अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका हिंदी तर्जुमां कुछ इस तरह होता है कि आप जब खुद को सुरंग में फंसा देखते हैं, तो उसके इर्द-गिर्द और गड्ढा नहीं खोदते हैं. कुछ इसी तर्ज पर शुक्रवार-शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) और चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग (XI Jinping) ममल्लापुरम (mamallapuram) में अनौपचारिक बैठक में एक-दूसरे से रूबरू होंगे. 'वुहान स्परिट' (Wuhan Spirit) से आगे यह अनौपचारिक बैठक ममल्लापुरम में खुले दिल से होगी, जिसमें बातचीत का मुद्दा पहले से तय नहीं होगा, बल्कि हर उस विषय पर चर्चा हो सकती है, जो भारत-चीन दोनों के लिए 'कॉमन ग्राउंड' हो. इस अनौपचारिक बैठक का मकसद दि्वपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाते हुए भारत-चीन सीमा पर शांति बनाए रखना है. कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद हो रही इस अनौपचारिक बैठक के भारत-चीन दोनों के लिए ही खास मायने हैं. बदलते वैश्विक समीकरणों और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 'अमेरिका फर्स्ट' नीति के साये में मोदी-शी की बातचीत एशिया प्रशांत क्षेत्र में नई इबारत गढ़ सकती है.
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विश्वास बहाली ही मेन एजेंडा
वुहान बैठक के बाद हो रही ममल्लापुरम बैठक का सबसे पहला मकसद विश्वास बहाली (कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स-सीबीएम) (CBM) बढ़ाना है. खासकर यह देखते हुए कि 1993 और 1995 में कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली को लेकर उठाए गए कदम समय के साथ अब पुराने पड़ चुके हैं. बीते 25 सालों में तकनीक (Technology) के विस्तार ने उस वक्त बनी सहमति को नए सिरे से परिभाषित करने को प्रेरित किया है. हालांकि परस्पर संबंध तभी प्रगाढ़ हो सकेंगे, जब दोनों ही देश वास्तविक नियंत्रण रेखा (Line Of Actual Control) पर शांति बनाए रखते हुए ऐसे बिंदुओं पर एकमत हो सकें, जिनसे दोनों ही के साझा हित जुड़े हों. इतना तय है कि कूटनीतिक स्तर (Diplomacy) पर चीन को भारत झुकाने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में जमीनी मुद्दों पर अपनी-अपनी चिंताओं को जाहिर करने और एक-दूसरे की चिंताओं को समझते हुए भविष्य में कदम उठाने से ही भारत-चीन संबंधों को नई दिशा मिलेगी.
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कश्मीर का काउंटर तिब्बत और हांगकांग
चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग का भारत दौरा कश्मीर (Kashmir) से अनुच्छेद 370 (Article 370) हटाने के बाद हो रहा है. शी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से मुलाकात के दौरान कश्मीर पर समर्थन देने की बात कही थी. ऐसे में भारत के लिए जरूरी है कि वह जम्मु-कश्मीर पर अपना पक्ष स्पष्ट करे. हालांकि इस बात की संभावना ना के बराबर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तरफ से कश्मीर का मसला उठाएंगे. इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि यह हमारा अंदरूनी मसला है. अनुच्छेद 370 आजादी के बाद अस्थायी तौर पर लागू की गई थी. इसे हटाकर भारत सरकार ने एक तरह से जम्मू-कश्मीर को शेष राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने का ही काम किया है. कश्मीर मसला अगर उठता है, तो निश्चित तौर पर इसे शी ही उठाएंगे. तब प्रधानमंत्री मोदी के पास अवसर होगा कि वह इस पर अपना पक्ष खुलकर रख सकें. अगर चीन नहीं मानता है तो भारत को तिब्बत (Tibet) समेत हांगकांग (Hongkong) का मसला उठाना ही होगा. अगर कश्मीर हमारा अंदरूनी मसला है तो चीन हांगकांग और तिब्बत को अपना आंतरिक मसला बताता है.
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पाकिस्तान का वजूद नकारना ही होगा
रहा सवाल पाकिस्तान का, तो जो रवैया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Naredra Modi) ने संयुक्त राष्ट्र में अख्तियार किया था, वही शी के साथ भी लागू करना होगा. यानी पाकिस्तान का उल्लेख नहीं करना. भारत अब वैश्विक मंच पर एक ऐसी शक्ति बन चुका है, जहां पाकिस्तान का होना या ना होना मायने नहीं रखता है. मायने रखता है तो शक्तिशाली पड़ोसी के साथ शांतिपूर्ण संबंध. यही ममल्लापुरम में अनौपचारिक बातचीत का केंद्र होगा. अगर देखा जाए तो 1962 के बाद से भारत-चीन की 3488 किलोमीटर लंबी सीमा पर एक भी गोली नहीं चली है. हालांकि समय-समय पर सीमा पर एक-दूसरे के क्षेत्र में 'अतिक्रमण' की खबरें आती रहती हैं. गौरतलब है डोकलाम (Doklam) जैसे विषम हालातों के अलावा और कोई बड़ा सीमा विवाद बीते कई दशकों में चीन के साथ पेश नहीं आया है. डोकलाम को भी शांतिपूर्ण ढंग से हल किया गया और अगर देखा जाए तो इसके बाद भारत-चीन संबंधों में प्रगाढ़ती ही आई है.
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चीन का अड़ियल रवैया छुड़ाना होगा
हालांकि इतना तय है कि न्यूक्लियर सप्लाई ग्रुप (NSG) में भारत की सदस्यता से लेकर पाकिस्तान में पल रहे आतंकवादियों को संयुक्त राष्ट्र में प्रतिबंधित कराने के रास्ते में चीन अड़चन डालने से बाज नहीं आया और ना ही आएगा. यहां हाफिज सईद जैसी 'उपलब्धि' हासिल करने के लिए भारत को चीन को समझाना ही पड़ेगा कि शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के रूप में वह जिस इस्लामिक कट्टरता से जूझ रहा है, उससे कहीं अधिक गंभीर नहीं तो समकक्ष समस्या है पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद. चीन अगर इसमें कुछ नहीं कर सकता है, तो वह कम से कम पाकिस्तान की पीठ पर रखे अपने हाथ को तो आतंकवाद के मसले पर ही हटा सकता है. यह बात खुले दिले से एक-दूसरे को समझने से ही बनेगी. इस बात से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अच्छे से वाकिफ हैं और संभवतः इस मसले पर लंबे समय से जमी बर्फ को पिघलाने के लिए ही वह विदेश मंत्री एस जयशंकर को अपने साथ ममल्लापुरम ले गए हैं, जिनके पास चीन से 'डील' करने का लंबा कूटनीतिक अनुभव है.
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वैश्विक संस्थाओं के ढांचे में ऐसे आएगा बदलाव
इसके अलावा आरसीईपी (RCEP) यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (Regional Comprehensive Economic Partnership) एक ऐसा मंच है, जो चीन-भारत को कहीं अधिक निकट ला सकता है. यह मंच आसियान के दस सदस्य देशों यानी ब्रुनई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम को एफटीए के छह सदस्य देशों चीन, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच मुक्त व्यापार समझौते की वकालत करता है. आरसीईपी के सदस्य देशों की कुल जनसंख्या 3.4 खरब है, तो समग्र जीटीपी 49.5 ट्रिलियन डॉलर है. यानी विश्व की कुल जीडीपी की 39 फीसदी, जिसमें भी भारत-चीन की संयुक्त अर्थव्यवस्था आधी से अधिक है. यानी व्यापारिक रिश्तों को आगे बढ़ाकर ही भारत-चीन क्षेत्रीय संतुलन को साधते हुए विकसित राष्ट्रों के मुकाबले खड़े हो सकते हैं. भले ही वह जलवायु परिवर्तन (Climate Change) का मसला हो या संयुक्त राष्ट्र (UN) समेत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के पुनर्गठन का. भारत-चीन का संयुक्त प्रभाव ताकत का संतुलन उनकी ओर करने में सफल रहेगा. खासकर डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति के मद्देनजर भारत-चीन की युति विश्व को संतुलन प्रदान करने के साथ ही नई दशा-दिशा दे सकेंगे.
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एक-दूसरे का महत्व समझ आगे बढ़ना होगा
यहां यह नहीं भूलना होगा कि चीन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) समेत क्वांटम कम्युनिकेशंस (Quantum Communications) में महारत रखता है, तो भारत सॉफ्टवेयर ऑउटसोर्सिंग (Software Outsourcing) और आईटी कंसल्टिंग (IT Consulting) में विश्व गुरु है. इसके अलावा चीन से जारी ट्रेड वार (Trade War) में चीन को भारत जैसे तेजी से आगे बढ़ रहे देश की जरूरत है. दोनों एक-दूसरे के हितों की भरपाई तभी कर सकेंगे, जब उनकी सीमाएं शांत होंगी और व्यापारिक साझेदारी कहीं अधिक प्रगाढ़ और परस्पर लाभदायी होगी. चीन महज अमेरिका से व्यापारिक हितों के टकराव के मद्देनजर भारत को तवज्जो नहीं देगा. वह भारत को तवज्जो तभी देगा जब परस्पर विश्वास बहाली एक नए मकाम पर होगी, जहां पाकिस्तान, कश्मीर, हांगकांग मसला नहीं होगा, बल्कि व्यापारिक साझेदारी अहम होगी. इसकी एक बड़ी वजह यही है कि आज भी मजबूत अर्थव्यवस्था (Economy) ही दुनिया के बड़े-बड़े सूरमाओं को झुकने को मजबूर करती है. अमेरिका इसका एक उदाहरण भर है.
HIGHLIGHTS
- बदलते वैश्विक समीकरणों के साये में मोदी-शी की बातचीत एशिया प्रशांत क्षेत्र में नई इबारत गढ़ सकती है.
- बैठक का मकसद दि्वपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाते हुए भारत-चीन सीमा पर शांति बनाए रखना है.
- RCEP एक ऐसा मंच है, जो चीन-भारत को कहीं अधिक निकट ला सकता है.