वक्त का हर शै गुलाम..ये कल भी सच था,आज भी सच है. कल तक राहुल गांधी को लेकर बीजेपी और सत्ता पक्ष मज़ाक उड़ाया करते थे, लेकिन हिंदी हार्टलैंड के तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस का परचम लहराकर राहुल गांधी ने बीजेपी की नींद उड़ा दी है. मोदी के खिलाफ संभावित महागठबंधन में भी तमाम क्षत्रप युवा और कम अनुभवी राहुल गांधी को अपना नेता मानने से कतराते रहे हैं,लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ट्रिपल कामयाबी ने अब ऐसे तमाम क्षत्रपों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है. खुद को महागठबंधन का नेता और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की राह में राहुल गांधी को पहली कामयाबी मिल भी गई है. दक्षिण भारत की सियासत में बड़ा वजूद रखने वाले डीएमके के प्रमुख एम के स्टालिन ने भरे मंच से एलान कर दिया है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए उनके उम्मीदवार होंगे. स्टालिन ने जब ये एलान किया उस वक्त मंच पर टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन, पुडुचेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणस्वामी,बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा और रजनीकांत भी मौजूद थे. ये मौका था डीएमके हेडक्वार्टर में डीएमके के टाइटन एम करुणानिधि की प्रतिमा अनावरण का,जिसमें सोनिया गांधी समेत कई विपक्षी नेता मौजूद थे.
राहुल के लिए दक्षिण से कांग्रेसी दांव
राहुल गांधी को सीधे तौर पर गठबंधन के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करना कांग्रेस के लिए बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसके पीछे कांग्रेस की बड़ी रणनीति भी हो सकती है. कांग्रेस जानती है कि दक्षिण की कोई भी पार्टी या उसका नेता दिल्ली की दावेदारी में ज्यादा दम नहीं रखता. दक्षिण के तमाम नेता क्षेत्रीय राजनीति के इर्द-गिर्द ही रहते हैं. टीडीपी ने हाल ही में एनडीए से नाता तोड़कर यूपीए से जोड़ा है. डीएमके स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस के साथ है क्योंकि तमिलनाडु की सत्ताधारी एआईएडीएमके बीजेपी के करीब है. रजनीकांत ने राजनीति में अभी कदम ही रखा है. यानी दक्षिण का प्ले ग्राउंड कांग्रेस यानी राहुल गांधी के लिए निष्कंटक है. शायद इसीलिए कांग्रेस ने ऐसा इंतज़ाम किया कि दक्षिण से औपचारिक तौर पर राहुल गांधी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर संभावित महागठबंधन के सभी दलों को संदेश दे दिया जाए. कर्नाटक में जेडीएस को मुख्यमंत्री का पद सौंपकर केंद्र में अपनी दावेदारी राहुल गांधी पहले ही मज़बूत कर चुके हैं.
दक्षिण का संदेश लेगा उत्तर
दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ें तो महाराष्ट्र में एसीपी और उसके सुप्रीमो शरद पवार का समर्थन भी राहुल गांधी के साथ है. पूरब की ओर असम के बदरुद्दीन अजमल, आरजेडी, जेवीएम, जेएमएम भी राहुल की पीएम पद की दावेदारी के समर्थन में हैं. यानी संभावित महागठबंधन के ज्यादातर सहयोगियों को राहुल गांधी की अगुवाई से एतराज़ नहीं है. लेकिन अब बड़ा सवाल उत्तर के सबसे अहम प्रदेश उत्तर प्रदेश का है. दक्षिण के सहयोगी दलों के जरिये कांग्रेस ने जो हुंकार भरी है क्या वो उत्तर प्रदेश तक असर करेगी, अब से सबसे बड़ा सवाल है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए वो प्ले ग्राउंड है जहां कांग्रेस यानी राहुल गांधी के सामने एक नहीं कई दिग्गज मुकाबले के लिए मौजूद हैं. प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ तो सब मिलकर लड़ना चाहते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की दावेदारी पर सब आपस में ही लड़ने तो को तैयार हैं. इसीलिए अबतक महागठबंधन हकीकत की जमीन पर उतर नहीं पाया है. एक अकेले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास दो-दो संभावित सहयोगी हैं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उप चुनावों में महागठबंधन अपनी ताकत का अहसास भी मोदी को करा चुका है और बीजेपी को धूल भी चटा चुका है. लेकिन इन दोनों ही दलों के शीर्ष नेता खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में सबसे आगे माने जाते हैं. मुलायम सिंह यादव तो एक बार प्रधानमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब तक पहुंच कर चूक गए थे. मायावती भी सियासत और तजुर्बे में राहुल गांधी से कहीं आगे हैं. यानी मायावती की दावेदारी भी कहीं से कमज़ोर नहीं है. यही वो पेंच है जो राहुल गांधी को परेशान कर रहा है और महागठबंधन को साकार करने में रोड़ा बन रहा है. पश्चिम बंगाल में टीएमसी सुप्रीमो और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी एक सशक्त दावेदार हैं, हालांकि दीदी का ज्यादा ध्यान अपने सूबे पर ही है. यानी अब मोटेतौर पर राहुल गांधी के सामने सिर्फ दो ही ऐसे कद्दावर नेता बचे हैं, जिन्हें राहुल को अपनी अगुवाई मंजूर करवानी है. इस काम में यूपीए चेयरपर्सन और उनकी मां सोनिया गांधी यकीनन मजबूत भूमिका निभाएंगी. अभी भी वो ये जिम्मेदारी निभा रही हैं.
राहुल की राह में यूपी और मायावती का पेंच
राहुल गांधी के सामने मुश्किल ये है कि दिल्ली पहुंचने का रास्ता बगैर यूपी निकलना मुश्किल होता है. यूपी में कांग्रेस की हालत खस्ता है. एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने कुछ कोशिश की थी, लेकिन नतीजा सिफर रहा. इसके बाद राहुल-अखिलेश के बीच भी कुछ दूरियां आईं और बीएसपी सुप्रीमो मायावती को भी कांग्रेस के साथ नए सिरे से डील करने का मौका मिल गया है. जिसका सबूत है राजस्थान और मध्य प्रदेश में एसपी और बीएसपी का कांग्रेस से अलग चुनाव लड़ना. हालांकि रिश्तों की डगर बिल्कुल ही ना कट जाए इसलिए नतीजों के बाद दोनों ही पार्टियों ने कांग्रेस को समर्थन का एलान कर दिया. राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर मुलायम सिंह को तो जैसे-तैसे समझाया-बुझाया जा सकता है, लेकिन मायावती के बारे में सियासी पंडितों का भी मानना है कि उऩ्हें समझाना मुश्किल हो सकता है. मायावती ने हमेशा अपनी शर्तों पर ही राजनीति की और अपने तय नियम-कायदों से ही राजनीति की अपनी ऊंचाइयों को छुआ. अनुसूचित जाति-जनजाति के जिस वोटबैंक पर मायावती अपने आधिपत्य का दावा करती हैं, वो भी कांग्रेस से काफी पहले छिटक चुका है. इस वोटबैंक पर बीजेपी सेंध लगाने की तैयारी में है. लेकिन कांग्रेस का दावा यूपी में कमज़ोर है इसलिए पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट ना जीत पाने के बावजूद बीएसपी कांग्रेस के साथ तगड़ी सौदेबाज़ी के मूड में है. यूपी में कांग्रेस से सामने दोहरी मुश्किल है. राहुल के पीएम पद की दावेदारी से भी पहले वहां अपने वजूद को बढ़ाना जरूरी है. महागठबंधन में कांग्रेस-एसपी-बीएसपी ही बड़े खिलाड़ी होंगे, लेकिन तस्वीर में कांग्रेस का फिट होना अभी संदिग्ध है, एसपी और बीएसपी में समझौता पहले ही हो चुका है. ऐसे में कांग्रेस तस्वीर में कैसे फिट होगी और फिर अपना कद कैसे बढ़ाएगी ये बड़ा पेंच है. अगर कांग्रेस यूपी के पेंच को सुलझा पाई तो फिर महागठबंधन के सर्वप्रिय नेता बन जाएंगे राहुल गांधी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया तो फिर उत्तर प्रदेश ही कांग्रेस के लिए वाटरलू साबित हो सकता है.
Source : JAYANT AWWASTHI