15 मिनट तक पुलिस हटा लो तो 15 करोड़ लोग 100 करोड़ पर भारी हो जाएंगे और इसी तरह गंगा-जमुनी तहजीब का पाठ पूरा हो जाएगा. आखिर ये गंगा जमुनी तहजीब आखिर है क्या---
कई बार आपको लगता है कि आपने जो लिखा उससे लोग आहत हुए कि आपने ग़लत शब्दों के साथ ग़़लत लिखा है. ऐसे में आपको फिर बार बार अपने रैफरेंस देखने होते है. कई बार आप लिख देते है जो किताबों में साफ लिखा होता है लेकिन चूंकि लोगों ने पढ़ा नहीं होता तो भी आप पर गुस्सा निकालते है. ऐसे में एक विषय है जो मुझे हमेशा आकर्षित करता है और वो है गंगा-जमुनी तहजीब.
दोआब का रहने वाला हूं ऐसे में ये शब्द जादू की तरह से मुझपर चिपक गया. ऐसा शब्द जिसमें सैंकड़ों साल की तहजीब की बात बार बार होती है. मैं ऐसे तिलिस्म में घुस जाता हूं जिसमें दरवाजे ही दरवाजे है. लेकिन क्या वो सब दरवाजे वाकई ऐसे रास्तों की ओर खुलते है जहां से मेरे पुरखों ने एक मिली-जुली संस्कृति की नींव रखी थी. क्या ऐसी संस्कृति जहां एक दूसरे की परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं के प्रति सम्मान का समानता का भाव रहा था. ऐसे ही रास्ते जिनपर मेरे पूर्वजों ने हमलावरों के तौर पर आएँ हुए धर्म के साथ सहजता का संबंध बनाने में सफलता प्राप्त कर ली थी.
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मोहम्मद बिन कासिम की लूट और हत्याओं की कहानी की शुरूआत और गजनवी, गुलाम वंश के अंधें बर्बर शासकों, खिलजी की धर्मांधता के साथ क्रूरता और फिर तुगलक वंश के ईद के दिन हिंदुओं की लड़कियों की सरेआम नुमाईश और अपने वंशजों के साथ बाहर से आएं हुए स्वधर्मिरयों को गुलाम के तौर पर देने की या फिर मुगलिया सल्तनत के अत्याचारों और देश के अलग अलग हिस्से में अलग-अलग नाम से राज कर रहे धार्मिक जिहादी सुल्तानों के इंसानियत के रूह कंपाने वाले अत्याचारों के बाद भी आम मुस्लिम आम काफिरों से बराबरी का बर्ताव कर रहा था. काफिरों की बेटियों को ईज्जत से नवाज रहा था और काफिरों के धार्मिक आचार-विचार की हिफाजत में शाहीन बाग की तरह विरोध कर रहा था.
ये सिर्फ सवाल थे इनके जवाब उस वक्त की किताबों में दफन हो सकते है.
उस वक्त की किताबें जिनमें खास तौर से मुस्लिम शासकों के समय के मुस्लिम इतिहासकार या फिर जीवनीकार या फिर वो विदेशी यात्री जिन्होंने उस दौरान इस देश की यात्रा की है के लिखे गए वृतांत ही आधार बन सकते है या फिर उस वक्त के काफिरों के खड़े हुए स्मारकों के साथ कैसा व्यवहार किया गया और किस तरह उस वक्त संस्कृति की इबारत लिखी गई.
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क्योंकि 2014 में बीजेपी की सरकार आने के बाद वाकई इस पर काफी बात की गई. यहां तक कि बहुत से लोगों ने ये कह दिया कि इतिहास बदला जा रहा है. मुझे भी लगता है कि ये देखना जरूरी है कि जो बदला जा रहा है वो इतिहास क्या है. क्या वाकई वो इतिहास है. क्या वाकई वो लिखा गया हुआ इतिहास है और लिखने वाले कौन है. क्या वो वाकई बिना किसी विचारधारा की पैरवी किए बिना किताब लिख रहे है.
बचपन से लोक साहित्य की मौखिक परंपरा या फिर आंचलिक भाषाओँ में रचे गए कुछ अनाम से साहित्य में उस वक्त को कैसे देखा गया इस पर भी बात करनी चाहिए.
बार बार गंगा-जमुनी तहजीब के गायब होने की या नष्ट होने की कहानी में मुझ ये बात देखने के लिए मजबूर किया कि वाकई ये बात देखनी चाहिए कि आखिर गंगा-जमुनी तहजीब क्या है. क्योंकि इसके अलावा तो कही ये तहजीब हो नहीं सकती है.
गंगां नदी (जिसे मैं नदी लिखने पर भी अपनी मां से क्षमा चाहूगा क्यों वो मां गंगा या फिर गंगा मैया के अलावा कुछ भी शब्द इस अविरल धारा के लिए नहीं बोली ) हिंदु यानि काफिरों की पंरपरा में मातृ भाव से पूजी जाती है और यमुना या जमुना भी नदियों के आर पार बसे लोग जमुना मैया कह कर ही जल का आचमन करते रहे है. ऐसे में बर्बर, वहशियों और लुटेरों के तौर पर घुसे जिहादी सुल्तानों के ईतर इस्लाम के अनुयायियों ने इन नदियों का क्या इस्तेमाल किया कि ये नदियां गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक बनी और नाम बन कर आम चलन में आ गई.
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काफिरों के धार्मिक संस्कारों में दोनों नदियां हमेशा से शामिल रही लेकिन उम्माह के लिए इन दोनों नदियों ने किस तरह से रूप बदला कि बिना उनके धार्मिक संस्कारों में शामिल हुए भी उनकी संस्कृति का प्रतीक बन कर लोकभाषा में शामिल हुई. क्योंकि इस्लामिक इतिहासकारों ने सब बताया कि किस तरह से इस्लाम की परंपरा को यहां स्थापित करने के लिए लाखों लोगों को जिबह कर दिया गया. इसमें एक बड़ा उदाहरण तैमूर है जिसे तमाम मुगलिया सल्तनत ने अपने सबसे बड़े आदर्श के रूप में किताबों में याद किया. तैमूर ने अपने विजय अभियान में गुलामों के तौर पर बेचने के लिए बंदी बनाएं गए 1 लाख काफिरों को यमुना के किनारे लोनी में जिबह कर दिया क्योंकि वो बेचारे दिल्ली के बादशाह के सैनिकों को तैमूर की फौज से लड़ते देख कर खुश हो गए थे. एक मुस्लिम इतिहासकार ने ही उस घटना का विवरण लिखते हुए बताया था कि यमुना का पानी पचास कोस तक पीने के लायक नहीं रह गया था क्योंकि काफिरों के खून से लाल कर दिया गया था. और चार दिन तक इस शहर में सब बहरे हो गए थे क्योंकि तैमूर के गाजी काफिर औरतों के साथ बलात्कार कर रहे जिनकी चीखों ने इस शहर को बहरा कर दिया था. ये यमुना के साथ हमलावरों का सीधा संवाद हुआ इसी को इस संस्कृति की शुरूआत मानना चाहिए या फिर इस कत्लेआम के 15 दिन बाद मां गंगा में स्नान करने मकर स्ंक्राति पर इकट्ठा हुए 30000 काफिरों के खून से हरिद्वार को नहला दिया था. मां गंगा के साथ ये संवाद भी संस्कृति का हिस्सा था या पहली कोशिश थी.
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इसके बाद बहुत दिनों तक "साहिब-ए- किरान ( तैमूर की उपाधि जिसके वंशज मुगल इस नाम से ही उसको संबोधित करते थे) की वंशावलि को अपने कंधों पर ढोते हुए मुगलों ने इस देश को ऐसे बहुत से नरसंहार दिए. लेकिन इसी बीच जनता गंगा-जमुनी तहजीब बना रही थी तो ये बहुत बड़ा बलिदान था. लेकिन बलिदान कौन दे रहा था. क्या इस्लाम के अनुयायी बलिदान दे रहे थे काफिरों के लिये. इस पर बाद में विस्तार से चर्चा करने की कोशिश की जाएंगी.
इसके बाद एक बड़ा सवाल था ईमारतों का. सो अयोध्या मंदिर में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानना आज भी बहुत से इस्लामिक अनुयायियों के लिए अन्याय है हालांकि देश की अदालत के फैसले में कोई भी ये देख सकता है कि फैसले में कड़े शब्दों से परहेज किया है. देश भर में कार से घूमते वक्त ईमारतों की हालत या फिर उनको किस तरह मस्जिदों में या फिर दूसरी ईमारतों में बदला गया साफ तौर पर दिखता है. लेकिन क्या मंदिरों को तोड़ कर बिस्मार कर देने और उस पर मस्जिद तामीर करने या फिर मंदिरों की मूर्तियों को निकाल कर उनको टुकड़े टुकड़े कर गाय का मांस तौलने के लिए दिल्ली के कसाईयों को बांटने को या फिर उन मूर्तियों को मस्जिद के सामने दबा देने से ताकि उन पर चल महजबी लोग अपनी नमाज अदा करने आ सके को गंगा जमुनी तहजीब की शुरूआत या उत्कर्ष कह सकते है.
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ऐसे बहुत से सवालों से मैंने देखा कि किस तरह से किस्सों में है कि दरगाहों का क्या इस्तेमाल हुआ किस तरह से इस्तेमाल हुआ और काफिरों ने किस तरह उनके आगे सिर झूका कर अपने को इस संस्कृति के लिए तैयार किया है.
गंगा जमुनी संस्कृति के ये पहलु दुनिया की किसी भी संस्कृति के लिए अनुपम हो सकते है. देश के दो टुकड़े गंवाने के बाद दुनिया के सबसे बर्बर, वहशियाना और सदियों तक चलने वाले अमानवीय अत्याचारों की श्रृंखला को झेलने के बाद भी उत्पन्न हुई इस संस्कृति को कैसे नुकसान पहुंच रहा है इस पर नजर डालना जरूरी है.
तिरंगे को लहराते और देश के जनगणमन गाने वाले लोगों के ये बताने पर कि ये 15 करोड़ है और 100 करोड़ पर भारी है या फिर 15 मिनट पुलिस हटाने के बाद असली दिखाने वाले इन लोगों के इतनी मेहनत से सृजित की गई संस्कृति को किस तरह 1921 में बना एक संगठन बर्बाद कर रहा है इसके लिए भी इतिहास की किताबों में झांकना होगा. तालिबान के नाम पर हिंदु तालीबान का शब्द लिखने वाले लश्कर के मुकाबले संघ को रखने वाले इन लोगों के बच्चों के नाम तैमूर, औरंगजेब, बाबर, महमूद, कासिम या कुछ ऐसे ही नायक सलमान या फिर तारिक रखे जाते है ताकि गंगा जमुनी संस्कृति बनी रहे.
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ये सवाल लगातार बना रहता है कि कैसे सदियों के इस अत्याचारों के सफर में उगी संस्कृति को अब जब देश में लोकतंत्र है और दुनिया भर में मकबूल अंग्रेजी भाषा ( जिसे ताकतवर देशों में शामिल कुछ देशों के अलावा से कोई नहीं बोलता है) की पहरेदारी, सुपुर्दारी है, देश की सबसे बड़ी अदालत में काफिरों की कोई भाषा नहीं बोली जा सकती है यानि आजादी के पिचहत्तर साल बाद भी वहां सेक्यूलर भाषा को बनाया हुआ है तब भी ये खतरा कैसे पैदा हो गया.
(गंगा जमुनी संस्कृति का ये सवाल तब पैदा हुआ जब मेरे हर पोस्ट पर कुछ लोगों को लगा कि मैं गंगा जमुनी संस्कृति पर सवाल खड़ा कर रहा हूं. ऐसे में मेरे जेहन में सवाल आया कि मैं जरूर देखूं कि आखिर ये संस्कृति क्या है जिसको सबसे बड़ा खतरा उन्हीं लोगों ने खड़ा कर दिया है जिनकी लाशों पर ये खड़ी हुई है.
Dhirendra Pundir (लेखक न्यूज नेशन में एडिटर पद पर कार्यरत हैं.)
Source : News Nation Bureau