17वीं लोकसभा का गठन हो चुका है...बीजेपी इतिहास रचते हुए 303 सीटों के साथ संसद पहुंची है और अगर उसके सहयोगी दलों का आंकड़ा मिला दे तो वो 353 तक पहुंच जाती हैं. यानी इस बार कांग्रेस समेत अन्य दलों के पास मिलकर महज 189 सीट बच जाती है. जिसमें कांग्रेस छोड़कर सिर्फ क्षेत्रीय पार्टियों की संख्या गिने कुछ के खाते में 1-2 सीट आएंगे तो कुछ के खाते जीरो पर सिमट गए. सवाल यह उठता है कि जिन क्षेत्रीय दलों के बिना केंद्र में सरकार नहीं बनती थी, वहीं आज अपने अस्तित्व को भी बचाने में नाकामयाब होते दिखाई दे रहे हैं. आखिर क्यों क्षेत्रिय पार्टी बिखर गई हैं...आइए समझते हैं.
ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व जातिगत समीकरणों पर टिका हैं, जैसे समाजवादी पार्टी यादव और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे राजनीति के मैदान में उतरी. उनके सहारे कई बार सत्ता की कुर्सी तक भी पहुंची. केंद्र की सरकार बनाने में अहम भूमिका भी अदा की.
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वहीं, बीएसपी दलित वोट बैंक की सियासत करती है और इन्हें के सहारे मायावती उत्तर प्रदेश की कमान भी संभालीं. लेकिन इस बार ना तो समाजवादी पार्टी कोई कमाल दिखा पाई और ना ही बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी). बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित वोटों को साधकर एसपी-बीएसपी गठबंधन को मात दे दी.
बिहार के क्षेत्रीय दलों की बात करें तो आरजेडी और उसकी सहयोगी पार्टियों को भी जातिगत वोट बैंक पर भरोसा था. आरजेडी को यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर भरोसा था तो जीतन राम मांझी की पार्टी हम को दलित वोट पर. इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलसपी वोट बैंक कुशवाहा जाति थी और मुकेश सहनी की वीआईपी को सहनी वोट बैंक पर यकीन था पर एनडीए ने सवर्ण वोट के साथ साथ कुर्मी-कोइरी वोट बैंक के सहारे महागठबंधन को मात दे दी. इसके अलावा मुसलमानों में पसमांदा समाज और दलितों में महादलित वोट साधने में भी एनडीए कामयाब रहा. इसके साथ ही गैर यादव ओबीसी वोट भी एनडीए के खाते में चले गए जिससे उसे बिहार में बड़ी कामयाबी की.
इसी तरह पश्चिम बंगाल के तृणमूल कांग्रेस की बात करें तो ममता बनर्जी को मुस्लिम वोट पर ज्यादा भरोसा था. इसके जवाब में बीजेपी ने रामनवमी और दुर्गापूजा को मुद्दा बनाते हुए हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण किया. साथ ही आदिवासी वोट बैंक को भी फोकस किया. जिसका उसे बड़ा फायदा मिला.
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यहीं हाल है देश के अन्य हिस्सों में बने क्षेत्रीय पार्टियों की भी रही. क्षेत्रीय पार्टियां देश की जनता का मूड समझने और खुद में बदलाव करने में भी असफल दिखाई दी. हम भारत भर में देखें तो उत्तर से दक्षिण तक कई क्षेत्रीय पार्टियां हैं जो वंशवाद पर चल रहा है. चाहे वो लालू-मुलायम या चंद्राबाबू की पार्टी की बात हो या फिर पूर्वी हिस्से में बीजू जनता दल में ऐसा बहुत कम दिखाई देता है कि नेताओं की दूसरी, तीसरी बेंच मौजूद वहां हो. यह सभी दल ज्यादातर एक ही नेता या एक ही परिवार के आसपास घूमते हैं. क्षेत्रीय पार्टियां अपने पुराने धर्रे पर चली आ रही थी वो ये भूल गई थी भारत में नई सोच की नई पीढ़ी तैयार हो चुकी हैं और उन्हें उनकी तरह से समझना और उन्हें अपने पक्ष में करना होगा. वो क्षेत्रीय पार्टियां जो अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी हुई हैं उन्हें अब अलग तरह की राजनीति करना पड़ेगा.