प्राचीन महाकाव्य करार दिए गए 'महाभारत' में कृष्ण की नगरी द्वारका का उल्लेख है. लंबे समय तक एक बड़ा तबका 'महाभारत' को महज एक पौराणिक ग्रंथ ही मानता रहा. द्वारका के अस्तित्व को स्वीकारने की तो बात ही बहुत दूर थी. हालांकि बदलते समय के साथ सामने आए सबूतों खासकर गुजरात के पास समुद्र में प्राचीन शहर के भग्नावशेषों की बरामदगी न सिर्फ 'महाभारत' ग्रंथ को पुष्टि देती है, बल्कि यह भी स्थापित करती है कि कृष्ण की नगरी द्वारिका कभी उन्नत संस्कृति का हिस्सा थी. ये भग्नावशेष प्राचीन समृद्ध भारत खासकर वैदिक दौर के आधुनिक भारत के बीच एक सीधा संबंध स्थापित करते हैं. समुद्र के गर्भ में समाये इस शहर का आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से किया गया अध्ययन बताता है कि यह कम से कम 9 हजार साल पुराना है. तो भगवान श्रीकृष्ण के जन्मदिन का उत्सव का प्रतीक जन्माष्टमी पर आइए जानते हैं कि कैसी थी प्राचीन द्वारका और क्या था उसका महत्व. इसके साथ ही जानेंगे कि कैसे यह शहर हमारे सामने आया?
1963 में मिले पहले अवशेष
1963 में सबसे पहले द्वारका नगरी के अवशेषों की खोदाई डेक्कन कॉलेज पुणे, डिपार्टमेंट ऑफ़ आर्कियोलॉजी और गुजरात सरकार ने मिलकर शुरू की. एच.डी. संकलिया की अगुवाई में इस खोदाई में शुरुआती तौर पर कुछ बर्तन मिले, जो वैज्ञानिक जांच के बाद करीब 3 हजार साल पुराने पाए गए. इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ही एक ईकाई मरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट ने देश के ख्यात प्राप्त पुरात्तवविद् डॉ एस.आर. राव के नेतृत्व में 1979 में दोबारा खोदाई शुरू की. यहां फिर से कुछ प्राचीन बर्तन मिले, जिन्हें लस्ट्रस रेड वेयर के नाम से जाना जाता है. इससे उत्साहित होकर अरब सागर में तत्कालीन प्रधानमंत्री की मंजूरी के बाद गहनता से खोदाई का काम शुरू किया गया. एक बार फिर ऐसे सबूत मिले जो बताते थे कि समुद्र के तल में कोई बेहद उन्नत सभ्यता के चिन्ह छिपे हुए हैं.
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खोज रहे थे प्रदूषण मिल गया प्राचीन शहर
इसके बाद 2001 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशिनोग्राफी के छात्रों ने खम्भात की खाड़ी में बढ़ते प्रदूषण पर काम शुरू किया. उन्हें केंद्र सरकार ने काम शुरू करने को कहा था. यह अलग बात है कि प्रदूषण की जांच करते हुए इन छात्रों को मिट्टी और बालू से सने पत्थरों से बनी इमारतों के दीदार हुए. ये भग्नावशेष 5 मील में फैले हुए थे. इसके साथ ही गोताखोरों को कलाकृतियां, इमारतों के तराशे स्तंभ और तांबे और कांसे के सिक्के मिले. मोटे तौर पर इन्हें 3,600 साल पुराना माना गया. सही उम्र पता लगाने के लिए कुछ नमूनों को मणिपुर और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भेजा गया. वहां कार्बन डेटिंग तकनीक से पता चला कि कुछ नमूने 9 हजार साल पुराने हैं. इस तरह श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका के सबूत दुनिया के सामने आ सके. खम्भात में जो भग्नावशेष मिले वह 7500 ईसा पूर्व के कालखंड के थे. यानी अब तक घोषित किसी भी प्राचीन सभ्यता से कहीं पुरानी सभ्यता के.
समुद्र मंथन का पर्वत भी मिला
गौरतलब है कि दक्षिण गुजरात के समुद्र में 130 फीट की गहराई में शोधार्थियों को मिली नगर संरचना विलुप्त हो चुकी भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी का एक हिस्सा है. ये नगर रचना 9 हजार साल पुरानी द्वारका नगरी ही है. 1988 में इसी समुद्र क्षेत्र में ऑकिर्योलॉजी एंड ओशन टैक्नोलॉजी विभाग को समुद्र के गर्भ एक पर्वत मिला था. ये पर्वत समुद्र मंथन के वक्त इस्तेमाल में लाए गए शिखर का हिस्सा होना बताया जाता है. रिसर्च टीम की अगुवाई में जांच दल के सदस्य पुरातत्व विशेषज्ञ समुद्र में 800 फीट तक गए. उन्होंने इस प्राचीन नगर को देखा. रिसर्च टीम का कहना है कि द्वारिका एक बड़ा राज्य था. खम्भात और कच्छ की खाड़ी नहीं थी. यहां जमीन थी. मौजूदा द्वारिका से लेकर सूरत तक पूरी समुद्र क्षेत्र में एक दीवार देखने में आती है. यह कृष्ण का राज्य था. सूरत के पास मिली रचना द्वारिका से मिलती है.
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अब तक 250 नमूने मिले
नर्मदा नदी के मुख्य स्थल से 40 किमी दूर और तापी नदी के मुख्य स्थल के पास अरब सागर के उत्तर-पश्चिम में प्राचीन नगर के अवशेष मिले थे. तब 130 फीट गहराई में 5 मील लंबे और करीब 2 मील चौड़ाई वाला 9 हजार साल पुराना नगर मिला था. मरीन आर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट ने दो साल की रिसर्च में 1000 नमूने खोजे, जिनमें से 250 पुरात्तव महत्व की अहमियत रखते हैं.
पौराणिक मान्यताएं
ऐसी मान्यता है कि मथुरा छोड़ने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका में एक नया नगर बसाया. इसका प्राचीन नाम कुशस्थली था. अनेक द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारका पड़ा. इस शहर के चारों तरफ से कई लम्बी दीवारें थी, जिनमें कई दरवाजे थे. ये दीवारें आज भी समुद्र की गर्त में हैं. बताया जाता है कि कृष्ण अपने 18 साथियों के साथ द्वारका आए थे. यहां उन्होंने 36 साल तक राज किया. इसके बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए. भगवान कृष्ण के विदा होते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई और यादव कुल नष्ट हो गया.
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क्या दो श्राप से डूबी द्वारका?
द्वारका के समुद्र के समाने के पीछे धार्मिक पौराणिक मान्यताएं दो श्रापों की जिम्मेदार ठहराती हैं. पहले श्राप की कथा के मुताबिक महाभारत युद्ध के बाद कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराया. उन्होंने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि जिस तरह कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार पूरे यदुवंश का भी नाश होगा. हालांकि दूसरे श्राप की कहानी में पहले के साथ-साथ दूसरी घटना का जिक्र है. प्रचलित कहानियों के मुताबिक, माता गांधारी के अलावा दूसरा श्राप ऋषियों द्वारा श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को दिया गया था. दरअसल, महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका पहुंचे. वहां यादव कुल के कुछ युवकों ने ऋषियों से मजाक किया. वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है. इसके गर्भ से क्या पैदा होगा? ऋषि अपमान से क्रोधित हो उठे और उन्होंने श्राप दिया कि श्रीकृष्ण का यह पुत्र ही यदुवंशी कुल का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल बनाएगा, जिससे अपने कुल का वे खुद नाश कर लेंगे.
दो भाग में है द्वारकापुरी...
वर्तमान में गोमती द्वारका और बेट द्वारका एक ही द्वारकापुरी के दो भाग हैं. गोमती द्वारका में ही द्वारका का मुख्य मंदिर है, जो श्री रणछोड़राय मंदिर या द्वारकाधीश मंदिर के नाम से मशहूर है. यह मंदिर लगभग 1500 वर्ष पुराना है. मंदिर सात मंजिला है. इस मंदिर के आस-पास बड़े हिस्से मे जल भरा है. इसे गोमती कहते हैं. इसके आस-पास के कई घाट हैं, जिनमें संगम घाट प्रमुख है. इस मंदिर में भगवान की काले रंग की चार भुजाओं वाली मूर्ति है. इसके अलावा मंदिर के अलग-अलग भागों में अन्य देवी-देवताओं के मंदिर एवं मूर्तियां स्थित है. मंदिर के दक्षिण में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा मठ भी है. माना जाता है कि यदुवंश की समाप्ति और भगवान श्रीकृष्ण की जीवनलीला पूर्ण होते ही द्वारका समुद्र में डूब गई. इस क्षेत्र का प्राचीन नाम कुशस्थली था. धार्मिक दृष्टि से द्वारका को सप्तपुरियों में गिना जाता है.
HIGHLIGHTS
- श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर जानते हैं कि कैसी थी प्राचीन द्वारका और क्या था महत्व.
- अनेक द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारका पड़ा.
- गुजरात के पास समुद्र में मिले भग्नावशेष 9 हजार साल पुराने हैं.