इटारसी से थोड़ा सा साईड में कार मुड़ी ही थी कि आगे मुश्किल से ही सड़क कहा जाने वाला रास्ता दिखाई दिया. पिछले एक महीने से छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में घूम रहा हूं, सड़कें काफी बेहतर दिखती हैं. खासतौर पर शहर से शहर को जोड़ने वाली और इस तरह की सड़क तो बेहद कम दिखी थी. आगे कुछ दूर चलते ही सड़क का नाम ही गायब हो गया. सड़क पर पत्थर ही पत्थर थे और डर था कि अंधेरे में गाड़ी के टायर न बैठ जाएं. लेकिन जाने का फैसला कर चुका था तो अब वापसी की डगर नहीं. लिहाजा चलता रहा. बहुत तेज चल नहीं सकते थे और सूर्य भगवान अस्ताचल की ओर थे इससे एक और खतरा बढ़ गया था कि रोशनी जा चुकी होगी और कैमरे की आंख आस पास दूर तक देखने में असमर्थ हो चुकी होगी. लेकिन फिर भी चलता रहा क्योंकि मुझे लगा कि यह हो कैसे सकता है. जानकारी बेहद देर से आई.
(Photo- गांव जमानी में स्थित हरिशंकर परसाई का स्मारक)
मैं सुबह से घूम रहा था और नर्मदा के तट से लेकर गांव के अंदर घूमते-घूमते एपिसोड का काम लगभग पूरा कर चुका था और दिन भर मदद कर रहे रिपोर्टर के साथ शहर छोड़ने से पहले की चाय पी रहा था. बातचीत में शहर के इतिहास की चर्चा हो रही थी. इसी बीच रिपोर्टर ने कहा कि हरिशंकरपरसाईं जी का गांव भी यहीं है. मैं थोडा सा अचकचा गया कि ये बात आपने पहले क्यों नहीं बताई, रिपोर्टर का जवाब था कि मुझे लगा कि इस को लेकर क्या खबर बनाएंगे. अब मैं दुविधा में था क्योंकि सुबह आठ बजे से होटल छोड़ने के बाद देर रात तक गाड़ी चलाने वाले प्रेम को लेकर भी मैं हमेशा ध्यान में रखता था लेकिन फिर भी मैंने कहा कि चलते हैं.
उस महान साहित्यकार के घर तक पहुंच कर देखते हैं कि किस तरह उसका स्मारक है. क्योंकि दादा माखनलाल चतुर्वेदी जी के नाम को मध्यप्रदेश में आप जगह-जगह देख सकते हैं. खैर एक बिना सड़क के रास्ते पर होते हुए गांव जमानी पहुंचे, पूछा कि उनका घर कौन-सा है तो लोगों ने कहा कि उनका घर तो नहीं है साहब, मुझे लगा कि शायद स्मारक होगा लेकिन गांव वालों के बताए हुए स्थान पर पहुंचे तो पार्क के एक कोने में छोटा-सा एक स्थान दिख रहा था. जिस पर चढ़ कर बच्चे कूद रहे थे, गुलमोहर पेड़ की डालियां तोड़ कर उस पर चढ़-उतर रहे थे. मैंने पार्क के मध्य में देखा कि एक बड़े से स्मारक के ऊपर छोटी सी मूर्ति थी. मुझे अंदेशा हुआ कि शायद यही हरिशंकर परसाई जी की है लेकिन सामने एक सज्जन आए और उन्होंने मेरा शक दूर किया और बताया कि ये शास्त्री जी की मूर्ति है. उन्होंने बताया कि परसाई जी के नाम पर गांव में कुछ है तो ये एक कोना और उसमें कुछ फीट ऊंचा ये ईंटों से बना हुआ प्लास्टर हुआ एक स्मारक.
इससे बड़ी हैरानी थी कि ये भी गांव वालों ने ही बनाया था और इसके बाद मैं जब उनके घर जा रहा था तो पता चला कि एक खाली प्लाट है 80-100 फीट का और गांव वाले उसको जीरो प्वाईंट कहते है. गांव वालों ने उसे साफ रखा हुआ है उसी जगह परसाई जी का घर था लेकिन घर गिर गया था उसको बना नहीं पाए. गांव वालों ने बताया कि वो नेताओं के घर-घर गए लेकिन किसी भी पार्टी के नेता को नहीं लगा कि इस जगह को एक स्मारक या फिर गांव के स्कूल का नाम ही परसाई जी के नाम पर रख दिया जाए. हां गांव वाले हर साल उनकी जयंती पर कुछ साहित्यकारों को बुलाकर एक कार्यक्रम जरूर कराते है. और फिर उन्हीं गांव वालों ने हंसते हुए कहा कि पाखंड के खिलाफ जहर जैसा लिखने वाले परसाई जी के लिखे का जहर आज तक नेताओं के जेहन से नहीं उतरा है. लिहाजा आज भी वो सब कुछ करते है लेकिन परसाई जी को सपने में याद नहीं करते है उनका स्मारक तो बहुत दूर की बात है. अंधेरा घिर आया था और मुझे 200 किलोमीटर आगे जाना था लिहाजा रस्माना एक-दो शब्द बोल कर कुछ बोझिल से कदमों से आगे की ओर बढ़ गया.
हरिशंकर परसाई का नाम हिंदी में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. दो-तीन पीढ़ियों ने साहित्य में व्यंग्य को विधा के तौर पर स्थापित करने वाले हरिशंकर परसाई की लेखनी ने समाज की गंदगी को बोझिल तरीके से नहीं हंसाते-हंसाते रूला देने वाले अंदाज में सामने रख दिया था. हिंदी की जब तक मौत नहीं हुई थी (यानि पब्लिक स्कूल में हिंदी को अटक-अटक पढ़ने वाली पीढ़ी का जन्म नहीं हुआ था) तब छात्रों को राजनीतिक पर्दों के पीछे की षड़यंत्री व्यूहरचना और रूढि़वादिता की जकड़न को चीरे के सहारे बाहर निकालने वाले परसाई जी को राजनीति ने कभी पंसद नहीं किया क्योंकि जिन पैंतरों को जनता सालों बाद समझती उनकों परसाई जी ने अपने लेख से तभी समझा दिया. लिहाजा जनता नेताओं पर हंसने लगी. और हंसना आपको चीजों को गहराई से देखने की पहली सीढ़ी देता है क्योंकि आप उसे देख रहे हैं. इसी तरीके से परसाई जी ने समाज की कुरीतियों की सर्जरी की थी लेखन के सहारे.
Source : Dhirendra Pundir