रायबरेली तो गांधी की है लेकिन सई नदी किसकी है. रायबरेली में साबरमति और गोमती रिवर फ्रंट का जवाब दे सकती थी कांग्रेस की रॉयल फैमिली. गंगा पर सरकार को घेरने से बेहतर सई नदी को जिंदा करना सही जवाब होगा. रायबरेली 2 साल बाद ही नेहरू परिवार से अपने रिश्ते के सौ साल का उत्सव मनाने वाली है. ऐसा शहर जिसका रिश्ता इस देश के लोकतांत्रिक राजपरिवार से अटूट चल रहा है. शहर के किसी भी चौराहे पर किसी भी आदमी से बात करो तो यही पता चलेगा कि इस शहर की एक एक ईंट पर नेहरू-गांधी परिवार का नाम लिखा है. इस शहर में कुछ नहीं था और अब इस शहर में जो भी दिख रहा है वो इसी परिवार का है. अपना भी इस शहर से रिश्ता अब 15 साल का हो ही गया. चुनाव हुए तो इस शहर के दर पर आना ही है. और शहर में हमारे जानने वाले भी मानते है कि मीडिया को गांधी फैमिली खींचती है इसीलिए हम भी चले आते है.
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हालांकि हमको गांधी फैमिली नहीं गांधी फैमिली के एक वक्त के दोस्त फिर दुश्मन और फिर दोस्त अखिलेश सिंह ने खींचा था. लेकिन रिश्ता तो बन ही गया. सारस में रूकना, शहर में घूमना और बंद-खुलती फैक्ट्रियों के बीच से गुजरना और उन सब पर खबर कर वापसी. बीच में शैलेन्द्र सिंह से मुलाकात और रिश्ता बनते जाना. यही रायबरेली रहा. इस बार स्टोरी करने से पहले शैलेन्द्र से कहा कि जरा सुबह उठकर शहर देखना है. मुझे जब भी किसी शहर को देखने का मौका मिला तो पहले नदी मेरी प्राथमिकता में होती है. अपने गांव की नदी को तिल-तिल मरते देखने का साक्षी और अपराध बोध लिए शहर दर शहर उछलती और मुस्कुराती नदी देखने की कामना लिए घूमता हूं.
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इस शहर की नदी के बारे में जानने की इच्छा हुई तो पता किया. बराबर से बहते हुए नाले का नाम नदी बता दिया. मैंने एक बार फिर साथ चलते हुए नौजवान से पूछा कि मैं नदी जानना चाह रहा हूं कि वो कहां से बहती है तो फिर से नौजवान ने दोहरा दिया कि ये ही तो सई नहीं है. और फिर मुझे ख्याल आया कि नेहरू ने किस आदमी को क्या कहा था. शुक्ला जी के यहां इंदिरा जी हमेशा नमस्कार कर निकलती थी, फिरोज गांधी जी ने किस चौराहे पर किस आदमी के कंधों पर हाथ रखकर देश की चिंता व्यक्त की थी और राजीव जी ने मुस्कुरा कर कैसे उस आदमी के लिए हाथ से चिट्ठी लिखकर दी और अब इस इलाके में नई रोशनी बन कर उभरी प्रियंका गांधी कैसे लोगों से जुड़ जाती है ये हजारों लाखों शब्दों में पढ़ा जा चुका होगा. लेकिन रायबरेली में सई बहती थी और अब नाले में बदल गई इस पर कोई लाईन कही नहीं देखी.
अब मैंने अपने पत्रकार साथियों से ही पूछना शुरू किया तो उनके पास भी इसको लेकर कोई जानकारी नहीं थी सब को गूगल देखना था और मुझे भी नेट पर ही जाना था. यानि जिनकी सारी जिंदगी शहर की तरक्की और जानकारी देने में गुजर गई उनको भी इस नदी का उतना ही पता था जितना कि हजारों किलोमीटर दूर बैठे आदमी को नेट पर जाकर पता लगना था.
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खैर मुझे नदी के साथ शहर के ऐसे रिश्ते की तलाश थी जिसकी याद में ये अभी भी जिंदा हो तो पता चला कि किसान आंदोलन के वक्त की गोलीबारी में मारे गए किसानों की याद का स्मारक नदी के किनारे पर दूसरी तरफ बना हुआ है. वहां गया तो लगा कि नदी को मरता हुआ देखना इस पीढ़ी की नियति ही बन गई है. सई नदी जो एक दो दस किलोमीटर नहीं बल्कि 700 किलोमीटर का सफर तय करती है. सदियों से एक शहर को संवारती और जिंदगी से नवाजती नदी अब नाले में बदल गई है. शहर के सीनियर पत्रकारों से इसके हालात पर बात की तो उनके पहले शब्द थे कि आपकी वजह से हम यहां आएं है इतने दिन बाद.
सई नदी तो उनके जेहन में भी नहीं है. एक बुजुर्गवार ने बताया कि इस नदी में 80 के दशक में मछलियां तैरती थीं और ऊपर से उछलती हुई दिखती थीं. इतना साफ नदीं को एक नाले में बदलते हुए देखना किसी दर्द से कम नहीं रहा होगा. लेकिन दर्द उसी को होता है जो साथ होता है या नजर के सामने होता है. नजर से दूर खामोशी से दम तोड़ती नदियां कभी वोट का हिस्सा नहीं बन पाती तो उनतक किसी की नजर नहीं जाती. सई नदी जो जौनपुर में जाकर गोमती में विलीन होती है अब नालों के पानी और शहर की गंदगी को समेटती हुई कुछ दूर जाकर ही दम तोड़ देती है.
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पानी पीने के लिए और नहाने केलिए किसी को नदी की जरूरत नहीं है. नदी के किनारे रहने वालों के वोट की कीमत नहीं है. इस शहर में अभी बिल्डर्स को नदी के किनारे के फ्लैट के दाम में बढ़ोत्तरी का कोई सपना नहीं है तो इस नदी पर किसी की नजर नहीं है. गंगा को लेकर सरकार को कोस रही कांग्रेस को यहां ये नदी अपने एजेंडे में नहीं दिखती क्योंकि यहां कौसने के लिए कुछ नहीं है. साल दर साल तो यहां गांधी फैमिली ही है.
यहां के सिक्कों पर, ईटों पर चौराहों पर सब पर गांधी परिवार की मुहर है तो ऐसे में किसी को कोसा नहीं जा सकता तो इस चर्चा से कोसों दूर तो किया ही जा सकता है. ऐसा नहीं हो सकता कि साबरमति रिवर फ्रंट के बाद गंगा को लेकर हल्ला मचा रही बीजेपी और गोमती रिवर फ्रंट के सहारे नदी प्रेमी अखिलेश का जवाब सोनिया या प्रियंका सई नदीं को फ्रंट न दे सके तो कोई बात नहीं लेकिन उसको बचा सके तो ये भी गांधी फैमिली की एक ओर कहानी बन जाएं.
"गौरेया, पंछी सब गुम गए,
पेड़ों के पत्ते भी सूख गए
सूखी नदी का किनारा देख,
बच्चे पूछते नानी से,
क्या वो एक नदी थी."
आरती लोहानी
Source : Dhirendra Pundir