दुर्गा पूजा देश के प्रमुख त्योहार है और उत्तर भारत में इसे खूब धूमधाम से मनाया जाता है. दुर्गा पूजा से संबंधित कई ऐसे रोचक तथ्य हैं जिसकी जानकारी कई लोगों को नहीं है. ये कुछ ऐसी मान्यताएं हैं जिनसे हमारी संस्कृति समृद्ध बनी हुई है. लोगों के बीच समाज को जोड़ती इन उत्सवों और मान्यताओं को लेकर खुशी वाकई में हमारे समृद्ध संस्कृति का प्रतिक है. हालांकि दुर्गा पूजा का नाम आते ही लोगों को कोलकाता याद आता है. पर वह नहीं जानते हैं कि जहां-जहां बंगाली समुदाय रहता है वह इस त्योहार को खासे उत्साह के साथ मनाता है. दुर्गा पूजा के दौरान सजते पंडालों की खूबसूरती देखते ही बनती है.
भगवान : दुर्गा पूजा पंडालों में दुर्गा की प्रतिमा महिसासुर का वद्ध करते हुए बनाई जाती है. दुर्गा के साथ अन्य देवी-देवाताओं की प्रतिमाएं भी बनाई जाती हैं. दुर्गा पूजा पंडालों में दुर्गा की प्रतिमा के साथ देवी -देवताओं की जो प्रतिमा बनाई जाती है, उस पूरे नमूने को 'चाला' कहा जाता है. इस छाल में दुर्गा के चरणों में होता है असुर महिसासुर, साथ ही होता हो उनका शेर. इसके साथ ही दाईं ओर होती हैं सरस्वती और कार्तिका. वहीं बाई और होती है लक्ष्मी और ग्णेश. वहीं ग्णेश के बगल में उनकी पत्नी के प्रतीक के तौर पर रखे जाते हैं दो केले की लटे. वहीं छाल पर शिव की प्रतिमा या तस्वीर भी बनाई जाती है.
आखों को चढ़ावा : यह दुर्गा पूजा की सबसे पुरानी चली आ रही परंपराओं में से एक है, 'चोखूदान' . 'चोखूदान' के दौरान दूर्गा की आखों को चढ़ावा दिया जाता है. बता दें कि 'चाला' बनाने में 3 से 4 महीने का समय लगता है. वहीं इसमें दुर्गा की आखों को अंत में बनाया जाता है. यह प्रथा केवल एक व्यक्ति की मौजूदगी में की जाती है और आसपास बिल्कुल अंधेरा होता है. हालांकि आज यह प्रथा सभी लोग नहीं पूरी करते हैं. आजकल, कारीगर दुर्गा की आखें पूरी करके ही लोगों को 'चाला' सौंपते हैं.
अष्टमी पुष्पांजलि : यह त्योहार के आठवें दिन बनाया जाता है. इस दिन सभी लोग दुर्गा को फूल अर्पित करते हैं. कहा जाता है कि इस दिन सभी बंगाली दुर्गा को पुष्पांजलि अर्पित करते हैं. वह चाहे किसी भी कोने में रहे, पर अष्टमी के दिन सुबह सुबह उठ कर दुर्गा को फूल जरूर अर्पित करते हैं, उस देवी को जिसे वह मां मानते हैं.
कुमारी पूजा : संपूर्ण पूजा के दौरान देवी दुर्गा की पूजा विभिन्न रूपों में की जाती है. इन रूपों में सबसे प्रसिद्ध रूप है- कुमारी. देवी के इस रूप की पूजा के लिए 1 से 16 वर्ष की लड़कियों का चयन किया जाता है और उनकी पूजा आरती की जाती है. इस दौरान देवी के सामने कुमारी की पूजा की जाती है. यह देवी की पूजा का सबसे शुद्ध और पवित्र रूप माना जाता है. बेलूर मठ, हावड़ा में की जाने वाली पूजा सबसे प्रसिद्ध कुमारी पूजन में से एक है.
दो पूजा : दुर्गा का त्योहार केवल पंडालों तक सीमित नहीं है. कोलकाता में होने वाली पूजा इस संबंध में खास है. यहां लोग दो तरह की दुर्गा पूजा के साक्षी होते हैं. इस दोनों ही तरह की पूजा में रीति-रिवाज के अलावा सब कुछ बिल्कुल अलग होता है. दो अलग अलग दुर्गा पूजा से अर्थ है एक जो बहुत बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा मनाई जाती है, जिसे पारा कहा जाता है और दूसरा बारिर जो घर में मानाई जाती है. पारा का आयोजन पंडालों और बड़े-बड़े सामुदायिक केंद्रों में किया जाता है. वहीं दूसरा बारिर का आयोजन कोलकाता के उत्तर और दक्षिण के क्षेत्रों में किया जाता है.
संध्या आरती : दुर्गा पूजा में भारतीय घड़ी के अनुसार समय को नहीं माना जाता है. मतलब यह कि दुर्गा पूजा के दौरान एक से दूसरा दिन शाम को पूजा के दौरान बदलता है. सांधा आरती की रौनक इतनी चकाचौंध और खूबसूरत होती है कि लोग इसे देखने दूर-दूर से कलकत्ता पहुंचते हैं. पारंपरिक कपड़ों में सजे धजे लोग इस पूजा की रौनक और बढ़ा देते हैं. चारों ओर उत्सव का माहौल पूरे वातावरण में नई रौनक डाल देता है. संगीत, ढोल, घंटियों और नाच गाने के बीच सांधा आरती की रसम पूरी की जाती है. यह नौ दिनों तक चलने वाले त्योहार के दौरान रोज शाम को की जाती है. साथ ही इसी दौरान दधिची नाच भी होता है. दुर्गा पूजा के दौरान होने वाली प्रत्येक प्रथा का समान महत्तव होता है.
सिंदूर खेला : दसमी, एक ऐसा शब्द जो हर बंगाली को थोड़ा उदास कर देता है. यह दुर्गा पूजा का आखिरी दिन होता है दसमी. पूजा के आखिरी दिन महिलाएं सिंदूर खेला खेलती हैं. इसमें वह एक दूसरे पर सिंदूर से एक दूसरे को रंग लगाती हैं. और इसी के साथ अंत होता है इस पूरे उत्सव का, जिसकी तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती हैं.
विजय दश्मी : यह त्योहार का आखिरी दिन होता है. इस दिन बंगाल की सड़के बिल्कुल गायब हो जाती हैं और हर तरफ केवल भीड़ ही भीड़ दिखती है. दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है, और इस तरह वह हिमाजय में अपने परिवार के पास वापस लौट जाती हैं. इस दिन पूजा करने वाले सभी लोग एक दूसरे के घर जाते हैं. शूभकामनाएं और मिठाईयां देते हैं.
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पूजा के दौरान की जाने वाली सभी प्रथाओं, रीति रिवाजों का महत्व आज के समय में बढ़ गया है. इसका प्रमुख कारण है कि लोग अपने परिवारों और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में यह त्योहार ही है जो हमें एक दूसरे के करीब लाते हैं. सालों से मानाए जाने वाले इस त्योहार के बारे में जिनता जाना जाए उतना ही कम है. इसके अनके रंग हैं. जिनका आनंद आप इस उत्सव का हिस्सा हो कर ही उठा सकते हैं. इन सबसे भी महत्वपूर्ण सबसे जरूरी बात यह है कि यह त्योहार स्त्रीत्व का उत्सव है. यह उत्सव है शक्ति के अन्नय और असीमित स्त्रोत मां दुर्गा का.
Source : News Nation Bureau