Arahnath Bhagwan Chalisa: अरहनाथ भगवान की रोजाना पढ़ेंगे ये चालीसा, कट जाएंगे सारे पाप और पूरी होगी हर मनोकामना

अरहनाथ भगवान (arahnath bhagwan) जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर हैं. उनका चालीसा (arahnath bhagwan 18th trithankar chalisa) वस्तुत: सभी कर्म-बंधनों को काटने वाला है. ऐसे लोगों के सारे पाप-ताप कट जाते हैं और ह्रदय में संतोष की भावना स्वत: उदित हो जाती है.

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Megha Jain
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Arahnath Bhagwan Chalisa

Arahnath Bhagwan Chalisa( Photo Credit : social media)

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अरहनाथ भगवान (arahnath bhagwan) जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर हैं. उनके चालीसा का प्रभाव अतुलनीय है. उनका चालीसा (arahnath bhagwan 18th trithankar chalisa) वस्तुत: सभी कर्म-बंधनों को काटने वाला है. श्रद्धा और भक्ति से भरकर जो भी लोग भगवान अरहनाथ के चालीसा का पाठ करते हैं, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता है. ऐसे लोगों के सारे पाप-ताप कट जाते हैं और ह्रदय में संतोष की भावना स्वत: उदित (arahnath bhagwan 18th trithankar hindi chalisa) हो जाती है.        

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अरहनाथ भगवान की चालीसा (Arahnath Bhagwan Chalisa) 

श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर, ज्ञान दरस सुख बल रत्नाकर ।
कल्पवृक्ष सम सुख के सागर, पार हुए निज आतम ध्याकर ।। 
अरहनाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शाषक ।
माँ मित्रसेना पिता सुदर्शन, चक्रवर्ती बन दिया दिग्दर्शन ।। 
सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत ।। 
ब्याह हुआ जब प्रीत कुमार का, स्वपन हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रतन का ।। 
एक दिन देखा शरद ऋतू में, मेघ विलीन हुए क्षण भर में ।
उदित हुआ वैराग्य ह्रदय में, लौकंतिक सुर आये पल में ।। 
अरविन्द पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगंबर दीक्षा धारी ।। 
पंचमुश्ठी उखाड़े केश, तन से ममत्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित, पड्गाहे भूपति अपराजित ।। 
परसुख शुद्दाहार कराये, पंचाशचर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहे आतम चिंतन में ।। 
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराजे आम्र वृक्ष तल ।
अंतर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई ।। 
देव करे उत्सव अति भव्य, समोशरण की रचना दिव्य ।
सौलह वर्ष का मौन भंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।। 
चौदह गुणस्थान बत्ताए, मोह काय योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रय बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये ।। 
संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर नारी, दीक्षा व्रत धारे बहु भारी ।। 
कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूर दूर तक हुआ विहार ।। 
एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनि संग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।। 
नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव चक्री जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धरम समीचीन ।। 
प्राणी मात्र का जैन धरम हैं, जैन धर्म हो परम धर्म हैं ।
पंचेंद्रियों को जीते जो नर, जितेन्द्रिय वे बनाते जिनवर ।। 
त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग से ही सब सुखी हो भाई ।
त्याग कर सके केवल मानव, हैं अक्षम सब देव और दानव ।। 
हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बंधन में पीड़ा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घतिया ।। 
जिनके चरणों में धरें, शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करे अरहनाथ ।। 
अरहनाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शाषक ।
माँ मित्रसेना पिता सुदर्शन, चक्रवर्ती बन दिया दिग्दर्शन ।। 
सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत ।। 
ब्याह हुआ जब प्रीत कुमार का, स्वपन हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रतन का ।। 
एक दिन देखा शरद ऋतू में, मेघ विलीन हुए क्षण भर में ।
उदित हुआ वैराग्य ह्रदय में, लौकंतिक सुर आये पल में ।। 
अरविन्द पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगंबर दीक्षा धारी ।। 
पंचमुश्ठी उखाड़े केश, तन से ममत्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित, पड्गाहे भूपति अपराजित ।। 
परसुख शुद्दाहार कराये, पंचाशचर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहे आतम चिंतन में ।। 
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराजे आम्र वृक्ष तल ।
अंतर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई ।। 
देव करे उत्सव अति भव्य, समोशरण की रचना दिव्य ।
सौलह वर्ष का मौन भंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।। 
चौदह गुणस्थान बत्ताए, मोह काय योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रय बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये ।। 
संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर नारी, दीक्षा व्रत धारे बहु भारी ।। 
कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूर दूर तक हुआ विहार ।। 
एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनि संग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।। 
नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव चक्री जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धरम समीचीन ।। 
प्राणी मात्र का जैन धरम हैं, जैन धर्म हो परम धर्म हैं ।
पंचेंद्रियों को जीते जो नर, जितेन्द्रिय वे बनाते जिनवर ।। 
त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग से ही सब सुखी हो भाई ।
त्याग कर सके केवल मानव, हैं अक्षम सब देव और दानव ।। 
हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बंधन में पीड़ा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घतिया ।। 
जिनके चरणों में धरें, शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करे अरहनाथ ।। 

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