पूरे देश में गांधी जी की 147वीं जयंती मनाई जा रही है। उनकी विचारधारा की दूसरे देशों में काफी सराहना हुई लेकिन अफ़सोस अहिंसा के पुजारी की अपने देश में ही निर्मम हत्या कर दी गई।
तब से लेकर अब तक एक सवाल बार बार उठता रहा है की क्या आज भी उनकी विचारधारा उतनी ही प्रासांगिक है?
इसके जवाब को लेकर लोगों में मतभेद हो सकता है लेकिन एक सत्य ये भी है की उनकी विचारधारा ने करोड़ों लोगों के मन को छुआ है।
गांधी जी को केंद्र में रखकर भारत में काफी फिल्में बनायी गई और कामयाब भी रही। 2006 में गांधी जी की अहिंसा विचारधारा को लेकर एक फिल्म बनायी गयी, नाम था लगे रहो मुन्ना भाई। फिल्म काफी कामयाब रही, लेकिन इस फिल्म की कामयाबी ने एक बात ज़रूर साबित कर दी की आज भी गांधी की विचारधारा लोकप्रिय है।
अब सवाल ये उठता है की जब गांधी की विचारधारा पर आधारित फिल्मे हिट हो रही हैं तो फिर निजी जीवन में उनकी विचारधारा की प्रासंगिकता पर सवाल क्यों?
अहिंसा के बल पर लोगो के मन को जीतने की शक्ति का विचार तो अच्छा है लेकिन राह इतनी भी आसान नहीं। लोगो के मन को जीतने के लिए सबसे पहले अपने मन पर संयम करना बहुत ज़रूरी है, लेकिन ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल है।
लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में जब नायक अपमान का घूंट पीकर संघर्ष करता है तो हम एक दर्शक के तौर पर नायक की सराहना करते हैं, लेकिन निजी जीवन में क्या ऐसे अपमान का घूंट पीकर रह पाना संभव होगा? मुश्किल सवाल है लेकिन यक़ीन जानिये इस सवाल के जवाब में ही विचारधारा की प्रासंगिकता का जवाब भी छुपा है।
गांधी जी हमेशा से ख़ुद में बदलाव लाने की बात करते थे और किसी भी अच्छी चीज़ की शुरुआत का प्रयोग भी ख़ुद पर ही आज़माने को कहते थे। कुछ उसी राह पर चलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी लोगो से स्वच्छता अभियान को लेकर ख़ुद में बदलाव लाने की बात कही, लेकिन क्या वाक़ई हम ख़ुद को बदल पाये?
कमी विचारधारा की नहीं है हमारी है और शायद यही वजह है की इसे भी एक फिल्म के तौर पर लोगों ने देखा, तालियां बजायी और हॉल से ये कहते हुए बाहर निकल आये की डायरेक्टर ने बहुत शानदार मूवी बनाई थी।
Source : दीपक सिंह स्वरोचि