किसी भी देश और समाज के विकास की कल्पना महिलाओं की उचित भागीदारी के बिना नहीं की जा सकती है. जिसका सीधा असर उस देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है. भारत जैसे देश में संसद हो या कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी या कोई और क्षेत्र, हर जगह महिलाएं कम ही दिखती हैं. वैसे इस बार लोकसभा में सबसे अधिक संख्या में महिलाएं चुनकर आयी हैं. लेकिन पुरूषों की अपेक्षा अभी भी इनकी संख्या बहुत कम है, कुछ ऐसी ही स्थिति कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी की भी है. जिसमें महिलाओं की कार्यकुशलता और शिक्षा में वृद्धि के बाद भी गिरावत दर्ज की गई है. आंकड़ों के मुताबिक पिछले कुछ वक्त में लगभग 11 मिलियन नौकरियां समाप्त हो गई जिसमें से 8.8 मिलियन वो थीं जिनपर महिलाएं कार्यरत थीं.
यह कहना है ब्रेकथ्रू (Breakthrough) कि सीईओ और प्रेसीडेंट सोहिनी भट्टाचार्य का, मौका था स्वंयसेवी संस्था ब्रेकथ्रू (Breakthrough) द्वारा संगठिन क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी विषय पर पैनल डिस्कशन का, जिसमें डेवलपमेंट, सोशल, समुदाय और कार्पोरेट क्षेत्र के दिग्गज चर्चा के लिए शामिल हुए. इरोज होटल में आयोजित इस कार्यक्रम में कार्यबल में महिलाओं की स्थिति,चुनौतियां और उपाय पर चर्चा हुई. जिसमें विशेषज्ञों ने कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के उपाय भी सुझाए.
यह कहना है ब्रेकथ्रू कि सीईओ और प्रेसीडेंट सोहिनी भट्टाचार्य का, मौका था स्वंयसेवी संस्था ब्रेकथ्रू द्वारा संगठिन क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी विषय पर पैनल डिस्कशन का, जिसमें डेवलपमेंट, सोशल, समुदाय और कार्पोरेट क्षेत्र के दिग्गज चर्चा के लिए शामिल हुए. इरोज होटल में आयोजित इस कार्यक्रम में कार्यबल में महिलाओं की स्थिति,चुनौतियां और उपाय पर चर्चा हुई. जिसमें विशेषज्ञों ने कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के उपाय भी सुझाए.
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कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि इंटरनेशनल लेबर आर्गनाइजेशन (ILO) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर भी कार्यबल में पुरूषों की हिस्सेदारी जहां 75 फीसदी है वहीं महिलाओं की 49 फीसदी और कई जगह तो दोनों के बीच का अंतर पचास प्रतिशत से भी अधिक है. हाल ही आए एनएसएसओ (NSS0) के आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण एशिया जिसमें भारत भी शामिल है, संगठित क्षेत्र में पेड वर्क फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों और हर आयु वर्ग में उनकी कार्यकुशला में सुधार होने के वावजूद भी तेजी से घटी है.
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CMIE 2018 की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं में बेरोजगारी की दर प्रति 100 महिलाओं पर जहां 15.7 महिलाएं हैं वहीं पुरूषों में यह दर 5.4 देखी गई. इसी कड़ी में 11 मिलियन नौकरियां जाने का सबसे अधिक नुकसान महिलाओं को हुआ ,क्योंकि इन खोई नौकरियों में 8.8 मिलियन नौकरियां महिलाओं की थीं. वर्ड इकोनामिक फोरम की एक स्टडी के मुताबिक ग्लोबल जेंडर गैप के मामले में 135 देशों की सूची में भारत का नंबर 87 है. प्रीक्योरमेंट लीडर की 2017 की रिपोर्ट भी बताती है कि सभी जरूरी योग्यता के बाद भी सीनियर लेवल पर सिर्फ 10 फीसदी ही महिलाएं पहुंच पाती हैं. लेटेस्ट मॉनस्टर सैलरी इंडेक्स (MSI) के मुताबिक, देश में मौजूदा जेंडर पे गैप यानी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को 19 फीसदी कम वेतन मिलता है यानी पुरुष महिलाओं की तुलना में हर घंटे 46 रुपये 19 पैसे ज्यादा पाते हैं. कार्यक्रम का संचालन ब्रेकथ्रू की अनिका ने किया.
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इसके बाद “भारत में संगठित क्षेत्र के कार्यबल में महिलाओं की घटती हिस्सेदारी” विषय पर पहले पैनल की चर्चा की शूरआत करते हुए महिला मुद्दों पर लंबे समय से काम कर रही सुनीता धर ने कहा कि कामकाजी महिलाओं की संख्या 417 मिलीयन हो गई है लेकिन ये आंकड़े हमें मिश्रित संकेत देते हैं क्योंकि आज भी औसतन महिलाओं का वेतन पूरूषों के वेतन का दो तिहाई है. हमें कार्यबल में महिलाओं की भागेदारी से साथ ही उनके अन्य काम को भी वैल्यू देने की जरूरत है.
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उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए एक्शन एड की कुमकुम कुमार ने कहा कि महिलाएं वैतनिक, अवैतनिक और अंडरपेड तीनों जगहों पर काम करती दिखती हैं, हमने देखा है कि महिलाएं काम करने जा रही थीं, तो भी उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां कम नहीं हुई, वैतनिक और अवैतनिक कामों के बीच फंसी महिलाओं के बीच अपने लिए मुश्किल से ही समय होता है. ऐसे में शिक्षा व कार्यकुशलता में वृद्धि की तो कोई गुंजाइश नही बचती.
लेखक, प्रकाशक और जुबान की निदेशक, उर्वशी बुटालिया ने बताया कि कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी को हम अलग नहीं रख सकते हैं उनका विश्लेषण करना होगा और रास्ते व साधन तलाशनें होगें और जिससे उनकी भागीदारी बढ़ाई जा सके. जरूरी है कि हम यह ध्यान रखें कि क्या हम सही साधनों का उपयोग कर रहे हैं, फार्मल वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर सिर्फ आर्थिक तर्क दिये जाते हैं. यहां तक कि कुर्सी जिस पर हम बैठे हैं वो भी पुरूषों को ध्यान में रख कर डिजाइन की गई है.
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चर्चा को आगे बढ़ाते हुए महिला मुद्दों पर लंबे समय से लिखने वाली स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित ने कहा कि बिहार में 400 बच्चों का मिड डे मील बनाने वालों को 37 रूपये एक दिन के मिलते हैं जबकि बिहार में न्यूनतम मजदूरी 370 रूपये प्रतिदिन है. साफ है उनको प्रतिदिन न्यूनतम मजदूरी का सिर्फ 10वां हिस्सा मिलता है. पूरूष कम सैलरी वाली नौकरी नहीं करते हैं जबकि महिला कम सैलरी पर भी नौकरी कर लेती है. आशा और आंगनवाड़ी वर्कर को ऑफिशियल वर्कर के रूप में मान्यता नहीं है.
सामाजिक सुरक्षा, जॉब सिक्योरिटी
दूसरा सेशन ‘जेंडर पे गैप और ग्लास सीलिंग’ पर था, चर्चा की शूरूआत करते हुए की ऊनोमंत्रा की शिल्पा अजवानी ने कहा कि सिर्फ भारत में सबसे ज्यादा ग्रेजुएट महिलाएं कार्य बल से बाहर हैं, ये इशारा है कि हम उनकी भागीदारी को तैयार नहीं हैं. फ्रंटलाइन की टी.के. राजलक्ष्मी ने कहा कि महिलाओं को व्यक्तियों/ नागरिकों के रूप में देखा जाना चाहिए दान के योग्य नहीं. जब हम उन्हें पूर्ण कार्यकर्ता के रूप में देखते हैं तो यह उन्हें बराबरी का दर्जा देने का यह पहला कदम हैं आगे हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि महिलाएं भी सभ्य जीवन यापन के योग्य है वे सिर्फ परिवार के आय का साधन या पूरक नहीं है. आईकिया की प्रियंका संघर्ष ने चर्चा में शामिल होते हुए कहा कि अपने कैरियर में महिलाओं के लिए तीन प्रमुख पड़ाव है जब उनकी शादी होती है,जब उनके बच्चे होते हैं और जब माता-पिता बीमार होते हैं. हमें खुद पर ध्यान देना चाहिए और साथी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करना चाहिए.
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फिक्की की अर्चना गरोडिया गुप्ता ने बताया कि जब परिवार के लड़के बिजनेस शुरू करने की बात करते है तो उन्हें पूरा सहयोग और संसाधन मिलता है जबकि लड़की अगर बिजनेस करने की बात करती है तो कहते हैं छोटे से शुरू करो, और अगर वो फाइनेंस के लिए बैंक जाती है तो उसके नाम पर कोई प्रापर्टी न होने की वज़ह से वहां से भी उसे मदद नहीं मिलती है. आईआईएम अहमदाबाद की लगभग 50 फीसदी ग्रेजुएट काम नहीं कर रहीं कारण बच्चों की देखभाल है.
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ब्रेकथ्रू की दितिप्रिया ने कहा कि किसी भी संस्थान लैंगिक समानता लाने के लिए मैनेजमेंट के स्तर पर ईमानदार और प्रभावी पहल की जरूरत है. इसके बिना हम वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं बढ़ाई जा सकती है. तीसरा सत्र संगठित क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कैसे बढ़ाएं पर था जिसमें विशेषज्ञों ने इस स्थिति से बाहर निकलने के रास्ते बताए और अपने अनुभव साझा किये. इस सत्र का संचालन यूएन वूमेन की सूहेला खान ने किया.
तीसरा सत्र संगठित क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कैसे बढ़ाएं पर था जिसमें विशेषज्ञों ने इस स्थिति से बाहर निकलने के रास्ते बताए और अपने अनुभव साझा किये. इस सत्र का संचालन यूएन वूमेन की सूहेला खान ने किया.
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फेयरवियर की सुहासिनी सिंह ने कहा कि महिलाओं नौकरी से मिलने वाली आय से उनका गुजारा तो चल जाता है लेकिन आत्मसम्मान के साथ काम करने लायक आय नही होती है, उन्हें सशक्त बनाने की जरूरत है कि वो अपने वेतन को लेकर मोल-भाव कर सकें.
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गौरी शर्मा ने कहा कि फैक्ट्री में जेंडर सेंसटाइजेशन की जरूरत तो है ही लेकिन उनकी ट्रेनिंग भी मानव केंद्रित तरीके से डिजाइन की जानी चाहिए.
आज़ाद फाउंडेशन की अमृता गुप्ता ने कहा कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का एक प्रभावी उपाय जेंडर आधारित बाजार, सामाजिक मान्यताओं को तोड़कर, गैर परंपरागत व्यवसाय को महिलाओं के लिए प्रमोट करना है.
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ब्रेकथ्रू की सुनीता मेनन ने कहा कि महिलाओं के अनपेड वर्क को पेड वर्क के रूप में मान्यता देने की जरूरत है जिससे जीडीपी में भी इजाफा होगा. साथ ही सामान काम के लिए समान वेतन दिया जाना चाहिए और कार्यों का विभाजन जेंडर के आधार पर नहीं होना चाहिए. पीएफ, मैटरनिटी लीव पॉलिसी जैसी सुविधाएं असंगठित क्षेत्र के लिए भी शुरू करने की जरूरत है.
Source : News Nation Bureau