पढ़ें धीरेंद्र पुंढीर का ब्लॉग : बिना कागज का राष्ट्र...

लोग खुलेआम सूचनाऐं देने का विरोध कर रहे हों. कितने लोग काम की तलाश में इधर से उधर गए हैं. वो कब घर आते हैं, उनके बच्चे कहां पढ़ते हैं कौन से स्कूल में पढ़ते हैं, क्या फीस है, कितने पास और कितनी दूर स्कूल हैं.

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yogesh bhadauriya
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Dhirendra Pundir

Dhirendra Pundir( Photo Credit : New State)

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एक राष्ट्र को ऐसे संकट से जूझना है जो पूरे राष्ट्र को एक साथ नष्ट कर सकता है. लेकिन ये लड़ाई कैसे हो सकती है जब सरकार के पास आंकड़ें झूठे हो, कागजों में ज्यादातर फर्जी आंकड़ों से भरे गए हों. लोग खुलेआम सूचनाऐं देने का विरोध कर रहे हों. कितने लोग काम की तलाश में इधर से उधर गए हैं. वो कब घर आते हैं, उनके बच्चे कहां पढ़ते हैं कौन से स्कूल में पढ़ते हैं, क्या फीस है, कितने पास और कितनी दूर स्कूल हैं. गांव से शहर तक आएं हैं तो वापस कब-कब जाते हैं. कितनी बड़ी संख्या में किस गांव से निकल कर किस शहर में रहते हैं. किस साधन का इस्तेमाल करते हैं. किस बैंक में एकाउंट है. बैंक कौन सा पता है. अगर घर से निकल कर जाते हैं तो फिर कहां से अकाउंट मेंटैन किया जा सकता है.

पैसा कहां से निकालते हैं. इस तरह के हजारों सवालों ने इस वक्त जवाब दिया है कि किसी सरकार के पास देश के लिए आंकड़ों का क्या महत्व होता है. लाखों की भीड़ जब सड़कों पर निकल आई तब किसी के पास ये संख्या नहीं थी कि आखिर ये भीड़ कहां से निकली और कहां जाएंगी और जहां जाएंगी तो वहां खाने-पीने और ठहरने के लिए क्या इंतजाम होंगे. ये मजदूर कब से यहां रह रहे थे और क्या फसल की कटाई के वक्त अपने गांव लौटते थे या इस बार लौट रहे है.

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आधार कार्ड या जनधन अकाउंट न खुलता तो ये पैसा कैसे पहुंचता (हो सकता है पैसे कितने है इस पर आप विवाद कर सकते है लेकिन जिस को मिल रहा है वो जानता है कि अंग्रेजी में बोलने भर से उसकी मदद नहीं करते ये मानवाधिकारवादी). इस वक्त पूरे देश में सबसे बड़ी समस्या अगर कोई है तो वो वाकई गरीब और मजदूर वर्ग की है. लेकिन ये वर्ग कहां और कितना है.

गांव में कितनी बड़ी संख्या में लोगों के पास जमीनें हैं और कितने लोग सदियों से उन जमीनों पर सहायक धंधों से अपनी जिंदगी चला रहे हैं. गांव से शहरों में आने वाले लाखों-करोड़ों लोगों के अगर आंकड़े सही से सरकार के पास होते तो वहां तक अगर सुविधा नहीं पहुंचती तो इस सरकार की खाट खड़ी कर देनी चाहिए थी. लेकिन किसी के पास इतने आकंड़े नहीं हैं. लगभग 73 साल बाद इस सरकार ने लगभग 8-10 करोड़ लोगों को बैंकिग सर्विस से जोड़ा, उज्जवला योजना से गैस पहुंचाई. (मैं सरकार की तारीफ नहीं उसका काम बता रहा हूं जो इस संकट में कुछ भी मदद कर पा रहा है).

लेकिन अंग्रेजी में पत्रकारिता कर अमेरिका के वेतन हासिल करने के लिए और उच्च सुविधाओं से घिरे हुए घरों से निकले हुए लोगों ने सरकार इनकी गोपनियता उड़ा देगी इस आधार पर आंकड़ों को आने ही नहीं दिया. आप किसी भी कोशिश से अपने देश के विरोध का माहौल तैयार किया. मुझे समझ में नहीं आता कि विदेशी भाषा के सहारे देशी आदमी को तैयार कर रहे इन लोगों की गोपनियता और आम आदमी की रोटी तक पहुंच में क्या रिश्ता है. एक क्लब जो तीसरे दर्जे के दिमागों से भरा रहता है उसमें गरीबों के लिए चाहत उतनी ही बढ़ती है जितनी वहां अंग्रेजी दारू की महक बढ़ती है. ऐसे लोगों ने इस वक्त उन लोगों का जीवन वाकई दांव पर लगा दिया जो इस वक्त किसी भी सरकारी कागज में नहीं है.

एक खास समुदाय की ओर से आवाज उठाने वालों को किसी भी बात से कोई मतलब नहीं है उनको मालूम है कि राजनीति तब ही तक है जब तक वो इनको उकसा सकते हैं. दुनिया के अलग अलग देशों में खत्म हो चुकी परंपराओं को भी यहां जारी रखना है नहीं तो अभिव्यक्ति खत्म होगी. यहां तक बाहर जाकर तमाम नियमों का पालन करने वाले यहां नियम के खिलाफ खड़े हो इसका इंतजाम ये कुछ खास लोग करते हैं. मैं अभी उनकी चिंताएं देख रहा हूं वो अंग्रेजी में दुखी है कि गरीबों को खाना नहीं मिल रहा है. इस के बारे में आपको सिर्फ करना ये है कि कोरोना को लेकर उनके ट्वीट आप शुरू से देखना शुरु कीजिए. (वैसे आप किसी भी समस्या पर उनके ट्वीट देख लीजिए तो ऐसा ही होगा) आपको लगेगा कि इस वक्त में इस सरकार का विरोध सबसे जरूरी है. बात सिर्फ किसी आदमी की नहीं है चाहे वो सरकार में हो या विरोध में. दरअसल ये देश में एक बड़ी लॉबी है जिसका रिश्ता भाषाई तौर पर सिर्फ तीन परसेंट लोगों से है. लेकिन रोजी उसको 93 फीसदी लोगों के दम पर कमानी है.

ऐसे में उसने आसान शिकार बनाया खास लोगों को. जो लोग सोचते है कि कि ये मानवाधिकारवादी है तो इस वक्त देखऩा चाहिए कि अगर किसी भी सरकार के पास सही से डाटा उपलब्ध हो तो कितना आसान हो लोगों तक पहुंचना. हो सकता है आप ये भी लिखने लगे कि जितनों के डाटा है उनके पास तो पहुंचे नहीं. ये कुतर्कों का सिलसिला है क्योंकि आज भी अगर आम आदमी तक पैसा पहुंचा है तो उन्ही जनधन के एकाउंट के सहारे जो इसी सरकार ने लोगों से कागज लेकर खुलवाये थे. उज्जवला के सलेंडर मिले थे तो इसके लिए भी लिखापढ़ी हुई थी तभी सही लाभार्थियों को मिल पाएं थे.
लिहाजा इस वक्त जब राष्ट्र एक ऐसी महामारी से जूझ रहा है जो दुनिया भर में लाखों लोगों को लील चुकी है तो सरकार के पास अगर सही डाटा होता तो शायद इससे निबटने के लिए योजना बनाना आसान होता.

अब कोई भी यहां ये न समझाएं कि राहुल गांधी ने बताया था और सरकार नहीं चेती. उस वक्त भी कई राज्यों में कांग्रेसी सरकार थी और आज भी तब भी अपनी पार्टी के मुख्यमत्रियों को बुलाकर कोई मीटिंग्स नहीं ली थी और न ही कोई ऐसे निर्देश दिए थे जिनको आज देश फॉलो करता. ये ऐसे ही है जैसे आज हर्ष मंदर टाईप लोग अपने ट्वीट के सहारे कोरोना से गरीबों को बचा रहे है.

Source : Dhirendra Pundir

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