माघ मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को Bhishma Ashtami कहा जाता है. इसी दिन गंगा पुत्र भीष्म ने अपने प्राण त्यागे थे. इस दिन व्रत रखने का विधान है, वहीं पितरों की आत्मा की शांति के लिए तिल और जल से तर्पण भी करने का नियम है. हिंदू धर्म में मान्यता है कि भीष्म अष्टमी पितृ दोष से निजात पाने के लिए उत्तम दिन है. इसके अलावा योग्य संतान प्राप्ति के लिए भी इस दिन व्रत किया जाता है. मान्यता है कि उत्तरायण के शुभ दिन पर अपना शरीर त्यागने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है. इसी कारण कई दिनों तक बाणों की शैय्या पर पड़े रहे देवव्रत भीष्म ने आज के दिन अपना शरीर त्याग दिया था और इसी कारण भीष्म अष्टमी का पर्व मनाया जाता है.
इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त भीष्म पितामह ने महाभारत के युद्ध में बाणों से छलनी होने के बाद भी पिता शांतनु के वरदान की बदौलत शरीर का त्याग नहीं किया था. शरीर का त्याग करने के लिए भीष्म पितामह ने माघ महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी का दिन चुना. इसीलिए इस दिन व्रत रखने का विधान है. भगवान विष्णु के मंदिरों में भीष्म पितामह के सम्मान में भव्य उत्सव का आयोजन किया जाता है.
भीष्म अष्टमी का महत्व
माघ मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि (भीष्म अष्टमी) को व्रत रखने का विधान है. इस दिन तिल और जल से तर्पण किया जाता है. साथ ही व्रत रखने से सभी पापों का नाश होता है. इस दिन भीष्म पितामह की आत्मा की शांति के लिए तर्पण करने वालों को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है. माना जाता है कि ऐसा करने से भीष्म पितामह जैसी आज्ञाकारी संतान की प्राप्ति होती है. साथ ही पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है.
भीष्म अष्टमी की पौराणिक कथा
भीष्म अष्टमी को लेकर प्रचलित कथा के अनुसार, भीष्म पितामह (देवव्रत) हस्तिनापुर के राजा शांतनु की पत्नी और मां गंगा की कोख से पैदा हुए थे. एक बार राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट पर पहुंचे, जहां से लौटते समय हरिदास केवट की पुत्री मत्स्यगंधा से उनकी मुलाकात हुई. मत्स्यगंधा की सुंदरता पर शांतनु मोहित हो गए और उन्होंने मत्स्यगंधा के पिता से उनका हाथ मांगा. हालांकि मत्स्यगंधा के पिता ने यह वचन मांग लिया कि वे अपनी बेटी का हाथ तभी सौंप सकते हैं, जब उसकी कोख से पैदा हुए संतान को ही राज्य का उत्तराधिकारी माना जाए.
राजा शांतनु को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ पर वे मत्स्यगंधा को भूल नहीं पाए और व्याकुल रहने लगे. उनकी व्याकुलता देख देवव्रत ने कारण पूछा. पिता शांतनु से सब बात जानने के बाद देवव्रत केवट हरिदास के पास गए और हाथ में गंगाजल लेकर प्रतिज्ञा ली कि मैं आजीवन अविवाहित ही रहूंगा. पिता की इच्छा पूर्ति के लिए देवव्रत ने यह प्रतिज्ञा ली थी, जिसके बाद उनका नाम भीष्म पड़ गया. इसके बाद पिता शांतनु ने उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया. महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद देवव्रत ने अपना शरीर त्याग दिया.
Source : News Nation Bureau