गुरु नानक देव जी ने एक ऐसे विकट समय में जन्म लिया, जब भारत में कोई केंद्रीय संगठित शक्ति नहीं थी. विदेशी लुटेरों के हमले बढ़ गए थे. विदेशी आक्रमणकारी, देशवासियों का मानमर्दन कर देश को लूटने में लगे थे. धर्म के नाम पर अंधविश्वास और कर्मकांड का बोलबाला था. जातिगत भेदभाव चरम पर था. ऐसे कठिन समय में गुरु नानक देव जी के प्रकाश के बारे में भाई गुरदास जी ने लिखा है-
"सतगुरू नानक प्रगटिया, मिटी धुंध जग चानण होआ,
ज्यूँ कर सूरज निकलया, तारे छुपे अंधेर पलोआ।"
वाकई गुरुनानक देव जी के जीवन के विविध रूप हैं. वह जहां एक ओर जन सामान्य की अध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले महान दार्शनिक विचारक थे, तो अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को झंकृत कर देने वाले महान संत कवि भी. वो बाबर जैसे अत्याचारी शासक की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाले महान क्रांतिकारी कवि थे, तो जाति वैमनस्य और धार्मिक रंजिशों में फंसे इस समाज को सही दिशा देने वाले जननायक भी.
'एक कुदरत के सब बंदे'
गुरु जी ने तब के समय में समाज और देश की अधोगति को अच्छे से अनुभव किया और निरंतर छिन्न-भिन्न होते जा रहे सामाजिक ढांचे को अपने हृदयस्पर्शी उपदेशों से पुनः एकता के सूत्र में बांध दिया. उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया - इस सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं ईश्वर सबका साझा पिता है. फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंच-नीच कैसे हो सकते हैं?
"अव्वल अल्लाह नूर उपाया एक कुदरत के सब बन्दे
एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले को मंदे।"
लंगर और संगत की परम्परा
उल्लेखनीय बात यह है कि गुरु जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल मिलाकर ,स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की. गुरु जी ने लंगर की परंपरा चलाई. लंगर में, कथित अछूत लोग, जिनके सम्पर्क से भी तब खुद को उच्च जाति का समझने वाले लोग बचने की कोशिश करते थे, एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे. आज भी सभी गुरुद्वारों में गुरु जी द्वारा शुरू की गई लंगर की परंपरा कायम है. जहां धर्म , जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर सारे लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, संगत सेवा करती है.
इसके साथ ही जातिगत वैमनस्य को खत्म करने के लिए गुरुजी ने संगत परंपरा शुरू की, जहां हर जाति के लोग साथ साथ जुड़ते थे, एक साथ प्रभु की आराधना किया करते थे. गुरुजी ने अपनी यात्रा के दौरान हर उस व्यक्ति का आथित्य स्वीकार किया , उनके यहां भोजन किया जो भी उनका प्रेमपूर्वक स्वागत करता था।बाला और मरदाना नाम के दोनों शिष्य हमेशा उनके साथ बने रहे. इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु नानक देव जी ने अपने क्रांतिकारी कदमों से एक ऐसी भाईचारे की नींव रखी , जिसके लिए धर्म जाति का भेदभाव बेमानी था.
सामाजिक ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए प्रभु स्मरण
उस समय त्याग, वैराग्य और जंगलों में जाकर भजन करना मोक्ष प्राप्ति के लिए जरूरी समझा जाता था. ऋषि मुनि लोग समाज की मुख्यधारा से कटकर जंगल में जाकर तपस्या करते थे. इस प्रकार बुराइयों से ग्रस्त समाज को सुधारने में उनका कोई योगदान नहीं था. गुरुजी ने उन्हे 'सब हराम जैता कुछ खाए' का हवाला देकर समाज से जोड़ा. गुरू जी ने कहा कि अगर वो समाज के लिए कोई योगदान नही दे रहे है तो उन्हे इसका अन्न खाने का भी अधिकार नही है. वाकई गुरुनानक का ईश्वर सबका साझा ईश्वर है. उसे पाने के लिए जंगलो में भटकना जरूरी नहीं. सामाजिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुये भी उसे पाया जा सकता है.
गुरुजी ने जहां एक ओर अपने सरल निश्चल और सारगर्भित उपदेशों से धर्म को संकीर्णता की जड़ों से बाहर निकाला और उसे स्वर्था लोकहित की भाव भूमि पर स्थापित किया. लोगों की हृदय में दया, ईश्वरीय प्रेम और सहिष्णुता के बीज बोए, वही तत्कालीन शासकों के खिलाफ क्रांतिकारी उपदेशों से गुलामी और अत्याचार सहने को अपनी नियति मान चुके लोगों के सोए स्वाभिमान को जगाया. इसके साथ ही धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड अंधविश्वास और कर्मकांड पर चोट की.
गुरु जी की शिक्षाएं आज भी प्रांसगिक
वाकई गुरु नानक देव जी के उपदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक है. हमें जहां समाज में फैले वैमनस्य, कुरीतियों और और आडंबर के विरुद्ध संघर्ष करना है. तो साथ ही सांप्रदायिकता, जातिवाद के विष से सचेत रहकर हर हालत में आपसी एकता और भाईचारे को बनाए रखना है.
Source : News Nation Bureau