी से चस्पा हुआ. महज पांच साल पहले भ्रष्ट्राचार को कायदा बना चुकी कांग्रेस जिनता भ्रष्ट्राचार पर चिल्लाती रही उतनी जनता को उसकी पुरानी कहानी याद आती रही. राहुल के किसान और बेरोजगारी के मुद्दे ने जब असर शुरू किया तभी उनकी कार्यसमिति के उन रिटायर्ड लोगों ने फिर से राफेल की ओर राहुल के निशाने को मोड़ लिया.
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उनके थिंक टैंक यानि अंग्रेजी के मीडिया ने फिर उन्हें बताया कि फाईटर प्लेन लिखना ज्यादा मुफीद लगता है और किसान और बेरोजगारों का इस्तेमाल तो जातिवाद और धर्म के नाम पर कर ही लिया जाएंगा लेकिन ये निशाना खाली रहा.
राहुल गांधी को पहले अपने लोगों से उन लोगों से जिनको जनता का पता मीडिया से चलता है छुट्टी पा लेनी चाहिए. मसखरों के तौर पर हिंदी के और बुद्दिमानों के तौर पर अंग्रेजों के काले अवतारों को अलविदा कह कर इस देश के उस युवा से सीधा मिलना चाहिए, जो इस देश का मुस्तकबिल है और उसको अपने देश के इतिहास पर गर्व है. वो बाबर और राणा सांगा का अंतर करना जान चुका है वामपंथियों के इतिहास को झूठ की कहानी बनाने के बावजूद.
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Source : Dhirendra Pundir