पाकिस्तान की देखा-देखी चीन के प्रभाव में अब नेपाल (Nepal) के सुर भी भारत के खिलाफ बिगड़ने लगे हैं. कोरोना संक्रमण (Corona Epidemic) पर मूर्खताभरे विवादास्पद बयान से लेकर लिपुलेख (Lipulekh) रोड समेत अपने नक्शे में भारतीय इलाकों को दिखाने का दुस्साहस करने के बाद नेपाल एक कदम और आगे निकल गया है. उसने अब भारतीय सीमा से लगी एक ऐसी रोड पर काम शुरू किया है, जो नेपाल की चीन तक सड़क मार्ग से पहुंच तो सुगम बनाएगी, लेकिन भारत के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित होगी. खास बात यह है कि बेहद दुर्गम रास्ता होने की वजह से एक दशक से भी अधिक समय से इस सड़क का काम रोक दिया गया था. अब नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली (KP Sharma Oli) की शह पर इस सड़क का निर्माण कार्य फिर से शुरू होने जा रहा है. जानकारों की मानें तो केपी ओली अंदरूनी राजनीति में दबाव बढ़ने के बाद इस तरह की हरकतें कर रहे हैं.
12 साल बाद सड़क निर्माण का काम शुरू
कह सकते हैं कि केपी शर्मा ओली खुले तौर पर भारत के खिलाफ जा चीन की गोद में जा बैठे हैं. यहां यह भूलना नहीं होगा कि भारत-नेपाल के बीच रोटी-बेटी के संबंध रहे हैं. इसे दरकिनार कर नेपाल ने शायद भारत के साथ तनाव को बढ़ाने का मन बना लिया है. यही वजह है कि पहले उसने भारत के इलाकों को अपने आधिकारिक नक्शे में दिखाया. इसके बाद सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भारतीय सीमा से लगी एक रोड पर 12 साल बाद काम शुरू करा दिया है. यह सड़क उत्तराखंड के धारचूला कस्बे से होकर गुजरती है. करीब 130 किलोमीटर लंबी धारचूला-टिनकर रोड का 50 किलोमीटर का हिस्सा उत्तराखंड से लगा हुआ है. जानकारी के मुताबिक, इस प्रोजेक्ट की अनुमति 2008 में दी गई थी. मकसद था टिनकर पास के जरिए नेपाल और चीन के बीच व्यापार को बढ़ावा देना. रोड का बाकी बचा हिस्सा अब नेपाल की सेना पूरा करेगी. जाहिर है सीमा के पास से गुजरने के कारण सामरिक दृष्टि से यह इलाका भी खासा संवेदनशील हो जाएगा.
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चीन की पहुंच आसान हो जाएगी
माना जा रहा है कि धारचूला से लिपुलेख दर्रे को जोड़ने वाली 80 किलोमीटर लंबी रोड के उद्घाटन के बाज नेपाल ने यह कदम उठाया है. गौरतलब है कि भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को तवाघाट-लिपुलेख मार्ग का उद्घाटन किया था. उन्होंने कहा था कि इससे कैलास मानसरोवर जाने के लिए पहले से कम वक्त लगेगा. यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 12 साल के बाद नेपाल इस सड़क का निर्माण शुरू करा रहा है. पहले दौर में सिर्फ 43 किलोमीटर रोड ही बन सकी थी. इसकी वजह सिर्फ यही है कि इस रूट की भौगोलिक स्थितियां न सिर्फ बेहद खतरनाक है बल्कि यहां के मौसम का भी कोई भरोसा नहीं रहता है. सूत्र के मुताबिक, लगातार नुकसान होता देख कॉन्ट्रैक्टर ने भी काम छोड़ दिया था. नेपाल सरकार का यह मानना था कि इस रोड के बन जाने से ना सिर्फ व्यापार बढ़ेगा, बल्कि तीर्थयात्रियों और टूरिस्ट्स की संख्या भी बढ़ेगी.
ड्रैगन की कुटिल चालें शुरू
कोरोना संक्रमण के दौर में चीन भारत के बढ़ते कद औऱ कदमों पर रोक लगाने के लिए अपनी पुरानी कुटिल चालों पर उतर आया है. इसके तहत वह अपने पिट्ठुओं यानी पाकिस्तान-नेपाल के बलबूते भारत के लिए परेशानियां खड़ा कर रहा है. जाहिर है इन दोनों ही देशों में चीन की बहुत गहरे तक पैठ है. इस कड़ी में चीनी राजदूत ने नेपाल की राजनीति में अपनी घुसपैठ का असली परिचय दो सप्ताह पहले दिया था जब उन्होंने काठमांडू में नेपाली राजनेताओं को एक विशेष बैठक में बुलाकर कहा कि प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली के खिलाफ विद्रोह नहीं करें. चीनी राजदूत की बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड जैसे अन्य राष्ट्रीय नेता शामिल थे जिन्हें भी अपने अस्तित्व का संकट झेलना पड रहा है इसलिये उन्होंने भी नेपाली राजदूत की बात मान ली. साफ है कि चीन का नेपाली राजनेताओं पर दबदबा इतना बढ़ गया है कि वे नेपाली राजनीतिज्ञों को निर्देश दे सकते हैं कि सरकार कैसे और किसकी अगुवाई में चलानी है.
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ओली नाचने लगे चीन की धुन पर
इसी का नतीजा है कि नेपाली प्रधानमंत्री ने लिपुलेख दर्रा के इलाके को अपना इलाका बताने और किसी भी तरीके से इसे भारत से छीन लेने का संकल्प नेपाली विधान सभा को सम्बोधित करते हुए लिया है. नेपाल सरकार ने नेपाल का नया मानचित्र भी जारी किया जिसमें कालापानी, लिम्पियाधुरा –लिपुलेख के इलाके को नेपाल का हिस्सा दर्शाया गया है. भारत का दावा है कि लिपुलेख इलाका शुरू से ही भारत के अधीन रहा है और इस बारे में नेपाल का दावा गलतफहमी की वजह से है. इसके पहले नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली ने कोरोना संक्रमण पर बेवकूफी भरा बयान दिया था. उन्होंने कहा कि नेपाल में भारत से आया कोरोना संक्रमण कहीं ज्यादा शक्तिशाली है, जबकि अन्य देशों से आए संक्रमण के मामले काफी हल्के थे.
थलसेना प्रमुख कर चुके हैं आगाह
संभवतः नेपाल के संभावित रुख को समय रहते भांप कर कुछ दिनों पहले भारतीय थलसेना प्रमुख जनरल मुकुंद नरवाणे ने एक बैठक को सम्बोधित करते हुए कहा कि नेपाल किसी के इशारे पर भारत के साथ विवाद खडा कर रहा है. जनरल नरवाणे ने किसी देश का नाम नही लिया लेकिन उनका इशारा साफ था कि नेपाल चीन के भड़काने पर भारत के साथ विवादों को तुल दे रहा है. इसका एक नतीजा यह होगा कि भारत औऱ नेपाल के रिश्तों में भारी दरार पैदा होगी और भारत का डर दिखाकर चीन अब नेपाल को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में दबोच लेगा. ठीक वैसे ही जैसे उसने पाकिस्तान को अपने चंगुल में ले लिया है. पाकिस्तान की तरह नेपाल भी एक दिन यही कहने लगेगा कि वह चीन का सदाबहार दोस्त है और दोनों देशों के बीच सदियों पुराने रिश्ते रहे हैं.
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कभी भारत के समर्थक थे ओली
ओली कभी भारत समर्थक कहे जाते थे. ऐसा माना जाता है कि नेपाल की राजनीति में उनका रुख़ भारत के पक्ष में कभी हुआ करता था. 1996 में भारत और नेपाल के बीच हुए ऐतिहासिक महाकाली संधि में ओली की बड़ी भूमिका मानी जाती है. ओली 1990 के दशक में नेपाल में कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे. वो 2007 तक नेपाल के विदेश मंत्री भी रहे थे. इस दौरान ओली के भारत से काफ़ी अच्छे ताल्लुकात थे. अब ओली के बारे में कहा जा रहा है कि वो उनका झुकान चीन की तरफ़ ज़्यादा है. हालांकि नेपाल एक संप्रभु राष्ट्र है और वो अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर स्वतंत्र है. केपी शर्मा ओली फ़रवरी 2015 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे. वो तब से तीन बार भारत आ चुके हैं. वो अपने चुनावी अभियान में चीन के साथ सहयोग बढ़ाने और भारत पर निर्भरता कम करने की बात कह चुके हैं.
अब कई मसलों पर भारत की खिलाफत
नेपाल के नए संविधान पर भारत के असंतोष पर नेपाल की ओली सरकार कहती रही है कि यह उसका आंतरिक मामला है. भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुए पीस एंड फ्रेंडशिप संधि को लेकर ओली सख़्त रहे हैं. उनका कहना है कि संधि नेपाल के हक़ में नहीं है. इस संधि के ख़िलाफ़ ओली नेपाल के चुनावी अभियानों में भी बोल चुके हैं. सितंबर 2015 में ओली के भारत के ख़िलाफ़ रुख़ अख्तियार करने की वजह अघोषित नाकाबंदी भी थी. यह वह वक़्त था जब नेपाल में महज चार महीने पहले एक बड़ा भूकंप आया था. उस वक़्त भारत ने नेपाल के नया संविधान लागू करने को लेकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी. ऐसा इस वजह से था क्योंकि भारत को लग रहा था नेपाल ने नए संविधान में दक्षिणी नेपाल की तराई की पार्टियों की कई मांगों को अनसुना कर दिया था.
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ओली की मजबूरी भी है भारत विरोधी रुख
ओली के आलोचक इसे देश में कोविड-19 के ख़राब प्रबंधन के लिए हो रही उनकी आलोचना से ध्यान भटकाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं. वजह चाहे जो भी रही हो, लेकिन 1,800 किमी से भी लंबे भारत-नेपाल बॉर्डर के अहम कारोबारी बिंदुओं पर 2015 में हुई नाकाबंदी ने 1989-90 के उस बुरे दौर की याद दिला दी थी जब भारत ने दोनों देशों की सीमा के 21 में से 19 बिंदुओं को बंद कर दिया था. इस क़दम की वजह से नेपाल के लोगों को भारी आर्थिक दिक्क़तों का सामना करना पड़ा था. 1989-90 की नाकाबंदी इस वजह से हुई थी क्योंकि भारत ने नेपाल के एक अलग ट्रेड एंड ट्रांजिट डील को करने के प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था. भारत इस तरह की केवल एक डील चाहता था. उस वक़्त भारत नेपाल के तत्कालीन राज परिवार के चीन से एंटी-एयरक्राफ्ट गन ख़रीदने के फ़ैसले से भी ख़फ़ा था.
फिर भी देर है अंधेर नहीं
तीस साल बाद और नेपाल के तराई को लेकर भारत के साथ हुए तनाव के पाांच साल बाद दोनों देश एक बार फिर से आमने-सामने आ गए हैं. लिपुलेख विवाद ऐसे वक़्त पर सामने आया है जब हाल के दौर में कई उच्च-स्तरीय दौरों और लेन देन के ज़रिए दिल्ली-काठमांडू गलबहियां करते नज़र आने लगे थे. लिपुलेख विवाद के बाद नेपाल और भारत दोनों जगहों पर विदेश नीति के जानकारों ने दोनों देशों के नेताओं से तत्काल एक कूटनीतिक संवाद शुरू करने का अनुरोध किया है. इसके लिए नेपाल भी राजी दिखाई दे रहा है. नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावली कह चुके हैं कि नदी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय चर्चा शुरू करने के लिए नेपाली पक्ष तैयार है. नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने इसी हफ़्ते संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में कहा था, 'नेपाल और भारत के बेहतरीन रिश्ते रहे हैं. ये विशिष्ट और अच्छे हैं. हां, कुछ सीमाई मसलों को लेकर मुश्किलें भी हैं, लेकिन इन्हें सुलझाना नामुमकिन नहीं है. हम इन्हें हल करना चाहते हैं और अपने रिश्तों को और भी बेहतर बनाना चाहते हैं.'