2014 के बाद से लगातार कांग्रेस का कद छोटा होता जा रहा है. पिछली बार की तरह इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई. कभी राष्ट्रीय फलक पर छाने वाली कांग्रेस आज फर्श पर बिखरी पड़ी है. कांग्रेस की बागदोर संभाल रहे राहुल गांधी भी अब इस डोर को छोड़ने के लिए बेचैन है. लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए अड़े हैं. सवाल यह है कि कांग्रेस के पास राहुल गांधी का विकल्प कोई है भी कि नहीं.
एक वक्त था जब कांग्रेस के पास एक से बढ़कर एक दिग्गज नेताओं की भरमार थी पर नब्बे का दशक आते-आते ज्यादातर नेता या तो हाशिये पर धकेल दिए गए या उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बना ली. इसकी वजह थी पार्टी में उनकी उपेक्षा. 1991 में जब राजीव गांधी के निधन के बाद नरसिंह राव की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी तो ऐसा लगा कि पार्टी नेहरू गांधी परिवार की छाया से बाहर निकल पाएगी.
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उसी दौरान सीताराम केसरी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया पर पार्टी में गुटबाजी इतनी बढ़ी कि केसरी को इस्तीफा देना पड़ा. बाद के वक्त में माधव राव सिंधिया और राजेश पायलट जैसे दिग्गज नेताओं के असमय निधन ने पार्टी में गैर नेहरू-गांधी परिवार के विकल्प को और कमजोर कर दिया.
आज की तारीख में पार्टी में कोई भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता तो नेतृत्व संभाल सके. ज्यादातर नेता या तो बुजुर्ग हो चुके हैं या फिर विरासत की सियासत की देन हैं. दिग्जिवय सिंह और अशोक गहलोत सरीखे नेता भी पार्टी में अपना असर खो चुके हैं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे नेताओं के पास अनुभव की कमी है और वो सिर्फ राज्य विशेष के नेता बनकर रह गए हैं. ऐसे में सोनिया गांधी या राहुल गांधी के सिवा फिलहाल पार्टी के पास दूसरा कोई चेहरा ऐसा नहीं दिखता जिसकी अगुवाई में पूरी पार्टी एकजुट होकर रह सके.
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राहुल के विकल्प की भी बात होती है तो प्रियंका गांधी का ही नाम लिया जाता है. यानी इन्हीं तीन चेहरों के ईर्द गिर्द पूरी कांग्रेस पार्टी घूम रही है. दरअसल कांग्रेस के ज्यादातर नेता खुद ही नहीं चाहते कि उनका नेता नेहरू-गांधी परिवार से इतर कोई दूसरा चेहरा हो. ऐसा होने पर पार्टी में फूट और मनमुटाव तेज होने लगता है,. इसके पीछे की सोच शायद ये है कि मैं नहीं तो तू भी नहीं.
जाहिर है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र इतना मजबूत नहीं कि वो नेहरू-गांधी परिवार से अलग कोई दूसरा चेहरा अपने नेतृ्त्व के लिए चुन सके.