सनातन - इस शब्द का अर्थ होता है वह जो हमेशा से है, अनन्तकाल तक बना रहने वाला, अविनाशी और अक्षर है. इसका उपयोग धर्म, संस्कृति, या अन्य विषयों को स्थायी, अनंत और नित्यता के साथ संबोधित करने के लिए किया जाता है. यह शब्द हिंदी भाषा में प्रचलित है और धार्मिक और सांस्कृतिक संदेशों को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है. सनातन धर्म एक ऐसा धर्म है जो भारतीय सभ्यता के भाग के रूप में जाना जाता है. यह धर्म अनादि और अनंत होता है, जिसमें स्थिति का नाश और पुनर्जन्म की अवधारणा होती है. सनातन धर्म की शिक्षाओं में धर्म, दान, यज्ञ, तप, और कर्म के विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यासों को माना जाता है. इस धर्म में जीवन की मूलभूत नीतियों, मानवता के उद्देश्य, और आत्मा के मोक्ष के लिए मार्ग पर कई ग्रंथों में विस्तार से विवेचन किया गया है.
अथ धर्मजिज्ञासा साधनार्थं सनातनं धर्मं गमिष्यामि। (भगवद्गीता ४.७)
श्लोक का अर्थ है कि हे अर्जुन! अब मैं साधन के लिए सनातन धर्म को प्राप्त करने जा रहा हूँ। धर्मजिज्ञासा का अर्थ है धर्म की जानकारी प्राप्त करना और साधन का अर्थ है उसे पाने का साधन करना. यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय ४ के प्रारम्भिक श्लोकों में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धर्म के महत्व की बात करते हैं और उन्हें सनातन धर्म को प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं.
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। (भगवद्गीता ४.७)
श्लोक का अर्थ है कि हे भारत! जब-जब धर्म का अधर्म और न्याय का अन्याय होता है, तब-तब मैं स्वयं को रूपांतरित करके सम्भावित होता हूँ। यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय ४ के आगे के श्लोकों में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके कर्तव्य का आह्वान करते हैं और धर्म की रक्षा के लिए समर्पित होने की प्रेरणा देते हैं.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। (भगवद्गीता २.४७)
श्लोक का अर्थ है कि तुम्हारा कर्तव्य कर्म करने में है, फल की चिंता मत करो। यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय २ के शुरुआती श्लोकों में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धर्मयुद्ध में समर्थ करने के लिए कर्मयोग का उपदेश देते हैं.
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। (भगवद्गीता २.४८)
श्लोक का अर्थ है कि हे धनंजय! कर्मों में योगवश कर्तव्य कर्म करो, संग से त्याग करके। यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय २ के शुरुआती श्लोकों में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हैं.
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। (भगवद्गीता २.१३)
श्लोक का अर्थ है कि जिस प्रकार इस शरीर में कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही यहां देही (आत्मा) का भी कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्था होती है। यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय २ के शुरुआती श्लोकों में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमितानुभूति का उपदेश देते हैं.
आपदां पहुंचने पर मनुष्य अपनी अद्भुत बुद्धि का परिचय करता है (महाभारत)
"आपदां पहुंचने पर मनुष्य अपनी अद्भुत बुद्धि का परिचय करता है" श्लोक का अर्थ है कि जब मनुष्य कठिनाईयों का सामना करता है, तो उसे अपनी अद्वितीय बुद्धि का अनुभव होता है और वह अपनी शक्तियों का संचय करता है। यह श्लोक महाभारत महाकाव्य के वनपर्व (अध्याय ३६५) में स्थित है.
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। (मनुस्मृति ३.५५)
श्लोक का अर्थ है कि जहाँ महिलाएं पूज्य होती हैं, वहाँ देवता भी आनंदित होते हैं। इस श्लोक में महिलाओं की महत्ता और सम्मान को व्यक्त किया गया है.
श्रीकृष्ण उवाच योग कर्मसु कौशलं। (भगवद्गीता २.५०)
श्लोक का अर्थ है कि श्रीकृष्ण ने कहा, कर्मों में योग का कौशल है। यह श्लोक भगवद्गीता के अध्याय २ के प्रारम्भ में है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हैं।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:। (भगवद्गीता ३.५)
इस श्लोक का अर्थ है कि शरीर के संगी के बिना कर्मों को सम्पूर्णतः त्यागना असम्भव है। यह भगवद्गीता के अध्याय ३ के आरंभिक श्लोकों में है, जहां भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग के महत्व का उपदेश देते हैं.
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। (भगवद्गीता ४.७)
श्लोक का अर्थ है कि जब-जब धर्म का अधर्म होता है, तब-तब भारत में अस्तित्व की स्थिति खराब हो जाती है। यह भगवद्गीता के अध्याय ४ के आगे के श्लोकों में है.
Source : News Nation Bureau