Suparshvanath Bhagwan Chalisa: सुपार्श्वनाथ भगवान की चालीस दिन तक पढ़ेंगे ये चालीसा, संकट जाएंगे कट और पूरी होगी मनचाही इच्छा

सुपार्श्वनाथ भगवान (suparshvanath bhagwan) जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर है. उनका चालीसा (suparshvanath bhagwan chalisa) दिव्य शक्तियां निहित हैं. जो भी नियम से इस चालीसा का पाठ रोजाना करता है. उसके सारे संकट कट जाते हैं.

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Megha Jain
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Suparshvanath Bhagwan Chalisa

Suparshvanath Bhagwan Chalisa ( Photo Credit : social media)

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सुपार्श्वनाथ भगवान (suparshvanath bhagwan) जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर है. भगवान का जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकु वंश में जेष्ठ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था. इनके पिता का नाम राजा प्रतिष्ठ और माता का नाम पृथ्वी देवी था. इनका चिन्ह स्वस्तिक है. उनका चालीसा (suparshvanath bhagwan chalisa) दिव्य शक्तियां निहित हैं. जो भी नियम से इसका पाठ रोजाना करता है. उसके सारे संकट कट जाते हैं. जीवन में उसकी राह अपने आप ही आसान हो जाती है और सारे काम बनने लगते हैं. जो लोग मंदिर में जाकर सुपार्श्वनाथ भगवान का चालीसा पढ़ते और गाते हैं. उनकी निश्चित (suparshvanath bhagwan 7th trithankar chalisa) ही सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं.   

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सुपार्श्वनाथ भगवान चालीसा (shri suparshvnath chalisa)
 
लोक शिखर के वासी है प्रभु, तीर्थंकर सुपार्श्व जिनराज ।।
नयन द्वार को खोल खडे हैं, आओ विराजो हे जगनाथ ।।
सुन्दर नगर वारानसी स्थित, राज्य करे राजा सुप्रतिष्ठित ।।
पृथ्वीसेना उनकी रानी, देखे स्वप्न सोलह अभिरामी ।।
तीर्थंकर सुत गर्भमें आए, सुरगण आकर मोद मनायें ।।
शुक्ला ज्येष्ठ द्वादशी शुभ दिन, जन्मे अहमिन्द्र योग में श्रीजिन ।।
जन्मोत्सव की खूशी असीमित, पूरी वाराणसी हुई सुशोभित ।।
बढे सुपार्श्वजिन चन्द्र समान, मुख पर बसे मन्द मुस्कान ।।
समय प्रवाह रहा गतीशील, कन्याएँ परणाई सुशील ।।
लोक प्रिय शासन कहलाता, पर दुष्टो का दिल दहलाता ।।
नित प्रति सुन्दर भोग भोगते, फिर भी कर्मबन्द नही होते ।।
तन्मय नही होते भोगो में, दृष्टि रहे अन्तर – योगो में ।।
एक दिन हुआ प्रबल वैराग्य, राजपाट छोड़ा मोह त्याग ।।
दृढ़ निश्चय किया तप करने का, करें देव अनुमोदन प्रभु का ।।
राजपाट निज सुत को देकर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।।
ध्यान में लीन हुए तपधारी, तपकल्याणक करे सुर भारी ।।
हुए एकाग्र श्री भगवान, तभी हुआ मनः पर्यय ज्ञान ।।
शुद्धाहार लिया जिनवर ने, सोमखेट भूपति के ग्रह में ।।
वन में जा कर हुए ध्यानस्त, नौ वर्षों तक रहे छद्मस्थ ।।
दो दिन का उपवास धार कर, तरू शिरीष तल बैठे जा कर ।।
स्थिर हुए पर रहे सक्रिय, कर्मशत्रु चतुः किये निष्क्रय ।।
क्षपक श्रेणी में हुए आरूढ़, ज्ञान केवली पाया गूढ़ ।।
सुरपति ज्ञानोत्सव कीना, धनपति ने समो शरण रचीना ।।
विराजे अधर सुपार्श्वस्वामी, दिव्यध्वनि खिरती अभिरामी ।।
यदि चाहो अक्ष्य सुखपाना, कर्माश्रव तज संवर करना ।।
अविपाक निर्जरा को करके, शिवसुख पाओ उद्यम करके ।।
चतुः दर्शन – ज्ञान अष्ट बतायें, तेरह विधि चारित्र सुनायें ।।
सब देशो में हुआ विहार, भव्यो को किया भव से पार ।।
एक महिना उम्र रही जब, शैल सम्मेद पे, किया उग्र तप ।।
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी आई, मुक्ती महल पहुँचे जिनराई ।।
निर्वाणोत्सव को सुर आये । कूट प्रभास की महिमा गाये ।।
स्वास्तिक चिन्ह सहित जिनराज, पार करें भव सिन्धु – जहाज ।।
जो भी प्रभु का ध्यान लगाते, उनके सब संकट कट जाते ।।
चालीसा सुपार्श्व स्वामी का, मान हरे क्रोधी कामी का ।।
जिन मंदिर में जा कर पढ़ना, प्रभु का मन से नाम सुमरना ।।
हमको है दृढ़ विश्वास, पूरण होवे सबकी आस ।।

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