लोकतंत्र में असल जज होती है जनता. जनता का फैसला ही अंतिम फैसला होता है, ये जनता बड़े-बड़े सत्ताधीशों को फलक से जमीन पर ला देती है तो फर्श से अर्श पर भी पहुंचा देती है. लोकतंत्र में जनता जांच-परख तो करती है, लेकिन उसके फैसले का ज्यादा दारोमदार परसेप्शन यानी विचारधारा पर ही चलता है. तीन राज्यों के चुनावी नतीजों में इसी परसेप्शन के आधार पर जनता ने फैसला दिया और दो राज्यों से तो बीजेपी की 15 साल पुरानी सत्ता उखाड़ फेंकी, जबकि इन दोनों सूबों के मुख्यमंत्रियों को लेकर कोई खास असंतोष जनता के बीच नहीं दिख रहा था. ये बीजेपी, खीसतौर पर प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक सबक है लेकिन बात जब कानून की आती है तो जज ही असल जज होता है. उसका फैसला तथ्यों पर आधारित होता है, परसेप्शन पर नहीं.
राफेल के मामले में विपक्षी दलों और प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों से नाइत्तेफाक़ी रखने वाले कई लोगों के परसेप्शन को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राफेल डील को लेकर दायर तमाम पीआईएल खारिज कर दीं. ये कांग्रेस, खासतौर से राहुल गांधी के लिए एक सबक है। खास बात ये भी है कि जनता और जज दोनों के फैसले आगे-पीछे ही आए, जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दोनों को एक ही वक्त में एक बड़ा सबक दे दिया है.
राफेल पर हिट विकेट हुए राहुल गांधी
राफेल डील को राहुल गांधी ने पीएम मोदी के खिलाफ अपने सबसे बड़ा एजेंडा बनाया हुआ है. भ्रष्टाचार के जिन आरोपों से घिरी यूपीए की 10 साल की सरकार को मोदी के जोशीले भाषणों ने 2014 में उखाड़ फेंका था, उस पर पलटवार के लिए राहुल गांधी राफेल का मुद्दा जोरशोर से उठाया. राफेल में भ्रष्टाचार-दलाली जैसे संगीन आरोपों को जड़ते हुए राहुल गांधी की कोशिश, प्रधानमंत्री मोदी को उसी कठघरे में खड़ा करने की है, जिसमें पिछली यूपीए सरकार खड़ी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने राहुल गांधी को हिट विकेट ही कर दिया है.
राफेल डील की प्रक्रिया, राफेल विमान की कीमत, डील में भ्रष्टाचार, ऑफसेट पार्टनर चुनने में मनमानी से जुड़ी तमाम पीआईएल सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी. ये क्लीनचिट पीएम मोदी की इमेज को और क्लीन करने वाली है. एक तरह से सुप्रीम कोर्ट का फैसला राहुल गांधी के आरोपों को खारिज करता दिख रहा है लेकिन सियासत, परसेप्शन और कानून में बुनियादी फर्क होता है.
राहुल गांधी हिट विकेट नज़र जरूर आ रहे हैं, लेकिन अगर उन्होंने इस बात से सबक ले लिया तो अगली पारी पूरी दमदारी से खेल सकते हैं. दरअसल ये बात कांग्रेस भी जानती है कि अदालत जांच एजेंसी नहीं होती. अदालत में पीआईएल दाखिल हुईं तो तथ्यों की जानकारी कोर्ट ने उन्हीं से मांगी, जिन पर आरोप था, तथ्य माकूल पेश किए गए और फैसला भी माकूल आ गया.
कांग्रेस मानती है कि इस मामले में ज़रूरत जांच की है। इसीलिए कोई भी पीआईएल सीधे कांग्रेस ने दायर भी नहीं की थी, बल्कि वो तो लगातार संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से जांच की मांग कर रही है. राफेल के फैसले को कैसे लिया गया, किसने क्या राय दी, फाइलों में क्या नोटिंग हुई, ऑफसेट पार्टनर कैसे चुना गया. इन सबकी पड़ताल अगर जेपीसी करेगी तो जो फाइलें संविधान और कानून के दायरे में सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पाईं वो सब जेपीसी के सामने आ सकती हैं.
हो सकता है कि डील वहां भी बेदाग़ निकले, लेकिन वहां कांग्रेस को अपने आरोपों के साबित होने की संभावना भी दिखती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इस बात को दोहराया भी. यानी आरोपों के समर्थन में कांग्रेस को जो अनचाहे दोस्त पीआईएल दायर करने की शक्ल में मिले वो असल में कांग्रेस से लिए नुकसानदायक ही नज़र आ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब बीजेपी राशन-पानी लेकर सीधे राहुल गांधी पर आक्रामक है.
वीपी सिंह की तर्ज पर राहुल को बनानी होगी रणनीति
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहुल के लिए एक और सबक है। राफेल डील एक तकनीकी मुद्दा है. अगर इसके सहारे राहुल गांधी को आम जनता का परसेप्शन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के लिए बदलना है तो उन्हें इसे आम आदमी का मुद्दा बनाना चाहिए, आम समझ में लाना चाहिए. ठीक उसी तर्ज पर जिस तरह पूर्व पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स के मसले को आम आदमी के ज़ेहन में उतार दिया था. जबकि बोफोर्स कांड में आजतक कुछ भी साबित नहीं हो सका लेकिन वीपी सिंह ने राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था.
इस मामले में कांग्रेस से एक चूक और हुई. कांग्रेस और उसकी सरपरस्ती में चलने वाले अखबार नवजीवन और नेशनल हेरल्ड तक ने राफेल की तुलना बोफोर्स से की यानी कांग्रेस ने खुद ही कबूल कर लिया कि बोफोर्स तोप मामले में घोटाला हुआ था. खैर ये अब बीती बातें हो चुकी हैं लेकिन राहुल के लिए सबक ताज़ा है.
संदेश साफ है कि राहुल गांधी को मज़दूर-किसानों से सीधे जुड़ना होगा। उनकी समझ के मुताबिक काम करते दिखना होगा। वरना राज्यों में अपने कुछ क्षत्रपों के जरिये राहुल एंटी-इन्कमबेंसी का फायदा तो उठा सकते हैं, लेकिन देश के नेता और प्रधानमंत्री के तौर पर खुद को स्वीकार्य नहीं बना सकते. जनता से संवाद में तकनीकी बातों, छोटे-छोटे संवाद और अक्सर अंग्रेजी में संवाद उन्हें असली भारत और भारतवासी से दूर बनाए हुए है.
चुनाव नतीजों से मोदी के लिए सबक
राफेल ने बीजेपी और खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी को बड़ी राहत दी है। जिस तरह राहुल गांधी एकसूत्री एजेंडा बनाकर पीएम को भष्ट साबित करने में तुले थे उस अभियान को झटका लगा है, लेकिन तीन बड़े राज्यों में हार ने पीएम मोदी को भी संदेश दे दिया है. संदेश ये कि लोकतंत्र में जनता के मूड को लेकर ना ही आश्वस्त हुआ जा सकता है, ना ही सिर्फ बातों और वायदों से बात बनती है.
किसान, रोज़गार जैसे मूलभूत मुद्दों पर दावों से कहीं ज्यादा जमीन पर काम नज़र आना ज़रूरी है. योजनाएं व्यवहारिक और तुरंत एक्शन में आने वाली होनी चाहिए. किसानों की आय दो गुनी करने की बात सुनने में ज़रूर अच्छी लगती है, लेकिन जहां किसानों की आय का कोई पैमाना ही नहीं, वहां उसे दोगुनी करने का तरीका क्या होगा ये गणित के सूत्र सरीखा साफ नहीं हो सकता.
रोज़गार के मुद्दे पर तो फिलहाल कोई बड़ा काम अब अगले 4 महीनों में केंद्र सरकार कर नहीं सकती, लेकिन किसानों के मुद्दे पर खबर है कि केंद्र सरकार 26 करोड़ किसानों को लुभाने की योजना पर काम कर रही है. मध्यम वर्ग के लिए भी मोदी सरकार को नए सिरे से सोचना होगा, क्योंकि नोटबंदी से लेकर तमाम नीतियों ने मध्यम वर्ग की बचत पर सीधी चोट की है.
लोकतंत्र में चेक और बैलेंस का रहना बहुत ज़रूरी है. अच्छी बात है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए ये चेक और बैलेंस एक ही वक्त में सामने आया. ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी पहले से ज्यादा सजग होकर सोचेगी और अगर कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का विकल्प होने का दम भरती है तो वो पहले से ज्यादा व्यापक और इनोवेटिव सोच के साथ आगे आएगी.
(लेख में लिखी गई बात लेखक की निजी राय है.)
Source : jayyant awwasthi