देश की राजधानी दिल्ली में इस बार भी सरकार ने पटाखों पर बैन लगा दिया है. अगर कोई पटाखे बेचते हुए पकड़ा गया तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है. आपको बता दें कि दिवाली हिंदू त्योहारों में से एक महत्वपूर्ण त्योहार है और इस अवसर पर पूरे देश में पटाखे जलाए जाते हैं, लेकिन दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण हर बार की तरह इस बार भी पटाखे खरीदने, बेचने और जलाने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया है. तो आज हम पटाखों से जुड़ी अहम जानकारी देंगे कि दिल्ली में पटाखों ने पहली बार कब दस्तक दी थी.
दिल्ली और पटाखों का क्या है इतिहास?
अगर इतिहास के पन्नों को पलटते हैं तो पता चलता है कि पटाखे जालने की संस्कृति इस्लामी साम्राज्यों के उदय के साथ-साथ हुई थी. वहीं, पटाखों के अहम भाग बारूद की खोज 9वीं शताब्दी में चीन में हुई थी. इसके बाद से ही पटाखे बनाने की कला लोगों के पास आई. अब सवाल ये है कि दिल्ली में पटाखे कैसे आए, इसके पीछे भी एक इतिहास है. कहा जाता है कि जब मंगोलों ने चीन पर हमला किया तो उन्हें बारूद जैसी चीज़ के बारे में पता नहीं था. इसी दौरान मंगोलों को पता चला कि यह बारूद है.
दिल्ली में पटाखों ने कब बनाई जगह?
जब मंगल लोग भारत आने लगे तो वे अपने साथ यह बारूद भी लेकर आये. इसके बाद 13वीं शताब्दी के मध्य में इसकी शुरुआत दिल्ली सल्तनत में हुई यानी यहीं से बारूद ने दिल्ली में अपनी जगह बनाई, लेकिन सवाल अभी भी बना हुआ है कि इस बारूद ने पटाखों का रूप कब लिया. इतिहासकारों के मुताबिक, इतिहासकार फ़रिश्ता ने अपनी किताब तारीख-ए-फ़रिश्ता में बताया है. उन्होंने मार्च 1258 में घटी एक घटना का ज़िक्र किया है. उन्होंने बताया कि पहली बार मंगोल शासक हुलगू खान के दूत के स्वागत में पटाखों का इस्तेमाल किया गया था.
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दिवाली पर पटाखें जलान की इतिहास?
इतिहासकार ये भी दावा करते हैं कि उनके स्वागत में करीब 3,000 कार्ट लोड पटाखे लाए गए थे. पटाखों को फारसी में सेह हजार अररादा-ए-आतिशबाजी भी कहा जाता है. यानी तभी से दिल्ली में पटाखों ने अपनी जगह बना ली. तो एक और सवाल ये बनता है कि आखिरकार दिवाली पर ही पटाखें जलाने का इतिहास क्या है? कई इतिहासकारों का दावा है कि दिवाली पर पटाखे जलाने की परंपरा मुगल काल में शुरू हुई थी.
Source : News Nation Bureau