जज साहब फैसला पढ़ रहे थे, और वो दोनों हाथों से अपनी पगड़ी को थामे हुए थे. आखिरकार जब जस्टिस मुरलीधर ने सज्जन कुमार को उम्रकैद की सज़ा सुनाई, तो उनके आंसू रुक नहीं पाए. ये वकील एचएस फुल्का थे, जो पिछले करीब 34 सालों से इंसाफ की बांट जो रहे दंगा पीड़ितों के लिए क़ानूनी लड़ाई ले रहे है. हमेशा संयत रह कर हम मीडिया वालों को सही जानकारी देने वाले एचएस फुल्का साहब आज भावनाओं के ज्वार को रोक नहीं पा रहे थे. आखिर पीड़ितों की पैरवी करने में जब पंजाब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद बाधा बना, तो उन्होंने उसे भी छोड़ दिया ताकि कोर्ट में जिरह का सिलसिला जारी रहे.
कोर्ट रूम में आज जगदीश कौर भी पहुंची थी, वो जगदीश कौर जिनकी आंखों के सामने दंगाइयों ने उनके बेटे, पति और मामा के बेटों को जलाकर मार डाला था. उनके बाकी बच्चे पड़ोसी के यहां थे, इसलिए उनकी जान बच गई. बदहवास जगदीश कौर बाकी बच्चों की जान बचाने के लिए तीन दिन तक बदहवास घूमती रही. 3 नवंबर को घर लौटीं. पति, पुत्र व मामा के बच्चों के अधजले शव यथावत पड़े हुए थे. उन्होंने घर की खिड़कियां-दरवाजे, रजाई, चादर सब कुछ शवों पर रखा और उनका अंतिम संस्कार किया. समझ सकता हूं कि आज के फैसले के मायने क्या है, उनके लिए.
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इन सब के बीच दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में जो कुछ कहा है, उसके मायने बहुत बड़े है. हम सब को ये जानना चाहिए. कोर्ट ने 1984 के दंगों को मानवता के खिलाफ गुनाह करार दिया. कहा, 'मानवता के खिलाफ इस गुनाह' को राजनीतिक आकाओं के इशारे पर , पुलिस/एजेंसियो की शह पर अंजाम दिया गया. अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण हासिल था. वो मुकदमे और सज़ा से बच निकलने में कामयाब होते रहे. ऐसे अपराधियों को सजा दिलाना, सिस्टम के सामने बड़ी चुनौती है.'
दिल्ली हाईकोर्ट ने ये भी कहा कि अपने आप में नरसंहार का कोई पहला और आखिरी मामला नहीं है. इस तरह का क़त्लेआम 1993 में मुंबई में, 2002 में गुजरात, 2008 में कंधमाल और 2013 में मुजफ्फरनगर में भी सामने आया.
Source : Arvind Singh