सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा.अल्लामा इकबाल खुद तो पाकिस्तान के हो गए.लेकिन सारी दुनिया के फ़लक पर भारत की शान में जो लिख गए वो हर्फ़-ब-हर्फ़ आज भी सच है. यकीन मानिए, इसकी सच्चाई पर उनको भी पूरा यकीन है, जो गाहे-बगाहे भारत के हालात पर फिक्र जताते हैं.डर जताते हैं.गुस्सा दिखाते हैं. नसीरुद्दीन शाह भी उनमें से एक हैं. नसीरुद्दीन शाह को कुछ बातों से गुस्सा आता है..लेकिन इसका मतलब क्या निकाला जाए या इसका मतलब निकाला क्या गया ? मतलब की इस दुनिया में नसीरुद्दीन शाह की बातों पर बड़ी ही बेर्शमी से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी अपना मतलब निकालते हुए सामने आ गए.
इमरान खान ने जिस बात को अपने अनर्गल प्रलाप का आधार बनाया, जब वो आधार ही बेमानी है तो भला उनकी बातों के मायने कहां से हो सकते हैं. लेकिन नसीर साहब के गुस्से और इमरान की बेर्शमी ने दो बातें सामने ला दी हैं. पहली ये कि हिंदुस्तान के बारे में किसी खालिस हिंदुस्तानी की बातों को भी आजकल सियासी चश्मे से देखा जाने लगा है. और दूसरी ये कि क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान अब सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान के तमाम नेताओं जैसे एक नेता ही बन गए हैं, जिनसे बतौर प्रधानमंत्री किसी समझदारी या बेहतरी की उम्मीद रखना उम्मीद को भी शर्मिंदा करने जैसा है. इन दो बातों का नतीजा ये है कि असल में भारत के खिलाफ जहर उगलने का मौका इमरान खान को नसीरुद्दीन शाह ने नहीं, उन पर होने वाली सियासत ने दिया है.
नसीरुद्दीन शाह को गुस्सा क्यों आता है?
नसीर साहब एक आम हिंदुस्तानी हैं, लेकिन वो एक कलाकार भी हैं, इसलिए संवेदनशील भी हैं. कलाकार की भी कई कैटेगिरी होती हैं. नसीरुद्दीन शाह एक मंझे हुए संजीदा कलाकार हैं, लिहाज़ा उनकी संवेदना कहीं ज्यादा गहरी हैं. स्पर्श ऐसी बेमिसाल फिल्म एक संजीदा कलाकार ही कर सकता है. अगर हम नसीर साहब की उस अदाकारी को पसंद करते हैं तो उनके गुस्से को भी समझना होगा, जो उन्होंने अपने ही मुल्क़ के बारे में व्यक्त किया है. नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि एक पुलिस इंस्पेक्टर की मौत से ज्यादा एक गाय की मौत को अहमियत दी जा रही है और ऐसे माहौल में मुझे अपनी औलादों के बारे में सोचकर फिक्र होती है.
अब उनके इस गुस्से को समझने के लिए कुछ छोटी-मोटी शर्तें हैं, उन शर्तों को ध्यान में नहीं रखा तो बात बिगड़ जाएगी. शर्त ये कि हमें ध्यान रखना होगा कि नसीरुद्दीन शाह हर किसी की तरह एक भारतीय हैं. शर्त ये कि उनका शब्द डर नहीं गुस्सा है. शर्त ये कि हम जिस आज़ाद मुल्क में रहते हैं वहां अपनी बात कहने का हक सबको है. शर्त ये कि हालात पर गुस्सा तो दूर, हमें कई बार खुद पर भी गुस्सा आ जाता है यानी गुस्सा होना कोई हैरानी की बात नहीं. इन शर्तों के साथ अब उन हालात को समझिए, जिनपर नसीर साहब को गुस्सा आता है. इसे समझने के लिए अलग-अलग घटनाओं पर तबसरा करने की जरूरत नहीं. एक-एक घर से ही मुल्क बनता है.
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तो हम अपने या किसी भी एक ऐसे घर को देख लें जो दादा-दादी, 3-4 बेटों, बेटियों-बहुओं और पोते-पोतियों वाला भरा-पूरा आबाद घर है, बिल्कुल हमारे मुल्क जैसा. ऐसे घर में हर किसी की सोच बिल्कुल एक-दूसरे से मिलती हो ये कोई ज़रूरी नहीं, लेकिन दादा-दादी की एक परंपरा, एक दस्तूर, एक नियम-कायदा पूरे परिवार को एक सूत्र में पिरो कर रखता है, बिल्कुल हमारे मुल्क की तरह. पूरे मोहल्ले में हर किसी को मालूम है कि दादा जी ने साफ बोल रखा है-घर का कोई भी सदस्य कुछ गड़बड़ करे तो उसकी शिकायत उनसे की जाए, वो उसे दुरुस्त करेंगे. सज़ा की जरूरत हुई तो सज़ा भी देंगे.
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अक्सर ऐसे मौके आते भी हैं और दादा जी अपने वचन, अपनी तबीयत के मुताबिक एक्शन में भी दिखते हैं. अब मोहल्ले में एक शख्स को गुस्सा इस बात पर आता है कि ठीक है, आप शिकायत करने पर चीज़े दुरुस्त कर देते हो..लेकिन कुछ ऐसा क्यों नहीं करते कि एक ही गलती बार-बार ना दोहराई जाए? आप ऐसा क्यों नहीं करते कि गलतियां कम हों? जैसे-जैसे आपका परिवार बढ़ रहा है, गलतियां क्यों बढ़ती जा रही हैं? सिर्फ सज़ा देना ही चीज़ों को दुरुस्त करने का इकलौता तरीका नहीं है. कमज़ोर पड़ते अनुशासन को मज़बूत करने और सामंजस्य की सीख जरूरी है. आखिर परिवार में भी तो दादा जी ऐसा ही करते हैं. नसीर साहब का गुस्सा कुछ ऐसा ही है. ना उन्हें दादा जी के परिवार से कोई ऐतराज़ है, ना उन्हें खुद उस मोहल्ले में रहने से कोई ऐतराज़ है. उनका तो इतना कहना है कि मुल्क के स्तर पर एक अनुशासन, एक चरित्र खत्म होता दिख रहा है उसे दादा जी के स्तर पर देश के नियंताओं को संभालना चाहिए.
नसीर साहब का गुस्सा ना ही देशद्रोह है, ना ही बग़ावत
नसीर साहब का गुस्सा ना ही देशद्रोह है, ना ही बग़ावत. लेकिन उनके गुस्से को समझने के लिए शर्तों को नज़रअंदाज़ किया गया. जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया गया इसीलिए बात बिगड़ती नज़र आ रही है. नसीर साहब ने बात उठाई है तो कुछ लोग उनके नाम के साथ उनका मज़हब भी जोड़ लेते हैं. मज़हब जोड़ते ही बात और बिगड़ गई. इतनी बिगड़ी कि भारत के प्रति नफरत से ही पैदा हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी इसे मौका समझकर भारत के खिलाफ ज़हर उगलने लगते हैं. अब आप सोचिए कि इमरान ख़ान को ये मौका किसने दिया? नसीरुद्दीन शाह ने या उस पर सियासत करने वालों ने ? मेरी नज़र में नसीरुद्दीन शाह ने तो कतई नहीं, क्योंकि उन्होंने तो अपने परिवार में अपना गुस्सा जताया था, जिसे सुनकर समझने की जरूरत थी. लेकिन उसे समझने की जगह सियासत का तड़का लगने लगा. ये तड़का नसीर साहब ने तो नहीं लगाया. तो फिर इमरान को जहर उगलने के मौका उन्हीं लोगों ने दिया, जिन्होंने हिंदुस्तान के संजीदा कलाकार की बातों को उसके नाम के साथ जुड़े मज़हब तक पहुंचा दिया. खुद नसीरुद्दीन शाह ने ही इमरान खान को करारा जवाब दिया है. नसीरुद्दीन शाह ने इमरान खान को बता दिया कि आप अपने गिरेबां में झांकों, अपना मुल्क़ संभालों. हमारी अपनी बातें हैं, हमारा अपना मुल्क है, जो सारे जहां से अच्छा है. हम अपने मसले खुद सुलझा सकते हैं.
अपने गिरेबां में झाके पाकिस्तान और इमरान
नसीरुद्दीन शाह के बयान के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने लाहौर में एक सभा के दौरान कहा कि भारत में मुस्लिमों को बराबरी का नहीं समझा जाता, इसी वजह से नसीरुद्दीन शाह अपने बच्चों के लिए डर महसूस कर रहे हैं. ये बात कायदे-आज़म जिन्ना पहले ही समझ गए थे इसीलिए उन्होंने मुस्लिमों के लिए अलग पाकिस्तान बनाया. हालांकि इमरान खान को पहला जवाब तो खुद हिंदुस्तानी नसीरुद्दीन शाह की दे चुके हैं. आंकड़ों में भी पाकिस्तान की हकीकत भी दुनिया के सामने है. पाकिस्तान में पिछले 20 साल से जनगणना नहीं हुई है. यानी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों से दुर्गति के आंकड़े जो दुनिया के सामने हैं वो 20 साल पुराने हैं. उन आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तान मे हिंदुओं की आबादी महज़ 1.6 फीसदी है, जबकि भारत में मुस्लिमों की आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक करीब 15 फीसदी है.
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इसमें आजादी के बाद से करीब साढ़े 4 फीसदी का इज़ाफा हुआ है. इमरान खान के लिए सिर्फ इतना जान लेना ही काफी है कि हिंदुस्तान में हर समुदाय किस आज़ादी के साथ रहता है. इसके उलट पाकिस्तान में सालाना करीब 5 हज़ार हिंदू देश छोड़ रहे हैं.. वहां हिंदुओं के पूजा स्थल और प्राचीन मंदिर तेज़ी से ग़ायब हो रहे हैं.. इसकी बड़ी वजह धर्म के आधार पर पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे हमलों को माना जाता है. पाकिस्तान में हर महीने औसतन 25 हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उनका जबरन धर्म परिवर्तन किया जाता है.. हिंदू ही नहीं पाकिस्तान में तो मुस्लिम भी बेहाल हैं. ईशनिंदा के आरोप में आसिया बीबी को 8 साल सलाखों में काटने पड़े, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद भी आसिया बीबी के खिलाफ कट्टरपंथी सड़क पर आ गए.
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लोगों के गुस्से को देखते हुए आसिया बीबी पुलिस हिरासत में ही हैँ. उनकी जान पर ख़तरे को देखते हुए पुलिस उनके ठिकाने का भी खुलासा नहीं कर रही,.पाकिस्तान में धार्मिक आजादी पर संयुक्त राष्ट्र की 2017 की रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान में एक साल के अंदर 50 लोगों को ईशनिंदा के इल्जाम में गिरफ्तार किया गया. उनमें से 17 को फांसी की सजा सुनाई गई.मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पिछले 36 सालों में पाकिस्तान में 400 से ज्यादा लोग ईशनिंदा के आरोप में या तो जेल भेज दिए गए या फिर फांसी पर लटका दिए गए. ये पाकिस्तान का इतिहास नहीं फितरत है, जहां अब प्रधानमंत्री बनकर इमरान खान भी उसी सुर में अलाप रहे हैं.
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मेरा मानना है कि मशहूर क्रिकेटर इमरान खान ने सियासत की ओर कदम उतनी हसरत से नहीं बढ़ाए, जितनी चालाकी से पाकिस्तान की फौज ने इमरान खान के लिए सियासत का रेड कार्पेट बिछाया है. पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और पाकिस्तानी फौज के रिश्ते जगज़ाहिर हैं. नवाज काफी हद तक भारत के साथ रिश्ते सुधारने को भी बेताब नज़र आते थे, जिसे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और परवान चढ़ाया था. ऐसे में हिंदुस्तान की असल दुश्मन पाकिस्तान फौज ने नवाज़ के मुकाबले के लिए इमरान खान का कद बड़ा करना शुरू कर दिया..इतना बड़ा कि इमरान आखिरकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी बन गए. क्रिकेटर इमरान के फैन्स हिंदुस्तान में भी उतने ही हुआ करते थे, जितने पाकिस्तान में. लेकिन प्रधानमंत्री इमरान तो पाकिस्तानी फौज की कठपुतली ही नज़र आते हैं. काश इमरान एक खिलाड़ी की भावना को अपने अंदर ज़िंदा रख पाते. बेबुनिया नफरत की जगह इमरान को पहले अपना घर सुधारना चाहिए, फिर पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते कायम कर दुनिया की नज़रों में अपना मुल्क़ सुधारना चाहिए.
Source : News Nation Bureau