आज का दिन (5 September Teacher's Day 2020) देश में शिक्षकों के नाम है. हर कोई अध्यापकों के योगदान को नमन करता है, लेकिन मुल्क के शिक्षकों से जुड़े कुछ जरूरी सवालों को आज के दिन भी भुला दिया जाता है! बात सिर्फ बुनियादी शिक्षा की ही करें तो भी हालात चिंताजनक ही नजर आते हैं. देश के करीब 15 लाख 50 हजार स्कूलों में 24 करोड़ स्टूडेंट को पढ़ाने के लिए करीब 94 लाख टीचर मौजूद हैं. लेकिन ऐसा नहीं कि देश में शिक्षकों के मोर्चे पर तस्वीर सुहानी है.
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बिना टीचर कैसे बढ़ेगा इंडिया-
कुछ वक्त पहले तक के आंकड़ों के मुताबिक देश के 92,275 स्कूलों में सिर्फ एक टीचर तैनात था. मध्य प्रदेश के 18307, राजस्थान के 12052, उत्तर प्रदेश के 8092, आंध्र प्रदेश के 7483 और झारखंड के 7564 स्कूल सिर्फ एक टीचर के ही भरोसे थे! तब आंध्र प्रदेश के 1100 से ज्यादा सरकारी स्कूलों में तो एक भी टीचर नहीं था जबकि कर्नाटक के 700, महाराष्ट्र के 4000 और उत्तर प्रदेश के 496 स्कूलों में भी अध्यापक का इंतजार था. वहीं शिक्षा की चौखट पर अनामिका शुक्ला जैसे किरदार भी उभरते हैं, जो यूपी के 25 स्कूलों के कागजों में एक ही वक्त में 'शिक्षक' बने बैठी थी! सवाल है कि बिना टीचर कैसे बढ़ेगा इंडिया?
सवाल पढ़ाने वालों की काबिलियत पर भी-
वैसे जहां अध्यापक हैं भी, वहां सवाल उनकी काबिलियत पर भी हैं. एक अनुमान के मुताबिक करीब 4 लाख से ज्यादा अध्यापक ऐसे हैं, जिनके पास पढ़ाने की ट्रेनिंग नहीं है! ऐसे अनट्रेन्ड टीचर अकेले पश्चिम बंगाल में सवा लाख जबकि बिहार में एक लाख से ज्यादा अध्यापक हैं! वैसे सवाल पढ़ाने वालों की काबिलियत पर भी है? साल 2011 में बिहार में हुई स्टेट टैट यानि अध्यापक पात्रता परीक्षा को फिजिक्स पढ़ाने वाले अभ्यर्थियों में से केवल 5 परीक्षा क्वालीफाई कर सके थे! जबकि कैमिस्टी, गणित, बोटनी, अंग्रेज़ी जैसे विषयों में 5 फीसद से कम आवेदक ही अध्यापक बनने की परीक्षा पास कर सके थे! जाहिर है नाकाबिल अध्यापकों का बुरा असर नौनिहालों पर मुल्क के नौनिहालों पर दिखता है. तभी तो प्रथम एनजीओ की असर रिपोर्ट बताती रही है कि देश में 8वीं क्लास के 25 फीसद बच्चे दूसरी क्लास की किताबें तक नहीं पढ़ पा रहे!
सिस्टम ने बनाया अध्यापकों को 'फुटबाल' —
वैसे सवाल सिर्फ शिक्षकों पर नहीं बल्कि सिस्टम पर भी हैं, जिसने देश के अध्यापकों को फुटबाल बनाया दिया. हमारे शिक्षक कभी जनगणना कराते हैं तो कभी चुनाव कराते हैं. स्कूलों में खाना भी बनवाते हैं. फिर जो समय बचता है उसमें पढ़ाते हैं. ये तब है जबकि साल 2007 में सर्वोच्च अदालत ने साफ कहा था कि गैर शैक्षणिक कामों में अध्यापक को ना लगाया जाए! लेकिन विश्व बैंक की एक स्टडी बताती है कि हर दिन शिक्षकों की अनुपस्थिति करीब 25 फीसदी है. इन्हीं में से कुछ हर तीसरे महीने अपने हक की आवाज उठाते वक्त देश की अलग—अलग राज्य विधानसभाओं के बाहर पुलिसिया लाठीचार्ज का शिकार होते हैं! ये वही शिक्षक हैं, जिनसे हमारे नीतिनिर्माता कम से कम वेतन में बेहतरीन शिक्षा मुहैया कराने की उम्मीद रखते हैं!
वैसे पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के मोर्चे पर हालात सुधरे हैं लेकिन देश को लंबा इंतजार शिक्षा नीति का करना पड़ा. दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी वाले मुल्क को अपनी नई शिक्षा नीति के लिए करीब 33 साल इंतजार करना पड़ा! नीति निर्माताओं के मोर्चे पर इससे अफसोसजनक कुछ नहीं हो सकता.
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यकीनन मुझ समेत हर किसी की जिंदगी में शिक्षकों का अहम योगदान रहा है, लेकिन इस दिन शिक्षकों से जुड़े सवालों को नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं. सवाल ये कि क्या कारोबार बन चुकी तालीम के दौर में शिक्षकों का उतना सम्मान है, जिसके वो हकदार रहे हैं? सवाल ये कि क्या सरकारें शिक्षकों के इस सम्मान के लिए ईमानदार हैं? तब जबकि हमारे मुल्क में शिक्षा समवर्ती सूची का हिस्सा है! यानि राज्य और केन्द्र दोनों की जिम्मेदारी.
(Disclaimer- इस लेख में लिखे गए हर शब्द लेखक अपने निजी विचार हैं. वेबसाइट से इसका कोई संबंध नहीं हैं.)
Source : News Nation Bureau