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रावण बनना भी आसान नहीं, श्रीराम को दिया 'लंका विजय' का आशीर्वाद

लंकाधिपति रावण ने अयोध्यापति श्रीराम का धुर विरोधी होने के बावजूद बाह्मण आचार्य पद का सम्मान रखते हुए 'लंका विजय यज्ञ' का आशीर्वाद दिया था.

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Nihar Saxena
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Raavan SriRam

श्रीराम कोे दिया था लंका विजयी भवः का आशीर्वाद.( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था. उसे भविष्य का पता था. वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है. ऐसे में जब श्रीराम ने खर-दूषण का सहज ही वध कर दिया, तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं...
खर दूसन मो सम बलवंता।
तिनहि को मरहि बिनु भगवंता।।

सत्य जानने की वजह से ही लंकाधिपति रावण ने अयोध्यापति श्रीराम का धुर विरोधी होने के बावजूद बाह्मण आचार्य पद का सम्मान रखते हुए 'लंका विजय यज्ञ' का आशीर्वाद दिया था. बात तब की है जब सीताहरम के बाद श्रीराम वानरों की सेना लेकर लंका पर चढ़ाई करने के लिए रामेश्वरम समुद्र तट पर पहुंचे. युद्ध में विजय के लिए 'लंका विजय यज्ञ' के लिए देवताओं के गुरु बृहस्पति को बुलावाने भेजा गया, मगर उन्होंने आने में अपनी असमर्थता व्यक्त की. इसके बाद विजय यज्ञ पूर्ण कराने के लिए जामवंत को रावण के पास आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया. स्वयं रावण को राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवंत ने मुस्कराते हुए कहा था 'मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूं. मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूं. उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है.' रावण ने सविनय कहा, 'आप हमारे पितामह के भाई हैं. इस नाते आप हमारे पूज्य हैं. आप आसन ग्रहण करें.

'कम्ब रामायण' में है वर्णन
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के उत्तराधिकारी शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने बताया कि 'वाल्मीकि रामायण और 'तुलसीकृत रामायण' में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' रामायण मे इस कथा का उल्लेख मिलता है. इसके अलावा कम्ब रामायण और बंगाल में प्रचलित 'कृत्तिवास रामायण' में भी इसका वर्णन मिलता है. 'कम्ब रामायण' तमिल साहित्य की सर्वोत्कृष्ट कृति एवं एक बृहत् ग्रंथ है. उन्होंने तमिल भाषा में लिखी रामायण के आधार पर कहा कि जामवंत ने आसन ग्रहण कर रावण से कहा कि वनवासी राम सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं. इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है. मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूं. 

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रावण ने स्वीकार किया आचार्यत्व
प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति के बाद रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया, 'क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है.' जवाब मिला, 'बिल्कुल ठीक. श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है.' जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना और आचार्य बनने योग्य जाना है. क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे? रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा, 'आप पधारें. यजमान उचित अधिकारी है. उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है. राम से कहिएगा कि मैंने उनका आचार्यत्व स्वीकार किया.'

सीता जी को बताई बात और दिया आशीर्वाद
जामवंत को विदा करने के तुरंत बाद लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुंचे. शास्त्रों के अनुसार जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके उसका जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है. रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए. अशोक उद्यान पहुंचते ही रावण ने सीता से कहा, 'राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है. यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है. तुम्हें ज्ञात है कि अर्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं. विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना.' जानकीजी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया. यह देख स्वस्थ कंठ से 'सौभाग्यवती भव' कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया. सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा. आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुंचे.

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श्रीराम ने भी प्रणाम कर किया अभिवादन
वनवासी श्रीराम ने सम्मुख होते ही आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया. हालांकि 'दीर्घायु भव, लंका विजयी भव' दशग्रीव के इस आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया. मामले को समझ रावण ने कहा, 'यह आशीर्वाद आचार्य ब्राह्मण रावण ने अपने यजमान वनवासी राम को दिया न कि लंकाधिकपति राजा रावण ने अपने धुर विरोधी अयोध्यापति श्रीराम को दिया है.' रामायण में प्रसंग है कि भूमि शोधन के उपरांत रावणाचार्य ने कहा कि यजमान, अर्धांगिनी कहां है, उन्हें यथास्थान आसन दें. 

सीताजी के बिना यज्ञ कैसे!
श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान संपादन कर सकते हैं. इस पर रावण ने कहा, 'अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है. प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं. यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था. इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है. इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो?' इस पर राम ने पूछा, 'कोई उपाय आचार्य?'

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पुष्पक में बैठी सीताजी को लाए विभीषण
इस पर रावण ने कहा, 'आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं. अगर स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं.' श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया. श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे. आचार्य रावण ने सीताजी से कहा, 'अर्ध यजमान के पाश्र्व में बैठो अर्ध यजमान'. आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया. गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरांत आचार्य ने पूछा, 'लिंग विग्रह'. श्रीराम ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं. अभी तक लौटे नहीं हैं, आते ही होंगे.

सीताजी ने बालू से बनाया लिंग-विग्रह
रामायण में वर्णित है कि आचार्य ने आदेश दे दिया कि विलम्ब नहीं किया जा सकता. उत्तम मुहूर्त उपस्थित है. इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले. जनक नंदिनी ने स्वयं समुद्र तट की आद्र्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया. यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया. श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया. आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया. 

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मृत्यु शैय्या पर उपस्थित रहने को कहा
अनुष्ठान समाप्त होने के बाद श्रीराम ने पूछा, 'आचार्य आपकी दक्षिणा'. आचार्य के शब्दों ने फिर चौंकाया. रावण ने कहा, 'घबराओ नहीं यजमान. स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती. आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है'. इस पर श्रीराम ने कहा लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी मांग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है. तब रावण ने कहा 'आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे.' आचार्य ने यही अपनी दक्षिणा मांगी. 'ऐसा ही होगा आचार्य.' यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी.

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