बसंत पंचमी यानी बसंत ऋतु के आगमन का उत्सव. बसंत पंचमी को मां सरस्वती के प्राकट्योत्सव के रूप में देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है. पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने समस्त सृष्टि को ध्वनि प्रदान करने के लिए अपनी पुत्री सरस्वती जी को प्रकट किया था. इस कारण बसंत पंचमी को मां सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है. लेकिन क्या आप जानते हैं माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्री पंचमी के नाम से भी जाना जाता है और इस त्यौहार का बहुत ही गहरा नाता माँ लक्ष्मी से है. इस दिन बुद्धिप्रदाता मां सरस्वती के साथ धनदाता मां लक्ष्मीजी की भी पूजा का विधान है. इस व्रत के प्रभाव से आपके घर में मां लक्ष्मी का वास होता है और धन, वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है. पौरांक कथाओं के अनुसार इस दिन दो देवियों की पूजा से सोया हुआ भाग्य जाग जाता है आपके भीतर दिव्यता का संचार होता है. तो चलिए सबसे पहले आपको बसंत पंचमी और माता लक्ष्मी का नाता बताते हैं.
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जब श्री कृष्ण ने पांडवों को बताई थी बसंत पंचमी पर माँ लक्ष्मी क्वे चमत्कार की कथा
पांडव जब कौरवों के हाथों जुए में हारते जा रहे थे तो युधिष्ठिर ने चिंतित होकर भगवान कृष्ण से माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए विधिवत पूजा, तप और जप के बारे में पूछा. तब भगवान कृष्ण ने सुर और असुरों से जुड़ी इस कथा के बारे में बताया.
प्राचीन काल में भृगु मुनि की पुत्री के रूप में जन्मी माता लक्ष्मी का विवाह विष्णुजी से हो गया. उसके बाद संपूर्ण देवता कुल में आनंन ही आनंद था. सभी देवता संपन्न हो गए और समृद्धता से रहने लगे. देवताओं को आनंदमय रहते देखकर दैत्यों को क्रोध रहने लगा. उन्होंने भी लक्ष्मीजी की प्राप्ति के लिए तपस्या करनी शुरू कर दी. वे भी सदाचारी और धार्मिक हो गए.
लेकिन लक्ष्मीजी के पास रहने से देवताओं और असुरों दोनों को ही कुछ समय के पश्चात घमंड हो गया और उनके उत्तम आचार नष्ट होने लगे. अहंकार में आकर वे अनर्थ करने लगे. देवताओं की शीलता और असुरों का सद्भाव नष्ट होते देख लक्ष्मीजी उनके पास से चली गईं और क्षीरसागर में प्रविष्ठ हो गईं. ऐसा होने के बाद तीनों लोक श्रीविहीन होकर तेजरहित रहने लगे.
तब इंद्र देवता ने अपने गुरु बृहस्पति से श्रीप्राप्ति का उपाय पूछा और बृहस्पति ने इंद्र को माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को व्रत रखने को कहा. उनको व्रत करते देख अन्य देवता, दानव, दैत्य, गंधर्व, राक्षस सभी व्रत करने लगे. इस व्रत के प्रभाव से सभी को फिर संपन्नता हासिल हो गई. लेकिन लक्ष्मीजी क्षीरसागर से वापस नहीं लौटी. तब देवता और दानव ने मिलकर समुद्र मंथन का उपाय सोचा. जब सुर और असुरों ने मंदार पर्वत को मथनी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर समुद्र को मथना आरंभ किया सर्वप्रथम चंद्रमा के बाद लक्ष्मीजी प्रकट हुईं. माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु के वक्षस्थल का आश्रय लिया. इस प्रकार इस व्रत के प्रभाव से संपूर्ण जगत फिर से श्रीयुक्त हो गया.
इस कथा के संपन्न होने के बाद श्री कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर को भी इस व्रत के बारे में बताया. श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को यह व्रत मार्ग शीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को करने के लिए कहा. श्री कृष्ण ने बसंत पंचमी को श्री पंचमी भी बताते हुए इस व्रत की विधि भी बताई. प्रात: सभी कार्यों से निवृत्त होकर स्नान के पश्चात व्रत को करने का संकल्प लें. फिर पितरों का स्मरण कर लक्ष्मी पूजन आरंभ करें. लक्ष्मीमाता की कमल पर आसीन प्रतिमा को स्थापित करें. तत्पश्चात विभिन्न मंत्रों के उच्चारण के साथ उनका जप करें. शाम के समय 5 विवाहित महिलाओं को भोजन मिष्ठान खिलाएं और भेंट देकर विदा करें. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जिस घर में बसंत पंचमी एवं श्री पंचमी के दिन माता सरस्वती के साथ साथ माता लक्ष्मी की भी पूजा की जाती है. उस घर में ज्ञान और ऐश्वर दोनों का वास होता है.