भारत-चीन के बीच जारी सीमा विवाद में ताइवान (Taiwan) के राष्ट्रीय दिवस के समर्थन में दिल्ली स्थित चीनी दूतावास के दीवारों पर पोस्टर लगाए जाने से एक नया मोड़ आ गया है. इस हरकत से बीजिंग भड़क उठा है. सरकारी अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' तो पर नाराजगी जताते हुए कह रहा है कि यह आग से खेलने जैसा काम है और इससे पहले से खराब चल रहे भारत-चीन (India-China) संबंध और ज्यादा खराब होंगे. इसके पहले चीन ने ताइवान के राष्ट्रीय दिवस मानने को लेकर भारत के अखबरों में दिए गए विज्ञापन पर नाराजगी जताई थी और कहा था कि भारत को वन चाइना (One China) पॉलिसी का ध्यान रखना चाहिए. चीन ने इसलिए नाराजगी जताई क्योंकि वह ताइवान को अपना हिस्सा मानता है. इसलिए उनसे भारत समेत सभी को नसीहत देता रहता है कि ताइवान को अलग देश न बुलाया जाए.
खेल 'चाइना' का है
'पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' और 'रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' एक-दूसरे की संप्रभुता को मान्यता नहीं देते. दोनों खुद को आधिकारिक चीन मानते हुए मेनलैंड चाइना और ताइवान द्वीप का आधिकारिक प्रतिनिधि होने का दावा करते रहे हैं. जिसे हम चीन कहते हैं उसका आधिकारिक नाम है 'पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना' और जिसे ताइवान के नाम से जानते हैं, उसका अपना आधिकारिक नाम है 'रिपब्लिक ऑफ़ चाइना.' दोनों के नाम में चाइना जुड़ा हुआ है. व्यावहारिक तौर पर ताइवान ऐसा द्वीप है जो 1950 से ही स्वतंत्र रहा है. मगर चीन इसे अपना विद्रोही राज्य मानता है. एक ओर जहां ताइवान ख़ुद को स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र मानता है, वहीं चीन का मानना है कि ताइवान को चीन में शामिल होना चाहिए और फिर इसके लिए चाहे बल प्रयोग ही क्यों न करना पड़े.
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इतिहास को समझें
इस विवाद को समझने के लिए इतिहास में जाना होगा. इतिहास में झांके तो पता चलता है कि 1642 से 1661 तक ताइवान नीदरलैंड्स की कॉलोनी था. चीन में 1644 में चिंग वंश सत्ता में आया और उसने चीन का एकीकरण किया. 1895 में चिंग ने ताइवान द्वीप को जापानी साम्राज्य को सौंप दिया. हालांकि 1911 में चिन्हाय क्रांति हुई जिसमें चिंग वंश को सत्ता से हटना पड़ा. इसके बाद चीन में कॉमिंगतांग की सरकार बनी. जितने भी इलाके चिंग रावंश के अधीन थे, वे कॉमिंगतांग सरकार को मिल गए. कॉमिंगतांग सरकार के दौरान चीन का आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना कर दिया गया था. चीन और ताइवान के इस पेचीदा विवाद की कहानी शुरू होती है 1949 से. ये वो दौर था जब चीन में हुए गृहयुद्ध में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हराया था. चीन में सत्ता में आ चुके कम्युनिस्टों की नौसैनिक ताक़त न के बराबर थी. यही कारण था कि माओ की सेना समंदर पार करके ताइवान पर नियंत्रण नहीं कर सकी.
दो 'चीन' दावे एक के
कम्युनिस्टों से हार के बाद कॉमिंगतांग ने ताइवान में जाकर अपनी सरकार बनाई. इस बीच दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार हुई तो उसने कॉमिंगतांग को ताइवान का नियंत्रण सौंपा. यह हस्तांतरण दो संधियों के आधार पर हुआ. इस बीच यह विवाद उठ खड़ा हुआ कि जापान ने ताइवान किसको दिया. ऐसा इसलिए क्योंकि चीन में कम्युनिस्ट सत्ता में थे और ताइवान में कॉमिंगतांग का शासन था. 1911 में कॉमिंगतांग ने देश का नाम रिपब्लिक ऑफ़ चाइना कर दिया था और 1950 तक यही नाम रहा. 1959 में कॉमिंगतांग ने ताइवान में सरकार बनाई तो उन्होंने कहा कि बेशक चीन के मुख्य हिस्से में हम हार गए हैं फिर भी हम ही आधिकारिक रूप से चीन का नेतृत्व करते हैं न कि कम्युनिस्ट पार्टी, इसलिए हमें मान्यता दी जाए. उधर माओ ने कहा कि हमें आधिकारिक रूप से मान्यता मिलनी चाहिए. इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने मांग उठाई कि देश का यह नाम कॉमिंगतांग का दिया हुआ है और अब वे ताइवान में जाकर खुद को रिपब्लिक ऑफ चाइना ही कह रहे हैं. ऐसे में उन्होंने अपनी सरकार बनाई और देश को नया नाम दिया- पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना. इसके बाद से दोनों 'चाइना' खुद को आधिकारिक चीन बताते रहे और इसी आधार पर विश्व समुदाय से मान्यता चाहते रहे.
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मान्यता की होड़
इस बीच दुनिया की सियासत भी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. पहले ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का भी हिस्सा था. शीतयुद्ध के दौरान ताइवान को अमेरिका का पूरा समर्थन मिला हुआ था, मगर फिर हालात एकदम बदल गए. ताइवान के लिए 1971 के बाद से चीजें बदलने लगीं. अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन को पहचान दी और कहा कि ताइवान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से हटना होगा. 1971 से चीन यूएन सिक्यॉरिटी काउंसिल का हिस्सा हो गया और 1979 में ताइवान की यूएन से आधिकारिक मान्यता खत्म हो गई. तभी से ताइवान का पतन शुरू हो गया.
अमेरिका का 'ताइवान रिलेशन एक्ट'
हालांकि तब अमेरिकी कांग्रेस ने इसके जवाब में 'ताइवान रिलेशन एक्ट' पास किया जिसके तहत तय किया गया कि अमेरिका, ताइवान को सैन्य हथियार सप्लाई करेगा और अगर चीन ताइवान पर किसी भी तरह का हमला करता है तो अमेरिका उसे बेहद गंभीरता से लेगा. उसके बाद से अमेरिका का ज़ोर चीन और ताइवान दोनों ही संग अपने रिश्तों का संतुलन बनाए रखने की नीति पर रहा. ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच सबसे ज़्यादा तनाव तब देखा गया जब 1996 में ताइवान के राष्ट्रपति चुनाव को अपने तरीके से प्रभावित करने के लिए चीन ने मिसाइल परीक्षण किए जिसके जवाब में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने बड़े पैमाने पर अमेरिकी सैन्य शक्ति का प्रदर्शन किया जिसे वियतनाम युद्ध के बाद एशिया में सबसे बड़ा सैन्य प्रदर्शन कहा गया.
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दुनिया के ताइवान से संबंध
ऐसा नहीं है कि ताइवान दुनिया से पूरी तरह कट गया है और उपेक्षित हो गया है. कूटनीतिक तौर पर अकेला पड़ जाने के बावजूद ताइवान की गिनती एशिया के सबसे बड़े कारोबारी देश के तौर पर होती है. यह कंप्यूटर टेक्नोलाजी के उत्पादन के मामले में दुनिया का अग्रणी देश है और इसकी अर्थव्यवस्था भी बहुत मज़बूत है. बेशक चीन अन्य देशों से व्यवहार करते समय यह मनवाता है कि वे वन चाइना में यकीन करते हैं, फिर भी कई देश हैं जो ताइवान से रिश्ते बनाना चाहते हैं. लेकिन वे देश दूतावास नहीं बनाते. उन्होंने रिलेशनशिप ऑफिसर या कल्चर का प्रमोशन करने वाले, कारोबार को बढ़ाने वाले या सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधि बनाए हैं. डिप्लोमैटिक रिश्ते सिर्फ चीन से ही हैं.
चीन और ताइवान के आपसी रिश्ते
ताइवान की इलेक्ट्रॉनिक और इंडस्ट्री साथ ही जीडीपी अच्छी है, इसी कारण कई देश इसके प्रति आकर्षित होते हैं. उधर चीन का प्रभाव भी पिछले कुछ दशकों में बढ़ा है. प्रोफेसर स्वर्ण सिंह बताते हैं कि ताइवान और चीन के बीच व्यापारिक ही नहीं, सामाजिक संबंध भी गहरे हुए हैं. दोनों के बीच सीधी वायुसेवा और समुद्री जहाजों के माध्यम से आवाजाही होती रहती है लेकिन कई बार आक्रोश नजर आता है. चीन के दूसरे बड़े नेता शाओ पिन ने 'वन कंट्री, टू सिस्टम' का विचार रखा था और इसी विचार के आधार पर हांगकांग और मकाओ को जोड़ा गया है. हांगकांग का अलग झंडा है, पुलिस अलग है, करेंसी अलग है. मकाओ में भी काफी छूट है. मगर वे खुद को चीन का अभिन्न हिस्सा मानते हैं. मगर ताइवान के साथ ऐसा नहीं है. चीन ऐसी ही व्यवस्था की बात ताइवान से करता रहा है मगर उसे कामयाबी नहीं मिली है.