बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में अपनाई गई रणनीति और ब्लू प्रिंट के सहारे झारखंड विधानसभा का चुनाव लड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 38 विधानसभा सीटों के उम्मीदवारों के लिए आक्रामक रैलियां कर वोट मांगे थे. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह समेत अन्य स्टार प्रचारकों ने भी समां बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कश्मीर से धारा 370 हटाने समेत अयोध्या पर सुप्रीम फैसले को बतौर उपलब्धि जोर-शोर से उछाला. यह अलग बात है कि पीएम मोदी और अन्य राष्ट्रीय मुद्दे बेअसर रहे और बीजेपी को बीते एक साल में पांचवें राज्य में सरकार से हाथ धोना पड़ा. मोटे तौर पर इस हार के कुछ कारण साफतौर पर नजर आ रहे हैं.
यह भी पढ़ेंः झारखंड में BJP को न 'राम' का मिला साथ न 'धारा 370' आई काम
सहयोगियों को बीजेपी ने किया नाराज
झारखंड में 2014 विधानसभा चुनाव बीजेपी ने अपनी सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (अजसू) के साथ मिलकर लड़ा था. उस चुनाव में बीजेपी को 37 और एजेएसयू को 5 सीटें मिली थीं. यह अलग बात है कि 2019 में बीजेपी अपने सहयोगी दलों को नजरंदाज कर अकेले ही चुनावी मैदान में उतरी. एक लिहाज से बीजेपी का यह फैसला उस पर भारी पड़ा. गौरतलब है कि झारखंड के अलग राज्य बतौर 2000 में अस्तित्व में आने के बाद से बीजेपी और अजसू साथ-साथ चुनाव लड़ रहे थे. यही नहीं, बीजेपी ने एक और सहयोगी पार्टी एलजेपी का साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया. इस कारण उसके वोट बंटे और कई सीटों पर मामूली अंतर से हार का सामना करना पड़ा.
यह भी पढ़ेंः CAA-NRC: कलकत्ता हाईकोर्ट ने ममता सरकार को लगाई कड़ी फटकार, ये काम तुरंत बंद करने को कहा
विपक्ष नेबनाया महागठबंधन
एक तरफ जहां बीजेपी ने झारखंड में एकला चलो के सिद्धांत पर अमल करते हुए अकेलेदम चुनावी समर में उतरने का फैसला किया. वहीं, झारखंड में विपक्ष ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा. नतीजा सामने है कि बीजेपी का केसरिया किला ध्वस्त हो गया. झारखंड मुक्ति मोर्चा, आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन ने सीटों का बंटवारा कर चुनाव लड़ा और बीजेपी के अकेले सरकार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया. चुनाव परिणामों में अब विपक्ष राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल करता दिख रहा है. गौरतलब है कि 2014 के चुनाव में तीनों ही दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे, लेकिन इस बार कांग्रेस ने महाराष्ट्र और हरियाणा से सबक सीखते हुए जेएमएम और आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाया.
यह भी पढ़ेंः एक बार फिर अपनी इस हकीकत को नहीं बदल पाया झारखंड
बीजेपी को अपनों से लगा झटका
झारखंड चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को अपने ही नेताओं से काफी बड़े झटके लगे. केसरिया पार्टी के बड़े नेता राधाकृष्ण किशोर ने बीजेपी का दामन छोड़कर एजेएसयू से हाथ मिला लिया. किशोर का एजेएसयू में जाना बीजेपी के लिए बड़ा झटका रहा. टिकट बंटवारे के दौरान बीजेपी ने अपने वरिष्ठ नेता सरयू राय को टिकट नहीं दिया. तिलमिलाए सरयू राय ने मुख्यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ जमशेदपुर ईस्ट सीट से ताल ठोंक दी. सोमवार को आ रहे रुझानों में सरयू राय झारखंड के सीएम और बीजेपी प्रत्याशी रघुबर दास से आगे चल रहे हैं.
यह भी पढ़ेंः श्रीलंका और आस्ट्रेलिया सीरीज के लिए टीम इंडिया का ऐलान आज, किसे मिलेगी जगह और कौन होगा बाहर
आदिवासी चेहरा न उतारना
झारखंड में 26.3 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 28 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं. महागठबंधन ने जेएमएम के आदिवासी नेता हेमंत सोरेन को सीएम पद का उम्मीदवार बनाया, वहीं बीजेपी की ओर से गैर आदिवासी समुदाय से आने वाले रघुबर दास दोबारा सीएम पद के उम्मीदवार रहे. झारखंड के आदिवासी समुदाय में रघुबर दास की नीतियों को लेकर आदिवासियों में काफी गुस्सा था. आदिवासियों का मानना था कि रघुबर दास ने अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान आदिवासी विरोधी नीतियां बनाईं. सूत्रों की मानें तो आदिवासी समुदाय से आने वाले अर्जुन मुंडा को इस बार सीएम बनाए जाने की मांग उठी थी, लेकिन बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने रघुबर दास पर दांव लगाया जो उल्टा पड़ गया. नतीजा सामने है बीजेपी को साल भर के अदर ही एक और राज्य की सरकार से हाथ धोना पड़ा है.
यह भी पढ़ेंः साल भर में पांचवां राज्य निकला बीजेपी के हाथ से, झारखंड में बीजेपी बहुमत से दूर
बीजेपी की हार के कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारण
- बीजेपी अपने सहयोगियों को साथ रखने में कामयाब नहीं रही
- बीजेपी के कई बड़े नेता पार्टी छोड़ कर दुसरी पार्टी में चले गए
- राम मंदिर और 370 जैसे राष्ट्रीय मुद्दे बेअसर रहे. ये मुद्दे जनता को जोड़ नहीं कर पाएं
- बीजेपी पिछले पांच सालों में किये गए कामों को भी जनता तक नहीं पंहुचा पायी
- आदिवासियों की बहुत बड़ी संख्या होने के बावजूद बीजेपी पिछले पांच सालों में कोई भी बड़ा आदिवासी चेहरा नहीं खड़ा कर पायी
- इसके साथ ही बाबूलाल मरांडी जैसे आदिवासी नेता भी बहुत पहले पार्टी छोड़कर चले गए
- सरयू राय जैसा बड़े नेता ने बीजेपी के खिलाफ कई क्षेत्रों में प्रचार किया, जिससे बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ा
- लोजपा जैसे सहयोगी के साथ भी बीजेपी ने गठबंधन नहीं किया
- इसके बलबूते कुछ हद तक बीजेपी दलित और आदिवासी वोटरों का साथ पा सकती थी
- विपक्ष ने एकता और वोटों का बिखराव के लिए बनाया महागठबंधन, जो सफल रहा
HIGHLIGHTS
- पीएम नरेंद्र मोदी और अन्य राष्ट्रीय मुद्दे बेअसर रहे.
- अपने नेताओं का विद्रोह भी बीजेपी को पड़ा भारी.
- रघुवर दास का विरोध भी पार्टी को पड़ गया महंगा.
Source : Nihar Ranjan Saxena