आज हिंदी दिवस (Hindi Diwas) है. हमारे देश की राजभाषा हिन्दी के बढ़ते दायरे को समझने का ये एक मौका भर है. ये दिन सभी भाषाओं को खुद में शामिल करने वाली और सभी को जोड़ने वाली भाषा हिन्दी की सांस्कृतिक और पारंपरिक विरासत को सहेजकर रखने की चुनौती का एहसास भी कराता है. ये एक ऐसा मौका है, जबकि हिंदी के बढ़ते दायरे और उसके समक्ष पैदा होती रही चुनौतियों पर मंथन होता है. राजभाषा जैसे मुद्दों को लेकर सरकारी नीतियों पर सवाल खड़े होते हैं, लेकिन इन तमाम सवालों के बीच हिंदी का दायरा साल दर साल बढ़ता जा रहा है.
यह भी पढ़ेंः गडकरी बोले, 'CM बनने वाले इसलिए दुखी हैं, क्योंकि कब तक रहेंगे... भरोसा नहीं'
“संविधान बनाते वक्त सबसे पहले उठा था भाषा का मुद्दा”
भारत का संविधान (constitution) बनाने का जिम्मा संभालने के लिए बनी संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी. लेकिन इसके अगले ही दिन यानी 10 दिसंबर 1946 को संविधान सभा की हुई दूसरी बैठक में डॉ. सच्च्दिानंद सिन्हा और आर वी धूलेकर ने भाषा का मुद्दा उठा दिया. इसके बाद मार्च 1947 में मौलिक अधिकारों को लेकर बनी एक उप—कमेटी में हिन्दी पर बात आगे बढ़ी.
यह भी पढ़ेंः 2 महीने में ही कम होने लगती हैं कोविशील्ड और कोवैक्सीन लेने वालों की एंटीबॉडीज- स्टडी
संविधान सभा में भाषा को लेकर हुए मंथन में 'हिन्दुस्तानी' भाषा पर चर्चा हुई लेकिन कांग्रेस की एक बैठक में हिन्दुस्तानी के मुकाबले हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव 32 के मुकाबले 63 वोटों से जीत गया. दूसरी ओर, महात्मा गांधी भी हिन्दी पर ही जोर दे रहे थे. इन सबके बीच 1948 के मार्च और नवंबर में एक बार फिर भाषा का मुद्दा जोरशोर से उठा. हिन्दी के दायरे के बढ़ाने की मांग पर एक संन्यासिनी के अनशन पर बैठने के चलते पं. नेहरू को के. एम. मुंशी की अगुवाई में एक कमेटी बनानी पड़ी. 12 सितंबर को कमेटी की रिपोर्ट संसद में पेश हुई. हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा चुना गया. इसी दौरान हिन्दी भाषा पर सेठ गोविंद दास, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और मौलाना अबुल कलाम के भाषण यादगार रहे.
(लेखक न्यूज नेशन में एंकर हैं.)
Source : Anurag Dixit