प्रयागराज में 43 दिनों तक चलने वाला माघ मेला जारी है. इसी के साथ कल्पवास भी शुरू हो गया है. कल्पवास की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है. मान्यता है कि प्रयाग में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प का पुण्य मिलता है. माघ मेले के दौरान संगम तट पर कल्पवास (Kalpwaas) का विशेष महत्व है. माना जाता है कि कल्पवास तभी करना चाहिए जब व्यक्ति संसारी मोह-माया से मुक्त हो गया हो और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुका हो. ऐसा इसलिए क्योंकि जब व्यक्ति जिम्मेदारियों में जकड़ा होता है तो उस पर आत्मनियंत्रण थोड़ा कठिन हो जाता है.
पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है. उनके अनुसार कल्पवासी को 21 नियमों का पालन करना चाहिए.
ये हैं नियम-
सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, सभी प्राणियों पर दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि-स्न्नान, त्रिकालसंध्या, पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु सन्यासियों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न कराना. जिनमें से ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का विशेष महत्व है.
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है ब्रह्म में विचरण करना अर्थात स्वयं ब्रह्म होने की ओर अग्रसर हो जाना. सरल शब्दों में कहा जाए तो कामासक्ति का त्याग ही ब्रह्मचर्य है. जैसे विलासिता पूर्ण व्यसनों का त्याग, गरिष्ट भोज्य पदार्थों का त्याग, कम वासना का त्याग ब्रह्मचर्य पालन के मुख्य अंग हैं.
व्रत एवं उपवास
व्रत एवं उपवास कल्पवास का अति महत्वपूर्ण अंग है| कुम्भ के दौरान विशेष दिनों पर व्रत रखने का विधान किया गया है. व्रतों को दो कोटियों में विभाजित किया गया है – नित्य एवं काम्य. नित्य व्रत से तात्पर्य बिना किसी अभिलाषा के ईश्वर प्रेम में किये व्रतों से है, जिसकी प्रेरणा अध्यात्मिक उत्थान पे होती है. वहीँ काम्य व्रत किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए किये गये व्रत होते हैं. व्रत के दौरान धर्म के दसों अंगों का पूर्ण पालन किया जाना आवश्यक होता है. मनु के अनुसार ये दस धर्म हैं – धैर्य, क्षमा, स्वार्थपरता का त्याग, चोरी न करना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धिमता, विद्या, सत्य वाचन एवं अहिंसा. इसके सम्बन्ध में एक श्लोक में वर्णन भी मिलता है.
धृतिः क्षमा दमोअस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः.
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्..
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देव पूजन
ऐसी मान्यता हैं की कुम्भ के समय देवतागण स्वयं संगम तट पर विचरण करते हैं इस समय श्रद्धा भाव से उनका ध्यान करने से कल्याण होता है. देव पूजन में श्रद्धा का भाव सर्वोपरी है, यदि भक्ति में श्रद्धा का भाव ही न हो तो वह कदापि फलदायी नहीं होती.
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दान
कुम्भ के दौरान दान का बड़ा महत्व है. यहाँ दान देने वाले एवं लेने वाले, दोनों को लाभ होता है अतः कुम्भ में दिया दान त्याग से भी श्रेष्ठ माना गया है. कुम्भ में गो-दान, वस्त्र दान, द्रव्य दान, स्वर्ण दान आदि का बड़ा महत्व है. सम्राट हर्षवर्धन तो यहाँ हर बारह वर्ष पर अपना सर्वस्व दान दे देते थे.
सत्संग
सत्संग का शाब्दिक अर्थ है सत्य की संगत में रहना. कुम्भ के समय श्रद्धालुओं को सन्तों के सानिध्य में रहना चाहिए, उनके प्रवचनों को सुनना चाहिए, निस्वार्थ भाव एवं ऊंच-नीच का आडम्बर समाप्त हो सके और मनुष्य उत्कृष्ट जीवन उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सके .
श्राद्ध एवं तर्पण
श्राद्ध से तात्पर्य श्रद्धा पूर्वक पितरों को पिण्ड दान देने से है. श्राद्धकर्म पुरोहितों के माध्यम से कराया जाने वाला कर्म है. जिसके लिए प्रयागराज में विशेषकर पुरोहित होते हैं जिनके पास श्राद्ध कर्म करवाने हेतु आये व्यक्ति की वंशावली होती है. तर्पण कर्म के लिए पुरोहित की अनिवार्यता नहीं होती यदि व्यक्ति समूचित प्रक्रिया का समस्त सम्पादन कर सकता है तो यह कर्म स्वयंद्वारा भी किया जा सकता है.
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वेणी-दान
प्रयागराज में वेणी दान का बड़ा महत्व है. इसमें व्यक्ति अपनी शिखा के बाल छोड़कर समस्त बाल गंगा में अर्पित कर देता है. ऐसी मान्यता हैं की केश के मूल में पाप निवास करता है ऐसे में लोकमान्यता है कि प्रयाग में कुम्भ मेले से बेहतर स्थान व समय वेणी दान के लिए नहीं हो सकता है. कल्पवास के दौरान साफ सुथरे श्वेत वस्त्रो को धारण करना चाहिए. पीले एव सफ़ेद रंग का वस्त्र श्रेष्ठकर होता है. इस प्रकार से आचरण कर मनुष्य अपने अंतःकरण एवं शरीर दोनों का कायाकल्प कर सकता है.
Source : News Nation Bureau