आज यानि सोमवार को केदारनाथ धाम के कपाट खोल दिए गए हैं. मंदिर में सुबह तड़के 3 बजे विशेष पूजा अर्चना की गई. मुख्य पुजारी बागेश लिंग ने बाबा की समाधि पूजा के साथ अन्य औपचारिकता पूरी की. इसके बाद 5 बजे केदारनाथ धाम के कपाट खोल दिए गए. बाबा केदार के कपाट मेष लग्न में खोले गए. मंदाकिनी एवं सरस्वती नदी के संगम पर स्थित केदारनाथ में इस बार भी कपाटोद्घाटन समारोह सूक्ष्म रूप से आयोजित किया गया. बता दें कि कोरोनावायर के कहर के कारण फिलहाल किसी भी तीर्थयात्रियों और स्थानीय भक्तों को केदारनाथ जाने की अनुमति नहीं दी गई है. कपाट खुलने पर देवस्थानमं बोर्ड की सीमित टीम ही पूजा पाठ करेगी.
हिन्दू धर्म में हिमालय की गोद में बसे केदारनाथ धाम को बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना गया है. हिन्दू पुराणों में साल के करीब 6 महीने हिम से ढके रहने वाले इस पवित्र धाम को भगवान शिव ( का निवास स्थान बताया जाता है.
और पढ़ें: देशभर में करोड़ों श्रद्धालु कर सकेंगे बदरीनाथ, केदारनाथ के वर्चुअल दर्शन
केदारनाथ मंदिर की पौराणिक कथा
धार्मिक कथाओं के मुताबिक, महाभारत युद्ध में जीत हासिल करने के बाद पांडवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर को हस्तिनापुर के राजा के रूप में राज्याभिषेक किया गया. इसते बाद करीब चार दशकों तक युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर पर राज किया. इसी दौरान एक दिन पांचों पांडव भगवान श्रीकृष्ण के साथ बैठकर महाभारत युद्ध की समीक्षा कर रहे थे. समीक्षा में पांडवों ने श्रीकृष्ण से कहा हे नारायण हम सभी भाइयों पर ब्रम्ह हत्या के साथ अपने बंधु बांधवों की हत्या का कलंक है. इस कलंक को कैसे दूर किया जाए? तब श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि ये सच है कि युद्ध में भले ही जीत तुम्हारी हुई है लेकिन तुमलोग अपने गुरु और बंधु बांधवों को मारने के कारण पाप के भागी बन गए हो. इन पापों के कारण मुक्ति मिलना असंभव है. इन पापों से सिर्फ महादेव ही मुक्ति दिला सकते हैं. इसलिए महादेव की शरण में जाओ. उसके बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए.
इसके बाद पांडव पापों से मुक्ति के लिए चिंतित रहने लगे और मन ही मन सोचते रहे कि कब राज पाठ को त्यागकर भगवान शिव की शरण में जाएंगे. उसी बीच एक दिन पांडवों को पता चला कि वासुदेव ने अपना देह त्याग दिया है और वो अपने परमधाम लौट गए हैं. ये सुनकर पांडवों को भी पृथ्वी पर रहना उचित नहीं लग रहा था. गुरु, पितामह और सखा सभी तो युद्धभूमि में ही पीछे छूट गए थे. माता, ज्येष्ठ, पिता और काका विदुर भी वनगमन कर चुके थे. सदा के सहायक कृष्ण भी नहीं रहे थे. ऐसे में पांडवों ने हस्तिनापुर का सिंहासन अभिमन्यु के बेट और अपने पौत्र परीक्षित को सौंप दिया और द्रौपदी समेत राज्य छोड़कर भगवान शिव की तलाश में निकल पड़े.
हस्तिनापुर से निकलने के बाद पांचों भाई और द्रौपदी भगवान शिव के दर्शन के लिए सबसे पहले काशी पहुंचे, पर भोलेनाथ वहां नहीं मिले. उसके बाद उन लोगों ने कई और जगहों पर भगवान शिव को खोजने का प्रयास किया लेकिन जहां कहीं भी ये लोग जाते शिव जी वहां से चले जाते. इस क्रम में पांचों पांडव और द्रौपदी एक दिन शिव जी को खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे.
यहां पर भी शिवजी ने इन लोगों को देखा तो वो छिप गए लेकिन यहां पर युधिष्ठिर ने भगवान शिव को छिपते हुए देख लिया था. तब युधिष्ठिर ने भगवान शिव से कहा कि हे प्रभु आप कितना भी छिप जाएं लेकिन हम आपके दर्शन किए बिना यहां से नहीं जाएंगे और मैं ये भी जनता हूं कि आप इसलिए छिप रहे हैं क्योंकि हमने पाप किया है. युधिष्ठिर के इतना कहने के बाद पांचों पांडव आगे बढ़ने लगे. उसी समय एक बैल उन पर झपट पड़ा. ये देख भीम उससे लड़ने लगे. इसी बीच बैल ने अपना सिर चट्टानों के बीच छुपा लिया जिसके बाद भीम उसकी पुंछ पकड़कर खींचने लगे तो बैल का धड़ सिर से अलग हो गया और उस बैल का धड़ शिवलिंग में बदल गया और कुछ समय के बाद शिवलिंग से भगवान शिव प्रकट हुए. शिव ने पंड़ावों के पाप क्षमा कर दिया.
आज भी इस घटना के प्रमाण केदारनाथ में दिखने को मिलता है, जहां शिवलिंग बैल के कुल्हे के रूप में मौजूद है. भगवान शिव को अपने सामने साक्षात देखकर पांडवों ने उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद भगवान शिव ने पांडवों को स्वर्ग का मार्ग बताया और फिर अंतर्ध्यान हो गए. उसके बाद पांडवों ने उस शिवलिंग की पूजा-अर्चना की और आज वहीं शिवलिंग केदारनाथ धाम के नाम से जाना जाता है. यहां पांडवों को स्वर्ग जाने का रास्ता स्वयं शिव जी ने दिखाया था इसलिए हिन्दू धर्म में केदार स्थल को मुक्ति स्थल मन जाता है और ऐसी मान्यता है कि अगर कोई केदार दर्शन का संकल्प लेकर निकले और उसकी मृत्यु हो जाए तो उस जीव को दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता है.