संगम और त्रिवेणी (Triveni sangam)वास्तव में एक ही स्थान है जहां गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम होता है. यह दुर्लभ संगम विश्व प्रसिद्ध है. गंगा, यमुना के बाद भारतीय संस्कृति में सरस्वती को महत्व अधिक मिला है. हालांकि गोदावरी, नर्मदा, सिंधु, कावेरी तथा अन्यान्य नदियों का भी सनातन मत में महत्व है. मगर वरिष्ठता के हिसाब से गंगा पहले, यमुना दूसरे और सरस्वती को तीसरा स्थान देते हैं. सरस्वती नदी के साथ अद्भुत ही बात है कि प्रत्यक्ष तौर पर सरस्वती नदी का पानी कम ही स्थानों पर देखने को मिलता है. इसका अस्तित्व अदृश्य रूप में बहता हुआ माना गया है. पदम पुराण में ऐसा माना गया है कि जो त्रिवेणी संगम पर नहाता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है. जैसे ग्रहों में सूर्य तथा तारों में चंद्रमा है वैसे ही तीर्थों में संगम को सभी तीर्थों का अधिपति माना गया है तथा सप्तपुरियों को इसकी रानियां कहा गया है. त्रिवेणी संगम होने के कारण इसे यज्ञ वेदी भी कहा गया है.
महापर्व में विभिन्न अखाड़ों के साधु अपनी शिष्य मंडली सहित पूरे स्नान पर्वों के दौरान उपस्थित रहते हैं. प्रथम स्नान से लेकर अंतिम स्नान तक रामायण, महाभारत, मद्भागवत, वेद, उपनिषदों तथा पुराणों के आख्यान सुनने को मिलते हैं. इस बार त्रिवेणी संगम पर महाकुंभ का मेला होगा.
क्या है त्रिवेणी संगम और उससे प्रचलित कहानी
गंगा जी, यमुना जी एवं अदृश्य सरस्वती जी का मिलन ही तीर्थराज प्रयागराज की पुण्यभूमि पर त्रिवेणी संगम कहलाता है. कहते हैं जब गंगा एवं यमुना के संगम की बात चली तब गंगा जी ने यमुना जी से मिलने से मना कर दिया कारण पूछने पर पता चला की गंगा जी यमुना जी के विशद क्षेत्र एवं गहराई से चिंतित हैं. उन्हें यह डर था कहीं यमुना जी से मिलने से उनका अस्तित्व न समाप्त ही जाए इसपर यमुना जी हँस पड़ी और उन्होंने गंगा जी को आश्वस्त किया कि संगमोपरान्त गंगा जी ही पूर्ण-रूप से जानी जायेंगी. इस विषय में एक और कथा प्रचलित है कि जब सूर्य-सुता यमुना एवं गंगा के संगम की चर्चा हो रही थी तब गंगा जी ने यमुना जी के श्याम रंग के कारण उनसे मिलने से इनकार कर दिया था.
इस पर भगवान् भास्कर अत्यधिक नाराज़ हुए और उन्होंने गंगा जी को कलयुग में मैला एवं मृत शरीर ढ़ोने का श्राप दे दिया. इस पर गंगा जी बहुत व्यथित हुयी, उन्होंने अपनी पीड़ा भगवान् विष्णु को बताई. विष्णु जी ने कहा कि वे भगवान् भास्कर का श्राप तो नहीं लौटा सकते परन्तु यह वरदान देते हैं कि बिना गंगा के जल के कोई भी पुण्यकर्म पृथ्वी पर पूर्ण नहीं माना जायेगा. साथ ही उन्होंने यमुना जी को वरदान दिया कि तुम्हारा जल अक्षयवट के सम्पर्क में आते ही पापनाशक हो जायेगा.
इसपर गंगा जी बहुत प्रसन्न हुई एवं बोली अब यमुना जी के मिलन से मेरी महत्ता भी बढ़ जाएगी. सरस्वती जी भी अक्षयवट के महत्व को समझते हुए प्रभु आज्ञा से इस संगम में आ गई. प्रयागराज के इस अद्वितीय त्रिवेणी संगम का महत्व इस कारण भी है कि, ब्रम्हा जी ने यहाँ भगवान् शिव को इष्ट मान कर यज्ञ किया था जिसकी रक्षा स्वयं भगवान् विष्णु माधव रूप में कर रहे थे. दूसरा, कालान्तर में इसे ही पृथ्वी का केंद्र भी माना गया है. ऐसे में तीर्थराज प्रयागराज एवं त्रिवेणी संगम का महत्त्व स्वतः ही अत्यधिक बढ़ जाता है.
यह भी पढ़ें- Kumbh Mela 2019: कब-कब हैं स्नान के प्रमुख दिन जानें यहां
महाभारत में साठ करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में बताये गये हैं, जिनमें से अधिकांश तीर्थों का आधार संगम ही है. मान्यता है कि अधिकांश तीर्थ स्वयं गंगा जी एवं यमुना जी द्वारा लाये गये थे. पृथ्वी के जिस कण पर इनका जल पड़ता है वह स्थान स्वतः ही तीर्थ हो जाता है. सम्भवतः यही कारण है कि आदिकाल से जिस स्थान को ये धाराएँ पवित्र करती हैं, माघ माह में उसी पर सन्यासी आराधना करते हैं. चाहे वह महाकुम्भ का अवसर हो या कुम्भ मेले का अथवा हर साल लगने वाले माघ मेले का, उसी स्थान को आराधना के लिए उपयुक्त माना गया है जहाँ तक जल पहुंचा है. तीर्थ-स्थलों पर जिन पञ्चकर्मों स्नान, दान, ब्रम्ह्भोज, उपवास, परिक्रमा का विधान है वे सभी संगम पर अति-फलदायक होते हैं.
विभिन्न ग्रंथों में संगम स्नान का अलग-अलग महत्व बताया गया है. ब्रम्ह पुराण के अनुसार संगम स्नान से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है तथा मत्स्य पुराण के अनुसार दस करोड़ तीर्थों का फल मिलता है. महाभारत में एक सूक्त संगम में स्नान के फल स्वरुप प्राप्त पुण्य को राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों के पुण्यफल के बराबर बताया गया है.
तत्राभिषेकं यः कुर्यात् संगमे लोकविश्रुते.
पुण्यं स फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयों:
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में विभिन्न तिथियों पर स्नान के भी अलग अलग फल बताये गये हैं. जैसे अमावस्या पर स्नान करने से अन्य दिनों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक फल प्राप्त होता है. संक्रांति में स्नान करने से हज़ार गुणा, सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण के समय स्नान करने से सौ लाख गुणा. यदि सोमवार के दिन चन्द्र ग्रहण या रविवार को सूर्य ग्रहण पर स्नान किया जाए तो अपार पुण्यफल की प्राप्ति होती है. दान व समर्पण का महात्म्य स्वयं कृष्णप्रिया यमुना से परिलक्षित होता है जो अपनी विशालता एवं अपने सर्वस्व का त्यागकर प्राणि मात्र के कल्याण के निमित्त गंगा में समाहित हो जाती है. यही त्याग और समर्पण ही संगम का मूल है, जैसा कि सम्राट हर्षवर्धन का दान अति-विशिष्ट एवं प्रचिलित है, वे प्रत्येक बारहवें वर्ष संगम तट पर लगने वाले कुम्भ में अपना सर्वस्व दान कर देते थे.
साथ ही माघ मास के दौरान कल्पवासी आदिकाल से ही ब्रम्ह्भोज, उपवास एवं प्रयागराज में स्थित तीर्थों की परिक्रमा करतें आ रहे हैं. इन सब के साथ ही संगम पर मुंडन का विधान है. मान्यता है कि संगम तट पर मुंडन से अनेक विघ्न बाधाएं स्वतः ही दूर हो जाती हैं.
Source : News Nation Bureau