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Vaibhav Lakshmi Vrat Katha: कैसे रखते हैं वैभव लक्ष्मी व्रत, जाने कथा और इसका महत्त्व

Devi Maa Lakshmi: शुक्रवार के दिन मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना की जाती है. इस दिन आपको वैभव लक्ष्मी का व्रत रखना चाहिए. क्या है इसकी कथा और महत्त्व आइए जानते हैं.

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Inna Khosla
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Vaibhav Lakshmi Vrat Katha( Photo Credit : Social Media)

Vaibhav Lakshmi Vrat: देवी लक्ष्मी को धन और और सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है. वैभव लक्ष्मी व्रत को वरदलक्ष्मी व्रत भी कहा जाता है. मान्यता है कि शुक्रवार के दिन जो इस व्रत को रखता है उसके जीवन में कभी धन, सौभाग्य और एश्वर्य की कमी नहीं होगी. लेकिन इस माता लक्ष्मी व्रत की कथा क्या है इसे रखने का क्या महत्त्व है ये तो आपको बताएंगे ही साथ आपकी शुक्रवार का व्रत रखने की सही विधि भी बता रहे हैं. अगर आप सच्चे दिल से मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं तो इसका लाभ भी आपको मिलता है.

कहते हैं मां लक्ष्मी बहुत ही चंचल हैं. उन्हें सदैव अपने पास रखना मुश्किल है. लेकिन आपने अगर माता लक्ष्मी का आशीर्वाद एक बार पा लिया तो इस जन्म में आपका उद्धार निश्चित है. माता की नियमपूर्वक आराधना करने वाले को सदैव उनका आशीर्वाद मिलता है जिससे उनके जीवन में कभी किसी चीज़ की कोई कमी नहीं होती 

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माता लक्ष्मी की व्रत कथा (Vaibhav Laxmi Vrat Katha)

 एक समय के बात है एक गांव में बहुत सारे लोग रहते थे जो बहुत मेहनत करते थे और आय अर्जित करते थे लेकिन वो आपस में कभी एक-दूसरे की मदद नहीं करते थे. धीरे-धीरे यहां पर बुराईयों में अपना घर बनाना शुरु कर दिया. गांव के कुछ लोगों को शराब, जुए, चोरी और डकैती की लच लग गयी. लेकिन फिर भी इस गांव में एक ऐसा परिवार था जो अभी भी इन सब चीज़ों से बेहद दूर रहता था. 

शीला और उसके पति अपनी गृहस्थी पर ध्यान देते थे. शीला धार्मिक प्रकृति की महिला थी जो माता लक्ष्मी की भक्त थी. प्रतिदिन मंदिर जाती थी. ये पति-पत्नी कभी किसी की बुराई नहीं करते थे. अपने काम से मतलब रखते थे और सुखी जीवन जीते थे. प्रभु भजन गाते थ, गांव के लोग भी सब उनका सराहना करते थे. 

लेकिन कुछ समय बाद शीला का पति कुछ बुरे लोगों के बीच बैठने लगा. उसकी संगत बिगड़नी शुरु हो गयी. जल्द करोड़पति बनने के ख्वाब ने उसे जल्द रोड़पति बना दिया. शराब, जुए की लत ने उसे भी बर्बाद कर दिया. 

शीला अपने पति की बर्ताव से दुखी रहती अब उसका मन पूजा-पाठ में भी नहीं लगता. धीरे-धीरे उसने मंदिर जाना भी कम कर दिया. घर में रहकर वो भगवान का ध्यान करती. एक दिन दोपहर के समय एक बूढ़ी महिला शीला के घर आयी उसने द्वार पर दस्तक दी, शीला ने दरवाजा खोलकर देखा तो सामने मां समान एक बूढ़ी महिला थी जिसके चेहरे पर आलौकिक तेज था. मानों आंखों में अमृत बह रहा था उसे देखते ही करुणा और प्यार की झलक आ रही थी.

शीला ने आदरपूर्वक उसे घर के अंदर बुलाया और संकोच के साथ फटी हुई चादर बिछाकर उसे बैठने का आग्रह किया.

शीला के घर आयी मां स्वरूप बूढ़ी औरत ने शीला से कहा - क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर में भजन-कीर्तन के समय मैं भी वहां आती हूं।” 

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शीला को कुछ समझ नहीं आया फिर बूढ़ी औरत बोलीं- ‘तुम बहुत दिनों से मंदिर नहीं आईं अतः मैं तुम्हें देखने चली आई।’

शीला मां स्वरूप औरत के सामने फूट-फूटकर रोने लगी. मां जी ने कहा- ‘बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छाँव जैसे होते हैं, धैर्य रखो बेटी! मुझे तेरी सारी परेशानी बता’

शीला ने मां को अपनी परेशानी बतायी. 

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कहानी सुनकर मा.जी ने कहा- ‘कर्म की गति न्यारी होती है. हर इंसान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते हैं, इसलिए तू चिंता मत कर, अब तू कर्म भुगत चुकी है. अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आएंगे, तू तो मां लक्ष्मीजी की भक्त है, मां लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा की अवतार हैं. वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती हैं. इसलिए तू धैर्य रखकर मां लक्ष्मीजी का व्रत कर, इससे सब कुछ ठीक हो जाएगा।’

शीला ने पूछा मां जी ये व्रत कैसे रखते हैं.

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माँ जी ने कहा- ‘बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है, उसे ‘वरद लक्ष्मी व्रत’ या ‘वैभव लक्ष्मी व्रत’ कहा जाता है. मां ने पूरी विधि समझायी और बताया यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है, वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है.’

शीला यह सुनकर इतना खुश हुई की उसने आंख बंद करके इस व्रत का संकल्प ले लिया लेकिन जैसे ही आंखें खोली उसे मां जी नज़र नहीं आयी. शीला समझ गयी की हो ना हो वो साक्षात मां लक्ष्मी ही थीं. 

दूसरे दिन शुक्रवार था. सवेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला ने मां जी द्वारा बताई विधि से पूरे मन से व्रत किया. आखिरी में प्रसाद वितरण हुआ, यह प्रसाद पहले पति को खिलाया. प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड़ गया, उस दिन उसने शीला को मारा नहीं, सताया भी नहीं. शीला को बहुत आनंद हुआ, उनके मन में ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ के लिए श्रद्धा बढ़ गई.

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शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ किया. इक्कीस वें शुक्रवार को मांजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ की सात पुस्तकें उपहार में दीं. फिर माताजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगीं- ‘हे मां धनलक्ष्मी! मैंने आपका ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने की मन्नत मानी थी, वह व्रत आज पूर्ण किया है, हे मां! मेरी हर विपत्ति दूर करो. हमारा सबका कल्याण करो, जिसे संतान न हो, उसे संतान देना, सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना.

हे माँ! आपकी महिमा अपार है।’ ऐसा बोलकर लक्ष्मीजी के ‘धनलक्ष्मी स्वरूप’ की छबि को प्रणाम किया.

व्रत के प्रभाव से शीला का पति अच्छा आदमी बन गया और कड़ी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा. उसने तुरंत शीला के गिरवी रखे गहने छुड़ा लिए, घर में धन की बाढ़ सी आ गई. घर में पहले जैसी सुख-शांति छा गई, ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ का प्रभाव देखकर मोहल्ले की दूसरी स्त्रियां भी विधिपूर्वक ‘वैभवलक्ष्मी व्रत’ करने लगीं.

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