कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित परिवार में 6 जुलाई 1901 को जन्मे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukharjee) ने देश में राजनीति की अलख जगायी थी. डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukharjee) ने नेहरू (Pt. jawahar Lal Nehru) और गांधी जी की तुष्टीकरण की नीति का खुलकर विरोध किया. उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी विख्यात शिक्षाविद् थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक और 1921 में बीए की उपाधि ली. 1923 में लॉ की पढ़ाई करने के बाद वह विदेश चले गए. 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर लौटे. पिता के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए महज 33 साल की उम्र में वो भी कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए.
22 वर्ष की आयु में उन्होंने एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की. सुधादेवी से उनका विवाह हुआ. सिर्फ 24 साल की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने. गणित में उनकी गहरी रुचि थी. सो, गणित के अध्ययन के लिए विदेश चले गए. लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी ने उनको सम्मानित सदस्य बनाया. वहां से लौटने के बाद डॉ मुखर्जी ने वकालत शुरू कर दी. साथ ही विश्वविद्यालय को भी सेवा देने लगे.
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1939 से राजनीति में भाग लिया और आजीवन इसी में लगे रहे. उन्होंने गांधी जी व कांग्रेस की नीति का विरोध किया, जिससे हिन्दुओं को हानि उठानी पड़ी थी. एक बार आपने कहा कि वह दिन दूर नहीं जब गांधी जी की अहिंसावादी नीति के अंधानुसरण के फलस्वरूप समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जाएगा. अगस्त, 1947 को स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में उन्होंने वित्त मंत्रालय का काम संभाला. उन्होंने चितरंजन में रेल इंजन का कारखाना, विशाखापट्टनम में जहाज बनाने का कारखाना एवं बिहार में खाद कारखाना स्थापित करवाये.
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वर्ष 1950 में भारत की दयनीय दशा से उनके मन को गहरा आघात लगा. उन्होंने भारत सरकार की अहिंसावादी नीति के विरोध में मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद संसद में विरोधी पक्ष की भूमिका निभाने लगे. डॉ मुखर्जी को एक ही देश में दो झंडे और दो निशान मंजूर नहीं थे. इसलिए उन्होंने भारत में कश्मीर के विलय की कोशिशें शुरू की. इसके लिए जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन भी किया.
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मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल में साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी. साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी. ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो. अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया. 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया. डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं.
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इसलिए धर्म के आधार पर विभाजन के वे कट्टर विरोधी थे. वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी. हम सब एक ही रक्त के हैं. एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है. परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया. अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई.
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डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे. उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था. वहां का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था. संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की. अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा. उन्होंने तात्कालिन नेहरू (Pt. jawahar Lal Nehru) सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे. अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े. वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया. 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी.
HIGHLIGHTS
- डॉ मुखर्जी को एक ही देश में दो झंडे और दो निशान मंजूर नहीं थे
- जम्मू कश्मीर पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया
- 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी