टींग-टिंग, टींग-टींग--- फोन पर मैसेज बॉक्स के मैसेज ने शांत उमस भरी दोपहरी में गर्मी से ध्यान हटाया और मैसेज पढ़ते ही उस व्यक्ति ने अपना गमछा सम्भालते हुये पंचायत चौक तक पहुंचने में बिजली सी तेजी दिखाई। भीड़ बढ़ रही थी और फिर किसी ने चिल्ला कर कहा, मारो-मारो। फिर क्या था, लात-घूसे, जूते-चप्पल, लाठी-मुक्के, छाता, जो कुछ मिला बस उसी से उन पांच लोगों की धुनाई होने लगी।
चीख-चिल्लाहट से पूरा इलाका गूंजने लगा और इससे पहले कि किसी को भी इस बात का अंदाजा हो पाता कि किसे और किस लिए पीट रहे हैं, तीन लाशें छत-विक्षत सड़क के बीचों-बीच बिखरी पड़ी थी।
ये एहसास कि कोई मर गया है, काफी था, लोगों के तितर-बितर होने के लिए। एक बार फिर उमस भरी गर्मी और शांत दोपहरी ने गांव पर अपना कब्जा जमा लिया। हां, गली के कुत्तों और चील पक्षियों की मौज निकल आई- आखिर इंसानों के मांस को खाने को मौका हर दिन तो नहीं मिलता।
ये जो कुछ मैंने लिखा है, वो काल्पनिक है। मैंने ऐसा होते अपनी आंखों से नहीं देखा। लेकिन ऐसी घटनाओं की चर्चा खबरों में पिछले 3 महीनों से मैं लगातार कर रहा हूं। अजीब सी बात है खबरों को पढ़ते-पढ़ते या इसे मैं अपने अंदाज में कहूं, तो खबरों को बताते और समझाते, मुझें खून की बू आने लगती है।
ऐसा लगता है मानों मेरे सामने पुराने जमाने की तरह एक बकरानुमा इंसान को लाया जा रहा है और चारों ओर भीड़ ही भीड़ है। भीड़ पूरे जोर से चिल्ला रही है- मारो, मारो, मारो और फिर एक बड़े से गडासानुमा धारदार हथियार से एक झटके में उस बकरानुमा इंसान का सर धड़ से अलग कर दिया जाता है।
क्योंकि जिस तर्ज पर पूरे देश में कोने कोने से खबरें आ रही है कि भीड़ ने अफवाह की वजह से किसी को या कुछ लोगों को पीट-पीट कर मार डाला तो ये लगता है कि पता नहीं कब, किस कोने से कुछ उन्मादी लोग बाहर आएं और मेरे सामने किसी सभ्य शख्स को पीट-पीट कर मार डाले।
हो सकता है कि आपको मेरा ये डर बेवजह लगे, लेकिन इस डर की चपेट में, मैं अकेला नहीं हूं। 180 दिनों में 27 लोगों को इसी तरह से पीट पीट कर मार डाला गया है। और वजह बहुत ही घटिया और फालतू है- फोन पर आए मैसेज से फैली अफवाह।
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ये है हमारे 21वीं सदी के भारत की वो बुलंद तस्वीर, जिसे देखने के बाद हर सभ्य हिन्दुस्तानी का सर शर्म से झुक जाता है। लेकिन ना तो हमारी सरकारों और ना ही हमारे नेताओं को इस तरह की खबरों, घटनाओं और समाज को तार-तार करती सच्चाइयों से कोई फर्क पड़ता है।
आखिर पड़े भी क्यों, जो मर गये, वे वोट तो देते नहीं। और जब मर ही गये तो फिर उनकी सोचे ही क्यों। अगर कोई उन मरने वालों के बारे में सोचेगा या रोएगा तब कहेंगे- बड़ा बुरा हुआ, ऐसा कतई नहीं होना चाहिये था, कानून पर भरोसा रखिये, कानून आपना काम जरुर करेगा, जांच बिठा दी है, पुलिस अपना काम कर रही है। बस बात खत्म।
ये है हमारे लोकतंत्र की मजबूत कोशिकाओं का दंभ भरने वाले चुने हुए राजनेताओं का चिर- परिचित जवाब। अगर पिछले 3 महीनों में 13 राज्यों में हुई 27 मौतों पर इसके इतर किसी नेता या सरकारी मुलाजिम ने कुछ कहा हो तो बता दीजिये। महाराष्ट्र में धुले में पुलिस के सामने 5000 की भीड़ ने 5 बेगुनाह लोगों को पीट-पीट कर मार डाला।
पुलिस देखती रही- बेबस थी, क्योंकि भीड़ के सामने वो कैसे मुकाबला करती। और राज्य सरकार ने वही कहा जो पिछली बार भी एक महीने पहले कहा था- जांच हो रही है, दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा। झारखंड हो, छत्तीसगढ़ हो, तेलंगाना हो, आंध्र हो या देश का कोई भी और राज्य- हर तरफ एक ही कहानी – एक ही सरकारी बयान।
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भीड़तंत्र का सहारा लेकर कैसे देश को बांटने में लगें है कुछ स्वार्थी लोग
सवाल ये नहीं है कि आज देश में सोशल नेटवर्किंग साइट और मैसेजिंग साइट का इस्तेमाल कर समाज का एक वर्ग किस तरह से देश को तार-तार कर रहा है। सवाल ये भी नहीं है कि आज नीहित स्वार्थ से लिप्त कुछ लोग देश में भीड़तंत्र का सहारा लेकर कैसे देश को बांटने में लगें है?
सवाल ये है कि क्यों आज हिन्दुस्तान का लोकतंत्र ऐसी मानसिकता के सामने लेटा पड़ा है- धराशाई है, बेबस है। क्यों आज देश के बुद्धिजीवी वर्ग में इस खतरनाक मानसिकता को पहचानने और उससे लोहा लेने की शक्ति नहीं है। क्यों 21वीं सदी का भारत अपने अस्तित्व को कुछ कुंठित मानसिकता वाले लोगों के हाथों तहस-नहस होते देख रहा है- मौन है। हमारे नेता मन की बात तो करते हैं, लेकिन समाज के एक मौन पर ना तो वक्तव्य देते हैं और ना ही मन की बात में मौन की बात करते हैं।
चिंता होनी चाहिये हर उस व्यक्ति को जो जीवंत भारत में एक उन्मुक्त जीवन जीता है। भीड़तंत्र का ये स्वरुप जो आज हमारा सच बनता जा रहा है उससे डरना चाहिये हर भारतीय को, क्योंकि ये वो भारत नहीं है, जिसके लिए हर हिन्दुस्तानी जीता और मरता है।
ये हम सब की आजादी और संवैधानिक हक का वो अवमूलन है जो किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिये। वरना चेत जाये वो हर हिन्दुस्तानी जिसे स्वच्छंद भारत में सांस लेने की आदत है, क्योंकि भीड़ आ रही है- भीड़ तय करेगी कि क्या सही है और क्या गलत। भीड़ करेगी इंसाफ और भीड़ सुनायेगी फैसला। न रहेगा लोकतंत्र, ना रहेगा देश में कानून का राज- भीड़ करेगी राज और भीड़ की ही सुनाई देगी आवाज।
(अजय कुमार न्यूज नेशन के मैनेजिंग एडिटर हैं)
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Source : Ajay Kumar