मुलायम और इससे पहले उनके भाई शिवपाल की स्पीच सुनने के बाद एक बात बिल्कुल साफ है – सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं इनकी जोड़ी, और तोड़े से भी न टूटे ये शिव-मुलायम की जोड़ी। मुलायम अपने भाई से प्यार करते हैं। मुलायम अपनी पार्टी से प्यार करते हैं। मुलायम अपने पुराने दोस्त अमर सिंह को प्यार करते हैं। मुलायम इन नेताओं के खिलाफ कुछ नहीं सुन सकते। इन सबने पार्टी के लिये खून पसीना बहाया है। अखिलेश ने तो केवल ताज पहना है। मुंह में चांदी के चम्मच के साथ।
लेकिन चांदी के चम्मच की कीमत तो अखिलेश को अदा करनी थी, चूंकि ताज उसके पास था। और कीमत भी अव्वल तो ये कि वो ये नहीं कहेगा कि ताज उसका है। उसको ये कहना होगा ताज परिवार का है। दूसरा, सरकार वो नहीं चलायेगा। सरकार परिवार के मुखिया यानि नेता जी माननीय मुलायम सिंह जी चलायेंगे। तीसरा ये कि अखिलेश मुख्यमंत्री तो होगा मगर कैबिनेट नेता जी तय करेंगे। कैबिनेट में कौन रहे, कौन जाये सब वो ही तय करेंगे। वो भी बेटे नहीं अपने भाई से सलाह-मश्विरा करके। मुलायम सिंह पीछे से राज-काज चलायेंगे और अखिलेश उस सरकार का मुखौटा होंगे।
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तो क्या अखिलेश यादव को ये सारी शर्तें मंज़ूर थीं। जवाब हां और नहीं दोनो ही। हां इसलिये चूंकि सत्ता का नशा बहुत कुछ मुश्किलों को कमतर आंकने का हौसला देता है। और न इसलिये कि उस समय न कहने की क्षमता रखते हुये भी अखिलेश को न कहने की हिम्मत न हो। और शायद ये भी कि ज़िम्मेदारी बड़ी थी और उन्हें भी खुद को प्रूव करना था।
इसलिये बड़ों के खून-पसीने के बोझ के तले अखिलेश पिसते रहे। ढोते रहे कैबिनेट में उन लोगों को जिन्हें वे सख्त नापसंद करते थे पर जो उनके पिता की पहली पसंद थे। ढोते रहे आज़म खां के तेवर। और प्रजापति की उनके पिता के प्रति भक्ति। अमर सिंह जैसे ‘बाहरी’ आते रहे और पसर गये पार्टी में। अखिलेश अपने पिता का इमोश्नल अत्याचार सहते रहे।
पिता और चाचा पहुंचे हुये राजनीतिज्ञ थे। अखिलेश तो बस उनके अंडर स्टडी थे। मुलायम के दंगल के दांव-पेंच उनको समझने में वक्त लगता। वो तो नेता जी को वो ट्रंप कार्ड थे जो अपनी ढलती उम्र में उन्होंने युवाओं को पार्टी की ओर खींचने के लिये इस्तेमाल किया। सत्ता पर काबिज़ होने का रास्ता अगर बेटे के ज़रिये जाता है तो कैसा हर्ज।
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पांच साल पहले 2012 के विधान सभा चुनावों में अखिलेश ने पूरे प्रदेश में कैंपेनिंग की। पिता का स्वास्थ उन दिनों ठीक नहीं था। इसलिये अखिलेश पर ज़िम्मेदारी दोगुनी थी। इसलिये उन्होने यूथ से कनेक्ट किया। युवाओं को अपने साथ लिया। युवाओं ने भी अड़तीस साल के इस युवा नेता और नेताजी के पुत्र को हाथों-हाथ लिया। युवाओं के हाथ में लैपटॉप थमाने का वादा जो किया था अखिलेश ने। नई सोच, नई उमंग। और साथ में दो जीबी का रैम। अखिलेश का लैपटॉप बिका। खूब बिका। पार्टी को अभूतपूर्वव जीत हासिल हुई। फिर नेता जी ने बेटे टीपू को ईनाम दिया। टीपू सुल्तान बन गया।
लेकिन, फ्लैशबैक में जो दृश्य उभर कर आते हैं वो उतने सुखदायी नहीं, उतने हरे-भरे नहीं जितने कि दिखे या दिखाये गये। अगर टीपू सुल्तान बनाये गये और पिता ने प्रदेश की बागडोर बेटे के हाथ में सौंप दी तो फिर भाई शिवपाल का क्या होगा। परिवार का क्या होगा। परिवार है तो समाजवाद है। और भाई तो पुराना साथी है। वो भी अपना ही खून है। इसलिए मुलायम ने पार्टी ही उनके सुपुर्द कर दी। कैबिनेट में महत्वपूर्ण ओहदे दिये सो अलग।
शिवपाल और मुलायम ने पार्टी पर वर्चस्व बनाये रखा। और अखिलेश की सरकार में दखल भी देते रहे। खाली समय में मुलायम प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब बुनते रहे मगर 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उनके ये ख्वाब चकनाचूर कर दिये। जिस प्रदेश को बड़े तौर पर जीता था वहीं लोकसभा चुनावों में सीटों के लाले पड़ गये। गनीमत यह रही कि परिवार की सीटें बची रहीं। और नेता जी की बची-खुची साथ भी।
हारकर मुलायम लखनऊ वापस लौटे। न मुख्यमंत्री थे न प्रधानमंत्री बन पाये। खालीपन सालता रहा। सहारे के लिये भाई का कंधा काम आया। बेटा तो अपने जोश में था। यूपी जैसे पिछड़े राज्य में विकास का नया मॉडल बनाने का फॉर्मूला ईजाद करने की कूवत रखता था। मगर वो कहते हैं न मैन प्रपोसेज़ बट गॉड डिस्पोसेज़। वो कहावत अखिलेश पर कुछ यूं लागू हुई कि अखिलेश प्रपोसेज़ बट मुलायम डिस्पोसेज़। पिता भगवान तो नहीं थे मगर अखिलेश ने पब्लिक प्लेटफॉर्म से इससे कम रूत्बा भी नहीं दिया। आज भी जब मीटिंग में भाषण दिया तो खिन्न होकर इतना ज़रूर बोले कि नेता जी कहते तो ज़रूर इस्तीफा दे देते।
चुनाव नज़दीक आ रहे थे। और अखिलेश का युवा रक्त फिर उबाल पर था। अभिमन्यु के लिये चक्रव्यूह कौरवों नें रचा था। यहां अखिलेश पिता के चक्रव्यूह में ही फंस के रह गये थे। चक्रव्यूह के सभी द्वार बंद थे। अभिमन्यू मां के पेट में नहीं सीख पाया था मगर अखिलेश ने पिछले पांच सालों में चक्रव्यूह तोड़ने के गुर सीख लिये थे। इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिये उन्हे दूसरी व्यूह रचना करनी थी। अपनों के बोझ ढोने का ढोंग छोड़ना था। अपनों से रिश्ता तोड़ना था। अपना कुरूक्षेत्र खुद तय करना था। अपने भाषण में आज अखिलेश भावुक तो हुए मगर बेबाकी से उन्होंने अपनी बात रखी। अपने समर्थकों को उन्होंने दिल खोलकर बता दिया कि वो किन परिस्थितियों में थे और क्यों उन्हें ये परिस्थितियां मंज़ूर नहीं।
वक्त ने अगर अखिलेश को सिंहासन पर बैठाया तो अब ये वक्त ही तय करेगा कि अखिलेश अपने राजनीतिक कुरूक्षेत्र में सफल होंगे या उनकी परिणीति भी अभिमन्यु सरीखी होगी। या अर्जुन सरीखी जब उन्होने भीष्म पितामह को शर-शैय्या पर लिटा दिया था। इस कुरूक्षेत्र में अगर वो सफल रहे तो यूपी की राजनीति में पिछले तीन दशकों में कांग्रेस के लुप्त होने की खबर से भी बड़ी हेडलाइन होगी।
लोहिया की समाजवादी धारा ने अपना स्लोगन प्रगतिशीलता के इर्द-गिर्द गढ़ा। उत्तर प्रदेश तक पहुंचते-पहुंचते समाजवाद और प्रगतिशीलता दोनों पर बट्टा लगा। अखिलेश प्रगतिशील तो बने रहना चाहते हैं, मगर साथ में पिता मार्का समाजवाद नहीं ढोना चाहते।
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