Mythological Stories: जगन्नाथ मंदिर छोड़कर क्यों चली गयी थी देवी लक्ष्मी, जानें ये पौराणिक कथा
Mythological Stories: लक्ष्मी देवी के मंदिर छोड़ने के बाद जगन्नाथ और बलराम जी को भोग नहीं मिला. भूख से परेशान होकर दोनों भाइयों ने भिक्षा मांगने का निर्णय लिया. ब्राह्मण का वेश धारण कर वे घर-घर भिक्षा मांगने लगे, लेकिन किसी ने उन्हें भिक्षा नहीं दी.
नई दिल्ली:
Mythological Stories: पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार लक्ष्मी देवी अपने भक्त श्रेया चांडाल के घर उसे आशीर्वाद देने गई हुई थी और वहां से निकलते हुए उन्हें जगन्नाथ जी और बलदेव जी ने देख लिया. अब बलराम जी को ये बात बिलकुल पसंद नहीं आई कि लक्ष्मी देवी एक चांडाल के घर में जाकर आई हैं. इसलिए उन्होंने आदेश दिया कि वो लक्ष्मी देवी को श्री मंदिर से बाहर निकाल दें. अब बेचारे जगन्नाथ जी फंस गए. बड़े भाई की आज्ञा मानना जरूरी था इसलिए उन्होंने लक्ष्मी देवी का क्रोध मोल लिया और आखिर लक्ष्मी देवी अपने सारे ऐश्वर्य और सेवकों के साथ मंदिर छोड़कर चली गई. अब अगले दिन सुबह बलदेव जी प्रातः कालीन भोग की प्रतीक्षा कर रहे थे लेकिन कोई ये भोग लेकर नहीं आया. उन्होंने जगन्नाथ जी से पूछा, क्या बात है आज भोग लाने में इतना विलंब क्यों हो रहा है? तो जगन्नाथ जी ने अपने पेट पर हाथ रख कर उदास मुख से उत्तर दिया, भैया आज से कोई भोग नहीं आएगा क्योंकि लक्ष्मी देवी अपने सेवकों के साथ ये मंदिर छोड़कर चली गई हैं. जब बलराम जी ने ये सुना तो उन्होंने सोचा अच्छा चलो कोई बात नहीं, अच्छी बात है. अगर लक्ष्मी देवी ने भूल की है तो प्रायश्चित तो करना पड़ेगा. कोई बात नहीं हम स्वयं अपना भोग बनाएंगे.
ये सोचकर जगन्नाथ जी और बलराम जी ने रसोई गृह में प्रवेश किया. अब वहां जाकर देखा तो पूरा भंडारगृह खाली पड़ा हुआ था. ना तो कोई सब्जी तरकारी है और ना ही अन्न सामग्री और अब इतनी देर में दोनों भाइयों को अत्यंत भूख भी लग गई तो उन्होंने सोचा कि चलो किसी के घर से भिक्षा ही मांग लेते हैं. यह सोचकर उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया और घर घर जाकर भिक्षा मांगने लगे ताकि कोई उन्हें पहचान ना सके. उनके पास से लक्ष्मी देवी तो चली गई थी, इसलिए उनके चेहरे भी मलिन हो गए थे और कोई भी उन्हें देखना भी पसंद नहीं कर रहा था. ऐसे में उन्हें भिक्षा कौन देता? ऐसे में लक्ष्मी देवी की आज्ञा से सूर्य देव ने अपनी धूप का प्रकोप भी बढ़ा दिया. परिणाम स्वरूप जगन्नाथ जी और बलराम जी को तपती हुई धूप में रेत पर चलना पड़ रहा था.
भूख और प्यास से परेशान उन्होंने दूर एक तालाब देखा, लेकिन जैसे ही वहां पहुंचे तालाब का पानी सूख गया, हताश होकर वह एक पेड़ के पास गए. उन्होंने सोचा, इसके कुछ कोमल पत्ते हैं, उसी को खाकर पेट भर लेते हैं. लेकिन जैसे ही उन्होंने पत्ते तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो वे सारे पत्ते सूख के नीचे गिर गए और इस प्रकार पूरा दिन बीत गया. संध्या हो गई लेकिन ना तो कुछ खाने के लिए मिला और ना ही पीने के लिए पानी. आखिर थक हार के वे एक मंदिर के पास पहुंचे जहां अभी अभी प्रसाद वितरण हो रहा था. उन्होंने कुछ लोगों को विनती की कि उन्हें कुछ प्रसाद खाने के लिए दे दिया जाए. लेकिन आप तो जानते ही हैं लक्ष्मी देवी का क्रोध, कोई भी उन्हें भोजन देने को तैयार नहीं हो रहा था, ऐसे में एक वृद्ध स्त्री को उन पर दया आ गई. उस स्त्री ने करुणावश दोनों भाइयों को एक छोटे से पात्र में कुछ मुरमुरे दे दिए. इस प्रसाद को देखकर वे दोनों प्रसन्न हो गए.
लेकिन, लक्ष्मी देवी इतनी आसानी से उन्हें यह प्रसाद कैसे खाने दें, जैसे ही उन्होंने इस प्रसाद को लेने के लिए हाथ उठाए, उसी समय तेज हवा बहने लगी और सारा प्रसाद उड़कर बिखर गया. आखिर वे दोनों भाइयों ने थक हार के किसी से पूछा कि भाई, हमें बहुत भूख लगी है. क्या आप हमें बता सकते हैं कि इस समय हमें कहां भोजन मिल सकता है? तो किसी ने उनसे कहा अवश्य वो देखिए वो चाँद डालो का गांव है वहां पर एक बड़ी करूणामय स्त्री रहती है. वे पुण्यशाली और दानी भी है. वे अवश्य आपको भोजन देगी.
ये सुनकर जगन्नाथ और बलराम जी उस गांव में उस स्त्री के घर गए. स्त्री ने प्रेमपूर्वक उनका आदर सत्कार किया और उनसे कहा कि वो अभी उनके लिए भोजन बनाकर ला रही है, लेकिन अब देखिए ये तो हमारे बलराम जी हैं उनकी इच्छा नहीं थी कि वे उसके हाथ से बना हुआ भोजन करें, इसलिए उन्होंने उस स्त्री से कहा नहीं, नहीं, अपना भोजन हम स्वयं पकाएंगे इसलिए आप कृपया हमारे लिए भोजन तैयार करने की व्यवस्था कर दीजिए. स्त्री ने कहा, ठीक है जैसी आपकी इच्छा ये कहकर उसने घर में एक स्थान पर नया चूल्हा बनाकर दिया. स्वच्छ और नए बर्तन लाकर रखें. और बलरामजी की इच्छा अनुसार सारी व्यवस्था कर दी. अब बलराम जी ने जगन्नाथ जी से कहा कि तुम भोजन बनाओ, मैं स्नान करके आता हूँ.
यह कहकर प्रसन्न होते हुए बलरामजी चले गए स्नान करने और पीछे छोड़ गए हमारे प्यारे जगन्नाथजी को. अब जगन्नाथजी भी अपने भाई की आज्ञा मानकर बैठ गए भोजन पकाने के लिए लेकिन क्या करें भोजन तो तब बनेगा ना जब चूल्हा जलेगा. उन्होंने इतना प्रयास किया इतना प्रयास किया लेकिन चूल्हा जल ही नहीं रहा था. बलराम जी स्नान करके वापस आए. अभी तो ये सोचकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे की चलो अच्छा है अब आखिर कर कुछ खाने के लिए मिलेगा. लेकिन जैसे ही वे जगन्नाथ जी के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा की अभी तक जगन्नाथ जी ने कुछ भी नहीं बनाया था तो उन्होंने जगन्नाथ जी की अच्छी खासी डांट लगा दी.
ये क्या कर रहे हो तुम तुमसे एक चूल्हा भी नहीं जलता है, इतना समय हो गया और अभी तक तुम चूल्हे पर बर्तन नहीं रख पाए हो, चलो हटो यहां से लाओ, मैं खुद ही भोजन पकाता हूं, दे दो मुझे सारी सामग्री.
ये कहकर बलराम जी खुद बैठ गए चूल्हे में आग जलाने के लिए. लेकिन आश्चर्य की बात ये थी कि जैसे जैसे वे आग जलाने का प्रयास करते, उल्टा आग की जगह धुआं उठने लगता. बहुत बार प्रयास करने के बाद भी वे चूल्हा नहीं जला पाए. पूरा घर धुएं से भर गया. सभी लोग खांसने लगे और आखिरकार उन दोनों की आंखों में से पानी बहने लगा. अब तक हार के जगन्नाथ जी और बलदेव जी ने उस घर की स्त्री से कहा कि वही कुछ खाने के लिए उन्हें दे दें. वह स्त्री उन दोनों भाइयों के लिए भोजन लेकर आई जैसे ही उन्होंने यह भोजन खाया तो उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि वो भोजन सच में स्वादिष्ट था और उसका स्वाद भी कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था.
ये भोजन बिल्कुल वैसा था जैसा लक्ष्मी जी उनके लिए बनाती थीं और भोजन के अंत में उन्हें एक विशेष मिष्ठान परोसा गया. जब उसे जगन्नाथ जी और बलराम जी ने खाया तो उन्हें अत्यंत आश्चर्य हुआ क्योंकि ये वही विशेष मिष्ठान था जो लक्ष्मी देवी स्वयं उनके लिए प्रतिदिन बनाती थी और इसके विषय में और किसी को जानकारी नहीं थी. तो स्त्री ने यह मिठाई कैसे बना दी थी उनके लिए यह देखकर दोनों भाइयों को विश्वास हो गया कि हो ना हो इस घर में लक्ष्मी देवी अवश्य रहती हैं और यह भोजन भी उन्हीं के द्वारा बनाया गया था. अन्यथा इस घर की स्त्री को कैसे पता चलता कि भोजन के बाद जगन्नाथजी और बलराम जी एक विशेष मिष्ठान लेते हैं तो बस अब उन दोनों भाइयों को अपनी भूल का एहसास हुआ और खासकर के बलरामजी को.
अब वे ठहरे बड़े भाई तो इसलिए लक्ष्मी देवी से सीधे तो बात कर नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने जगन्नाथ जी से कहा कि वे लक्ष्मी देवी के पास जाकर उनसे क्षमा मांगे और उनका हाथ पकड़ कर उन्हें मंदिर में लेकर आए. उन्होंने जगन्नाथ जी के द्वारा लक्ष्मी देवी को ये भी संदेश भिजवाया की आज के बाद लक्ष्मी देवी की जहां इच्छा हो वहां वे जा सकती हैं. उन्हें कभी भी अपने भक्तों से मिलने के लिए रोका नहीं जाएगा. अपने बड़े भाई की आज्ञा पाकर हमारे प्यारे जगन्नाथजी आ गए अपनी रूठी हुई पत्नी लक्ष्मी देवी को मनाने के लिए.
उनके इस प्रकार मनाने पर लक्ष्मी देवी संतुष्ट हो गयी और वापस श्री मंदिर में जाने के लिए तैयार हो गयी. लक्ष्मी देवी ने जगन्नाथ जी को वचन दिया की जगन्नाथ जी के महाप्रसाद के लिए कभी भी कोई ऊंच नीच का भेदभाव नहीं किया जाएगा चाहे वो ब्राह्मण हो या चांडाल दोनों को समान रूप से जगन्नाथ महाप्रसाद दिया जाएगा और वे दोनों एक ही थाली में भोजन कर सकते हैं.
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(Disclaimer: यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं. न्यूज नेशन इस बारे में किसी तरह की कोई पुष्टि नहीं करता है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)
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