चुनावी राजनीति में लगातार पिछड़ रही कांग्रेस चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की सौदेबाजी कर रही थी. दोनों के बीच सौदा नहीं पटा और दोनों अपनी-अपनी राह पर चल पड़े. प्रशांत किशोर भाड़े के चुनावी रणनीतिकार है. इसके लिए वह बकायदा वह फीस वसूल करते हैं. जिस भी किसी दल को उनकी औऱ उनके पार्टी का सहयोग चाहिए, वह उससे लिखित में कांट्रैक्ट करते हैं और वह और उनकी टीम राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर उक्त पार्टी की मदद करते हैं. विगत वर्षों में वह भाजपा से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक को अपनी सेवा दे चुके हैं.
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने प्रशांत किशोर की राजनीतिक सेवा के सहारे से पार्टी को पुनर्जीवित करने की आशा लगा रखी थी, इससे ज्यादा आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है. राजनीतिक हल्कों में यह चर्चा है कि जिस पार्टी में प्रशांत किशोर से बड़े रणनीतिकार मौजूद हैं, उस पार्टी को प्रशांत किशोर जैसे बाहर के लोगों की सेवा लेने की क्या जरूरत पड़ गयी. इससे साफ जाहिर होती है कि पार्टी हाईकमान यानि गांधी-नेहरू परिवार के वर्तमान सदस्य पार्टी की दशा-दिशा तय करने के नीति-रणनीति में संगठन के दूसरे सदस्यों की भागीदारी नहीं चाहते हैं. वे किसी भी हालत में पार्टी पर अपना संपूर्ण नियंत्रण रखना चाहते है. जबकि पार्टी के अंदर लंबे समय से एक धड़ा पार्टी के मौजूदा राजनीतिक प्रदर्शन से खुश नहीं है. यह धड़ा जी-23 के नाम से जाना जाता है. इस गुट में कपिल सिब्बल से लेकर गुलाम नबी आजाद तक शामिल है. कांग्रेस ने आज तक इन नेताओं की बात को सही तरीके से सुनने की जरूरत ही नहीं समझी.
बीते दो सालों में, प्रशांत किशोर और कांग्रेस पार्टी के पहले परिवार के बीच बातचीत होती है. फिर कई बार बातचीत होती है. यह कुछ महीनों में टूट जाती है तो फिर नए सिरे से शुरू होती है. इस हफ्ते भी संभावनाओं से भरा सौदा अंतिम चरण तक जा चुका था, लेकिन यह आखिर में नहीं हो सका. और इसकी जानकारी भी खुद किशोर ने दी. उन्होंने कहा कि मुझे दिए गए प्रस्ताव को अस्वीकार करता हूं. सवाल उठता है कि कांग्रेस को बाहर से तो वह सेवा देने को तैयार थे लेकिन कांग्रेस पार्टी में कोई पद वह नहीं लेना चाहते थे. प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को छोड़कर टीआरएस से सौदा पटा लिया.
कांग्रेस पार्टी ने पूरे प्रकरण को दबाने की कोशिश की है. इसके प्रवक्ताओं का दावा है कि पार्टी विभिन्न चुनावी रणनीतिकारों से जुड़ी हुई है, और किशोर उनमें से केवल एक थे. वे यह भी कहते हैं कि मोदी युग में पार्टी को पीड़ित सभी परेशानियों के लिए एक व्यक्ति कभी भी रामबाण नहीं हो सकता था. हालांकि, किशोर को उन कई रणनीतिकारों में से एक कहना गलत है. किशोर को लेकर यह भी उनका यह भी कहना कि वह पार्टी की किस्मत को बदल सकते हैं, उसको लेकर कभी विश्वास नहीं करते थे, यह एकदम गलत है. अभी तक किसी भी रणनीतिकार की पहुंच सीधे परिवार तक नहीं हो पाई थी. दूसरा किसी भी रणनीतिकार ने पार्टी के सामने कोई योजना पेश नहीं की और तीसरी अहम बात कि सुझावों की समीक्षा के लिए एक विशेष समिति का गठन किया गया. कई बातें मीडिया तक पहुंची और यह स्पष्ट रूप से संकेत देता है कि किशोर को ऑनबोर्ड करना कांग्रेस पार्टी के लिए एक बड़ी बात थी.
किशोर ने जब गुजरात में नरेंद्र मोदी के लिए काम किया था, तब वे एक रणनीतिकार के रूप में शुरुआत कर रहे थे. 2015 में भी उन्होंने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बीच तालमेल बिठाया था और 2021 में टीएमसी के लिए राजनीतिक मशीनरी को नियंत्रित किया. परिणाम सबके सामने रहा, ऐसे में किशोर की मांगें सामान्य से अलग नहीं थीं. अब सवाल है कि जब केवल दो सालों के भीतर एक बड़े संगठन को तैयार करना हो और वह भी उस संगठन को जो बहुत बुरे दौर से गुजर रहा हो. जिस पार्टी की साख समाप्त हो रही हो. अगर पार्टी के पास कोई योजना नहीं थी तो फिर पार्टी ने ऐसे रणनीतिकार को क्यों चुनना चाहा था. यदि कांग्रेस किसी भी बड़े बदलाव से खुद को बचाए रखना चाहती है तो वह केवल एक रणनीतिकार से अलग पहचान बनाने के लिए अपने रास्ते से क्यों हट जाएगी.
प्रशांत किशोर किसी भी राजनीतिक दल के लिए चमत्कार कर सकते हैं और चुनावी रणनीतिकार के रूप में वे कितने सफल रहे हैं, यह बहस का विषय रहा है. स्वयं किशोर सहित कई लोगों ने तर्क दिया है कि उनकी भूमिका से केवल मार्जिन पर फर्क पड़ता है. वे ऐसे किसी चुनावी जनादेश को नहीं बदल पाते हैं जो एकतरफा या पूर्व निर्धारित होते हैं. हालांकि अधिकांश नेताओं ने उनकी सेवाओं का लाभ उठाया है. जब प्रशांत किशोर को उन्होंने नियुक्त किया तब उनकी राजनीतिक ताकत भले ही कितनी रही हो, वे जानते थे कि अब सुधार आएगा और परिणाम इसे साबित करेगा. इस मामले में केवल कांग्रेस पार्टी ही अपवाद साबित हुई है.
Source : News Nation Bureau