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MSY जिन समीकरणों ने राजनीतिक ऊंचाइयां बख्शी, वही बनीं पतन का कारण

मुलायम सिंह का पिछले छह दशकों में फर्श से अर्श तक का राजनीतिक सफर हिंदी पट्टी की राजनीति में नाटकीय उतार-चढ़ाव दर्शाता है. साथ ही यह भी बताता है कि जो राजनीतिक समीकरण राजनीति में सफलता की सीढ़ी दर सीढ़ियां बख्शते हैं, वही पतन का कारण भी बन सकते हैं.

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Nihar Saxena
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भारतीय राजनीति में मुलायम सिंह यादव को भुलाया नहीं जा सकेगा. ( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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मुलायम सिंह यादव की 55 साल की राजनीतिक यात्रा निज सफलता और विफलता की बेहतरीन दास्तां है. साथ ही यह भारत खासकर गंगा पट्टी और उसके मैदानों की राजनीति के विकास की एक बड़ी कहानी भी है. यदि मुलायम सिंह (Mulayam Singh Yadav) की शुरुआती जड़े भारतीय राजनीति में दशकों तक आधार स्तंभ रही समाजवादी लोकाचार को प्रतिबिंबित करती रही, तो उनका उत्थान सामाजिक न्याय के नाम पर जाति-धर्म के संगम में निहित रहा, जिसने भारतीय समाज को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. यही नहीं, यदि मुलायम सिंह यादव की सफलता एक जमीनी राजनेता की मजबूती की कहानी है, जो सामाजिक ताने-बाने और परस्पर संबंधों में उलझी रही, तो उनकी विफलता राज्य की सत्ता को महज संसाधनों, संरक्षण और शक्ति को इसी सामाजिक ताने-बाने और संबंधों में बांटने में निहित रही. और तो और यदि मुलायम सिंह यादव की राजनीति ने 1990 और 2000 के दौर में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के उत्थान को थामे रखा, तो इसी राजनीति और उसके निहितार्थों को समझने में विफल रहने के फलस्वरूप 2014 से बीजेपी (BJP) उत्तर प्रदेश के दम पर केंद्र में काबिज हुई बल्कि उत्तरोत्तर नए रास्तों पर आगे बढ़ रही है.

मुलायम सिंह यादव की जड़ें
पूर्व पहलवान मुलायम सिंह यादव का भारतीय राजनीति में शुरुआती सफर समाजवाद के दायरे में हुआ. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो 1960 और 1970 में कांग्रेस के विरोध में पिछड़ी जातियों और किसान राजनीति को ताकत देने का अनूठा मेल-मिलाप का रास्ता मुलायम सिंह ने अपनाया. कांग्रेस का ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित वोट बैंक बिखर रहा था, तो खेती किसानी के बल पर आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत  पिछड़े समुदायों और अन्य सामाजिक संगठन अपनी ताकत दिखाने को आतुर थे. इसी ऐतिहासिक मोड़ पर मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति में दांव-पेंच चलने शुरू किए. 1967 के चुनाव में मुलायम सिंह ने उत्तर भारत की राजनीति में कांग्रेस के आधिपत्य को तोड़ा. वह पहली बार उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए थे. इस उपलब्धि से पहले के सालों में उनकी प्रेरणा राम मनोहर लोहिया हुआ करते थे, जिनका स्थान बाद के सालों में चौधरी चरण सिंह ने ले लिया. कांग्रेस को लेकर आमजन में एक प्रकार का संदेह पनप रहा था, जो आपातकाल के साथ सिद्ध हो गया. इस दौर में समाजवादी राजनीति और पिछड़े वर्ग के दावों के कुछ सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता दिखा मुलायम सिंह ने जीवन भर की विरासत सहेज ली. कालांतर में रक्षा मंत्री के तौर पर मुलायम ने उग्र राष्ट्रवादी प्रतिबद्धता दिखाई और कम्युनिस्ट चीन को सबसे बड़ा खतरा बता एक और अप्रत्याशित विरासत अपने नाम की. समाजवादी होते हुए भी उन्होंने वामपंथी और कट्टर वामपंथियों के प्रिय माओ को लेकर कोई लगाव प्रदर्शित नहीं किया. 

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शिखर की ओर का सफर
अपने राजनीतिक करियर के अगले चरण में मुलायम सिंह ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जनता दल और भारतीय लोकदल की संयुक्त कमान संभाल बेहतरीन राजनीतिक कौशल का प्रदर्शन किया. जनता दल के संदर्भ में यह कौशल औपचारिक और संस्थागत तो भारतीय लोकदल के मामले में कहीं अनौपचारिक और राजनीतिक रहा, जब उन्होंने अजित सिंह को अपने पिता की विरासत का दावा करने की दौड़ में पीछे छोड़ दिया. 1980 और 1990 के दशक में जब मंडल और कमंडल टकराए, तो मुलायम सिंह यादव ने मुस्लिमों-पिछड़ी जातियों और फिर मुस्लिम-यादव के बीच चुनावी गठबंधन को मजबूत किया. यह वह दौर था जब अल्पसंख्यकों के बीच कांग्रेस की विश्वसनीयता रसातल की ओर थी और हिंदुत्व एक शक्तिशाली राजनीतिक ताकत के रूप में तेजी से उभर रहा था. हिंदुत्व का उभार हिंदी पट्टी में मुस्लिमों को मजबूत राजनीतिक विकल्प की तलाश को मजबूर कर रहा था. राम मंदिर आंदोलन के उभार से उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव इस खाई को पाटने सफल रहे. ठीक लालू प्रसाद यादव ने बिहार में यही किया था. यह उत्तर प्रदेश की राजनीतिक खासकर सत्ता संरचना में नाटकीय बदलाव का वाहक बना. गौरतलब है कि मुलायम सिंह यादव 1989 में कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी की जगह उत्तर प्रदेश के सीएम बने थे और तब से अब तक कांग्रेस की यूपी की सत्ता में वापसी नहीं हो सकी है. 

अवसरवादिता या राजनीतिक कौशल
सामाजिक स्तर पर भी देखें तो इसी दौर में नए समूहों ने सत्ता में बदलाव के रूप में खुद को मुखर करना शुरू कर दिया था. इसमें कतई कोई आश्चर्य नहीं कि इस दौर में अपने उतार-चढ़ाव भरे चुनावी सफर के बावजूद मुलायम सिंह यादव राजनीतिक ताकत के शीर्ष पर रहे. केंद्र में रक्षा मंत्री तो उत्तर प्रदेश में कई बार मुख्यमंत्री. उनकी भारतीय धर्मनिरपेक्षता के रक्षक की सार्वजनिक छवि को भारतीय जनता पार्टी से सार्वजनिक दूरी ने और मजबूती दी. भले ही आलोचक इसे अवसरवादिता करार देते हों, लेकिन सत्ता में रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने लचीलेपन का परिचय दे कॉर्पोरेट पूंजी को भी गले लगाने से परहेज नहीं किया. उन्होंने अपनी राजनीतिक चतुराई का इन दशकों में इस्तेमाल कर लखनऊ और दिल्ली दोनों जगह गठबंधन की राजनीति के नए आयाम गढ़े. इस फेर में मुलायम सिंह की अप्रत्याशित टेढ़ी चालें चौंकाती भी रहीं. इसी दौर में वह मंझे हुए रणनीतिज्ञ बन कर उभरे. एक ऐसा समाजवादी जिसे उद्योग और ग्लैमर से परहेज नहीं था, तो एक यादव नेता जिसे मुस्लिम अपना भाई मानते थे. यही नहीं, मुलायम सिंह यादव एक ऐसे राजनीतिक संचालक थे, जिनके लिए सभी राष्ट्रीय पार्टियों के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे. गुपचुप तरीके से भाजपा के साथ, खुलेआम कांग्रेस के साथ, जबकि घर में वामपंथी और तीसरे मोर्चे के साथ. सरकारें आई और गईं, लेकिन वर्तमान में भाजपा समेत किसी भी राजनीतिक दल ने निजी स्तर पर मुलायम सिंह को निशाना नहीं बनाया.

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मुलायम सिंह यादव संहिता
मुलायम सिंह यादव की सफलता को समझने के लिए उनकी व्यक्तिगत शैली के तत्व को समझना होगा, जिस पर उनकी गहन राजनीति की तुलना में कभी बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. यही वह विशेषता रही, जिसने उनके उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया, तो उनकी और उनकी पार्टी की कमियों को किनारे रखा,जो बाद में विफलता का बड़ा कारण बनी. वैचारिक-राजनीतिक आख्यानों और राजनीतिक जुगत से परे मुलायम सिंह यादव की लंबी उम्र और सफलता का संभवतः एक सरल रहस्य था. यह उनके सार्वजनिक भाषण पर निर्भर नहीं था, क्योंकि उन्हें समझना बहुत मुश्किल हो सकता था. यह उनके कुलीन नेटवर्क पर टिका हुआ नहीं था, क्योंकि वे उनके लिए एक उत्पाद थे सफलता के कारण नहीं. मुलायम सिंह यादव की सबसे बड़ी ताकत उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से वाकिफ होना था. वे उत्तर प्रदेश के हर जिले की राजनीति और उसके सामाजिक समीकरणों को गहराई से समझते थे. इससे भी बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि वह उत्तर प्रदेश के एक-एक कस्बे, पंचायत के लोगों को सीधे उनके नाम से जानते थे. संभवतः इस एक गुण ने मुलायम सिंह यादव को भारत के राजनीतिक इतिहास में समाजवादी पार्टी को सबसे सफल क्षेत्रीय दलों में से एक बनाने में सक्षम बनाया. राजनीति के शीर्ष पर सभी दांव-पेंच चलते हुए मुलायम सिंह यादव यह कभी नहीं भूले कि लोकतांत्रिक सत्ता का रास्ता जमीनी स्तर की राजनीतिक ताकत पर ही टिका हुआ है. 

मुलायम सिंह यादव की सीमाएं
हालांकि यह भी हद दर्ज तक सही है कि मुलायम सिंह यादव की यही विशेषताएं उनकी नाकामी का कारण भी बनीं. एक नेता जिसने विभिन्न सामाजिक वर्गों को लामबंद कर लोकतंत्र को गहरा करने में मदद की, उसे दूसरों की कीमत पर केवल उन सामाजिक वर्गों की पूर्ति के रूप में देखा जाने लगा. राजनीतिक गलियारों में कहा जाता है कि उनके लिए कानून का राज कोई मायने नहीं रखता था. कानून खुद मायने नहीं रखता था. शासन का व्यवसाय और सार्वभौमिक आधार पर सार्वजनिक वस्तुओं की सुपुर्दगी बमुश्किल ही मायने रखती थी. अगर उनके लिए कुछ मायने रखता था तो वह चुनावी गठबंधन को बनाए रखना. हालांकि इसके दो व्यावहारिक परिणाम भी कालांतर में सामने आए. उत्तर प्रदेश के गैर यादवों में एक चुटकुला बहुत प्रचलित है कि नेताजी तब सत्ता में होते हैं तो गांव का हर यादव खुद को मुख्यमंत्री मानता था. यादवों का दावा था कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ने से वह अपनी सही जगह पर पहुंचे हैं. सूबे में सत्ता के अन्य लाभी भी यादवों को मिलते थे. मसलन ठेके, टेंडर, नियुक्तियां, तबादले. यादवों को मलाईदार पुलिस पोस्टिंग मिलती थीं और नौकरशाही में उनका दबदबा होता था. 

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OBC में अंदरूनी टकराव
इन सभी ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अंदरूनी विभाजन को और तेज कर दिया. वजह साफ थी कि पिछड़ा सशक्तिकरण के नाम पर एक जाति द्वारा प्राप्त आय से अधिक लाभ के प्रति नाराजगी बढ़ रही थी. यादव आधिपत्य की भावना ने अन्य सामाजिक समूहों को भी अलग-थलग कर दिया. उच्च जातियां, जो पहले से ही सत्ता खोने से परेशान थीं नाराज हो गईं. दलित भी अक्सर यादव जमींदारों को वर्ग संबंधों के मामले में अपने मुख्य शोषकों में से एक के रूप में देखते थे. ये सभी वापसी के लिए एक राजनीतिक अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे. कभी यूपी में सभी पिछड़े समुदायों के नेता मुलायम सिंह यादव अपना आधार सिकुड़ते देख नहीं सके क्योंकि वे हिंदू जाति के दायरे में यादवों के नेता बन चुके थे. विकास केंद्रित पैमाने पर उनकी नाकामी और कथित भ्रष्टाचार ने मुलायम सिंह यादव की अपील को धूमिल करना शुरू कर दिया. रही सही कसर परिवार के भीतर राजनीतिक संरक्षण के वितरण ने पूरी कर दी. भाई-भतीजावाद और एक समाजवादी से सामाजिक न्याय को एक जाति से एक पारिवारिक पार्टी में परिवर्तित कर दिया. जाहिर है भाजपा इन कमियों का ठीक-ठीक फायदा उठाने में सक्षम थी, क्योंकि 2014 में यूपी में इसका विस्तार हुआ था.

मुस्लिमों पर दरियादिली
मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक दृष्टिकोण का दूसरा परिणाम यह निकला कि उनके कार्यकाल के दौरान मुस्लिम अधिकारों पर अत्यधिक जोर दिया जाता था. 
पुलिस प्रशासन में एक धारणा आम थी कि जब मुस्लिम पक्ष के शामिल वाले विवादों की बात आए, विशेष रूप से जिनके राजनीतिक संबंध हैं, तो नियम पुस्तिका का पालन करने से बेहतर है रियायत देना. हिंदू-मुस्लिम विवादों के दौरान माना जाता था कि कि सपा मुसलमानों के पक्ष में है. एक विचार था कि मुसलमानों को विकास का लाभ मिल रहा है, जो अन्य लोगों को यहां तक ​​कि उसी सामाजिक आर्थिक वर्ग के लोगों को भी नहीं मिल पा रहा. नतीजा यह निकला कि उद्योगपतियों से लेकर जमींदारों तक, नौकरशाहों से लेकर पत्रकारों तक और उच्च जातियों और अधिक हाशिए वाले सामाजिक समूहों के बीच  एसपी एक मुस्लिम पार्टी की अवधारणा भी तेजी से घर करती गई. इसमें कितनी सच्चाई थी और कितनी लगाई-बुझाई किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया. सपा ने इसका कभी प्रतिवाद भी नहीं किया, क्योंकि यह मुलायम सिंह यादव के लिए अनुरूल था. दो दशकों से इसी मुस्लिम आधार ने वोट के लिए प्रतिस्पर्धा को दूर रखने में मदद की थी. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी ने इसी छवि को भुनाते हुए राजनीतिक खेल की चालें चलना शुरू की. उसने इसे मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करार दे मुस्लिमों के वोट की जरूरत नहीं का नारा तक दे डाला. यहां तक कि सत्ता में मुस्लिम नुमाइदंगी बंद कर दी, तो मुस्लिम के प्रति दरियादिली वाली छवि मुलायम सिंह यादव औऱ समाजवादी पार्टी के लिए नासूर बन गई. मुस्लिमों और भाजपा के लिए आशा और आक्रोश की राजनीति के साथ एक नए नेता, एक नई शब्दावली और नए सामाजिक अंकगणित को जोड़ने का मार्ग खोल दिया. उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी की सफलता मुलायम सिंह यादव की विफलता का प्रत्यक्ष परिणाम है.

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मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत
जिस तरह रणनीतिकार अक्सर अपनी प्रतिभा को रणनीतिक सफलता में बदलने में नाकाम रहते हैं. उसी तरह मुलायम सिंह यादव भी उस तरह की राजनीतिक सफलता हासिल करने में विफल रहे. कम्युनिस्टों द्वारा केंद्र में सरकार बनाने से इनकार करने के बाद मुलायम सिंह 1996 में प्रधान मंत्री के करीब आ गए थे, लेकिन अंततः नहीं बन सके. उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल का कार्यकाल एक बार भी पूरा नहीं किया. हालांकि उन्होंने अपने बेटे अखिलेश के साथ 2012 में पहली बार अपनी पार्टी को एकमुश्त बहुमत हासिल करने में मदद की. और तो और अपने राजनीतिक जीवन और जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्होंने अपने भाई और बेटे के बीच पारिवारिक झगड़ा देखा. उन्होंने देखा कि जिस पार्टी का उन्होंने निर्माण किया था वह राज्य के लगातार दो चुनाव (2017 और 2022) और दो राष्ट्रीय चुनाव (2014 और 2019) हार गई. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह सब मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक सोच की विफलता और मंडल प्रतिमान से आगे जाने में असमर्थता रही. हालांकि यह विफलता इस सच्चाई को कतई नहीं नकार सकती है कि उत्तर प्रदेश के मध्य-पश्चिम जिले में हाशिए की जाति की पृष्ठभूमि से आया एक विशेषाधिकार युवा अपने जीवन के 55 वर्ष भारतीय लोकतंत्र को समर्पित कर गया.

मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत
इसके बावजूद यह सच्चाई भी अटल रहेगी कि मुलायम सिंह यादव किंगमेकर रहे. एक-दो बार नहीं कई बार और कई अवसरों पर. अगर प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बने, तो उसके पीछे मुलायम सिंह यादव थे, जिन्होंने ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस नेतृत्व पर भारी दबाव बनाया. यदि वामपंथियों की मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी के बाद परमाणु समझौता संसद से पारित हुआ, तो यह उनके समर्थन से संभव हुआ था. 1990 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बन सकी, तो उसके पीछे मुलायम सिंह यादव थे. मुलायम सिंह यादव की रजामंदी होने की वजह से ही एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल प्रधानमंत्री बन सके. यही नहीं. 1980 के उत्तरार्ध में मुलायम सिंह यादव वीपी सिंह,देवीलाल, चंद्रशेखर सरकार का सक्रिय और मजबूत हिस्सा रहे. यूपी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उन्हें अपना नेता देखता और मानता था. ऐसे में मुलायम सिंह यादव का अंत एक युग के अंत का प्रतिनिधित्व करता है. आप  उनकी प्रशंसा करें या उनकी आलोचना, लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय लोकतंत्र की कहानी में मुलायम सिंह यादव का एक महत्वपूर्ण स्थान रहेगा, जिसे आसानी से भरा नहीं जा सकता. 

HIGHLIGHTS

  • मुलायम सिंह यादव ने जिस मुस्लिम-यादव समीकरण को जन्म दिया वही बना नासूर
  • मुस्लिमों की पार्टी की छवि ने हिंदू वोट बैंक को एक कर बीजेपी की ओर धकेल दिया
  • यादवों को तरजीह ने पिछड़ी जाति के अन्य को नाराज किया, जिन्हें भी बीजेपी ने लपका

Source : Nihar Ranjan Saxena

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