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Premchand Jayanti 2022: प्रेमचंद ने क्यों छोड़ी थी सरकारी नौकरी, अंग्रेज कलेक्टर से क्या था विवाद?

 31 जुलाई 1880 ई० को काशी के समीप लमही नामक गांव में जन्मे धनपत राय बड़े होकर हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के रूप में प्रसिद्ध हुए.

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Pradeep Singh
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मुंशी प्रेमचंद( Photo Credit : News Nation)

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कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का आज जन्मदिवस है. हिंदी साहित्य गंभीर अध्येता नहीं हिंदी माध्यम से कक्षा पांच तक भी पढ़ाई करने वाला कोई भी व्यक्ति मुंशी प्रेमचंद के नाम से अपरिचित नहीं होगा. पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा और हामिद जैसी कहानियां बच्चों से लेकर बड़ों तक झकझोरती हैं. प्रेमचंद हिंदी के ऐसे विरले लेखक हैं जो साहित्य में समाज की तमाम विडंबनाओं को सहज औऱ सरल शब्दों में उकेरने के साथ एक प्रगतिशील और यथार्थ समाज बनाने की दिशा में प्रयत्नशील दिखते हैं.

उनकी पंच- परमेश्वर कहानी की बूढ़ी खाला  जब अपनी सारी जायदाद अपने भान्जे जुम्मन शेख के नाम कर देती है, औऱ कुछ ही दिनों में जब उनका घर में अनादर होने लगता है तब वह जुम्मन के दोस्त अलगू चौधरी के पास जाती है, और पंचायत में आकर इंसाफ करने की बात करती है, इस अलगू चौधरी कहता है कि, पंचायत में तो आ जाऊंगा लेकिन जुम्मन के विरोध में कुछ नहीं बोलूंगा. क्योंकि वह मेरा दोस्त है औऱ कई कठिन परिस्थितियों में मेरा साथ दिया है.

इस पर बूढ़ी खाला कहती है-बेटा, "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?" खाला ने गम्भीर स्वर में कहा-बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता. पंच के दिल में ख़ुदा बसता है. पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह ख़ुदा की तरफ़ से निकलती है. 

बूढ़ी खाला के मुंह से यह कहलवा कर प्रेमचंद अंग्रेजों के शासन में भारतीयों को प्राचीन न्याय व्यवस्था की अच्छाइयों को बता रहे थे. प्रेमचंद सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते थे. उनके लिखने का मकसद समाज परिवर्तन था. अपनी परंपराओं में जो कुछ अछ्छा है उसे स्वीकारने के लिए प्रेरित करना था. साहित्य के साथ ही समाज के नब्ज से वह परिचित थे. उनका लेखन पराधीन भारत को स्वतंत्र कराने और स्वतंत्रता के बाद देशवासियों के सामने एक आदर्श स्थापित करने के लिए था. वह परिवार से लेकर समाज की अधिकांश बुराइयों को केंद्र में रखकर अपनी लेखनी चला चुके हैं, हर कहानी औऱ उपन्यास में वह एक समानांतर विचार रखते हैं. 

प्रेमचंद कहते हैं कि, "समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहां गुनाह होगा. अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा. प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया. उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा."

हिन्दी साहित्य की दो प्रमुख विधाओं कहानी एवं उपन्यास को साहित्याकाश में स्थापित करने का श्रेय निश्चय ही मुंशी प्रेमचंद को जाता है. उपन्यास में यथार्थवाद की जिस प्रकार से उन्होंने प्रस्तुति की वह उपन्यास को सीधे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ने के लिए आवश्यक था. यहां मैं उनके जीवन एवं कृतित्व को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं.

 31 जुलाई 1880 ई० को काशी के समीप लमही नामक गांव में जन्मे धनपत राय बड़े होकर हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के रूप में प्रसिद्ध हुए. इनके पिता का नाम अजब राय एवं माता का आनंदी देवी था. लगभग 8 वर्ष की उम्र में माता साथ छोड़ स्वर्गवासी हो गई.

1885 ई० से इन्होने विद्या अध्ययन प्रारम्भ किया. प्रारम्भ में एक मौलवी साहब से उर्दू की शिक्षा प्राप्त की फ़िर 13 वर्ष की उम्र में मिडिल स्कूल में दाखिला लिया. पूरे विद्यार्थी जीवन में संघर्ष करते हुए प्रेमचंद ने बीए की परीक्षा भी उत्तीर्ण की.

15 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया. पत्नी का स्वाभाव अत्यन्त तीक्ष्ण था. दांपत्य जीवन में क्लेश आ गया. प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा शिवरानी देवी के साथ सुखी दांपत्य जीवन जीने लगे. एक सरकारी स्कूल में अध्यापक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया तथा आगे चलकर शिक्षा विभाग के सब-इंसपेक्टर के छोड़में प्रोन्नति पाई.

महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आन्दोलन (1920) से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी छोड़ संपादन का कार्य प्रारम्भ किया. इस क्षेत्र में इन्होने 'मर्यादा', 'हंस', जागरण' तथा 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया. जीवन के अन्तिम दिनों में वे फ़िल्म क्षेत्र में कार्य करने के लिए बम्बई आ गए पर गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा. 8अक्टूबर 1936 ई० को इस महान लेखक ने अपना शरीर त्याग दिया.

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प्रेमचंद ने एक साहित्यकार के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में अपना पूर्ण योगदान दिया. अपनी पहली कहानी 'दुनिया के सबसे अनमोल रत्न' में उन्होंने मातृभूमि की सेवा में बहाए गए खून की प्रत्येक बूंद को संसार का सबसे अनमोल रत्न बताया. 1908 ई० में उनका प्रथम कहानी संग्रह सोजे-वतन प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका में प्रेमचंद ने बंग-भंग आन्दोलन को लक्ष्य करके अपने विचार रखे थे. हम्मीरपुर के कलक्टर ने शोजे वतन की शेष प्रतियां लेकर जला दी थी तथा उन्हें आदेश दिया था की प्रकाशन से पूर्व उसे वे प्रत्येक पंक्तिया दिखा दिया करें.

HIGHLIGHTS

  •  31 जुलाई 1880 को काशी के समीप लमही नामक गांव में जन्मे
  • 13 वर्ष की उम्र में मिडिल स्कूल में दाखिला लिया
  • 1908 ई में उनका प्रथम कहानी संग्रह सोजे-वतन प्रकाशित हुआ
Premchand Jayanti 2022 Munshi Premchand British collector godan namak ka daroga
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