विभाजन के बाद एक बड़ी मुस्लिम आबादी नए बने मुल्क पाकिस्तान (Pakistan) के हिस्से आई. दारुल उलूम देवबंद (Deoband) में था और देवबंद (Deoband) भारत में. लेकिन देवबंद (Deoband) से पढ़कर गए छात्र दुनिया के हर कोने में थे और जाहिर तौर पर पाकिस्तान (Pakistan) में भी. दारुल उलूम देवबंद (Deoband) के पूर्व छात्रों ने नए बने पाकिस्तान (Pakistan) में देवबंद (Deoband) परम्परा के इस्लामी शिक्षा केंद्र खोलने शुरू किए. इसमें दो शिक्षण केन्द्रों पर नजर डालनी जरूरी है. पहला है जामिया उलूम-उल-इस्लामिया और दूसरा है दारुल उलूम हक्कानिया. इन दोनों शिक्षण संस्थानों का नाम बाद में देवबंद (Deoband) चरमपंथ के साथ जुड़ने जा रहा था.
जामिया उलूम-उल-इस्लामिया बिनोरी ( कराची )
जामिया उलूम-उल-इस्लामिया खुद को दारुल उलूम देवबंद (Deoband) की परम्परा का शिक्षण संस्थान करार देता है. इंटरनेशनल कांफिल्क्ट को लेकर काम करने वाले संगठन इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप ने अपनी एक रिपोर्ट में जामिया उलूम-उल-इस्लामिया को पाकिस्तान (Pakistan) में तेजी से पनप रहे देवबंद (Deoband) कट्टरपंथ का झरना करार दिया.
इस्लामिक आतंकवाद के पोस्टर ब्वाॅय
इस मदरसे ने बहुत से ऐसे छात्रों को पढ़ाया है अब दक्षिण एशिया में इस्लामिक आतंकवाद के पोस्टर ब्वॉय (Poster Boy) हैं. तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर. जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक मसूद अज़हर. दक्षिण एशिया में अल-कायदा का इंचार्ज असीम उमर. हरकत-उल-जिहाद-अल इस्लाम का लीडर हरकतकारी सैफुल्लाह अख्तर .सिपाह-ए-सहाबा का नेता आज़म तारिक.ये सब जामिया उलूम-उल-इस्लामिया के छात्र रह चुके हैं. इंटेलिजेंस की रिपोर्ट्स के अनुसार जामिया उलूम-उल-इस्लामिया ने जिहादी संगठनों को पनपने में बहुत मदद की है.
मसूद अज़हर
1968 में पैदा हुआ मसूद अज़हर पाकिस्तान (Pakistan) के बहावलपुर का रहने वाला है. उसके पिता अल्लाह बख्श साबिर स्थानीय स्कूल में हेडमास्टर थे और 10 बच्चों वाले अपने परिवार को पालने के लिए मुर्गीखाना भी चलाते थे. अल्लाह बख्श खुद देवबंद (Deoband) मुसलमान थे. अपनी किताब ‘वर्च्यु ऑफ जिहाद’ में मसूद अज़हर लिखता है कि उसके पिता के एक दोस्त थे मुफ़्ती सईद. मुफ़्ती साहब जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में पढाया करते थे. उनके कहने पर मसूद अज़हर को जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में पढने के लिए भेजा गया. यहां आकर पहली बार उसका साबका अफगान जिहादियों से पड़ा.
मदरसे में आया कमांडर
अपनी किताब में अज़हर अफगान जिहाद में शामिल होने की घटना का दिलचस्प ब्यौरा देता है. अज़हर लिखता है कि जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में तालीम हासिल करने के बाद उसे वहां बतौर शिक्षक नौकरी मिल गई. यह वो दौर था जब सोवियत-अफगान युद्ध अपने चरम पर था. मदरसे में भी हरकत-उल-अंसार नाम के संगठन की काफी धमक थी. एक बार हरकत-उल-अंसार का अख्तर नाम का एक कमांडर मदरसे में आया हुआ था.
अफगानिस्तान में जिहाद की ट्रेनिंग
उसने मदसरे के प्रिंसिपल को अफगान जिहाद को देखने के लिए अफगानिस्तान आने न्यौता दिया. प्रिंसिपल मुफ़्ती अहमद रहमान ने उस समय सुझाव दिया कि मौलाना के तौर पर काम कर रहे मसूद अज़हर को अफगानिस्तान जाकर जिहाद की ट्रेनिंग लेनी चाहिए. इस तरह मसूद अज़हर जामिया उलूम-उल-इस्लामिया से निकलकर अफगानिस्तान पहुंचा. यह उसके बतौर इस्लामिक आतंकवादी जीवन की शुरुआत थी.
दारुल उलूम हक्कानिया ( अकोरा खटक , खैबर पख्तूनख्वा )
( इसको यूनिवर्सिटी ऑफ जिहाद माना जाता है )
कहते हैं कि लगभग सभी बड़े तालिबानी नेता किसी ना किसी दौर में दारुल उलूम हक्कानिया से तालीम हासिल कर चुके हैं. अफगान जिहाद के वक़्त तक दारुल उलूम हक्कानिया के संस्थापक मौलाना अब्दुल हक ज़िंदा थे. उन्होंने बाकायदा फतवा जारी करके अफगान जिहाद का समर्थन किया था. इतना ही नहीं 70 साल की उम्र में खुद लड़ने की इच्छा भी जाहिर की थी. दारुल उलूम के बहुत सारे छात्र अफगान जिहाद में हिस्सा लेने के लिए अफगानिस्तान जरुर गए थे.
तालिबान का संस्थापक मुल्ला उमर इसका छात्र था
हक्कानी नेटवर्क का सरगना जलालुद्दीन हक्कानी, तालिबान का नंबर दो अख्तर मंसूर भी यहां से तालीम हासिल कर चुका है. मुल्ला उमर को दारुल उलूम हक्कानिया ने अपने यहां से डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी है. 1989 में दस साल लंबी चली सोवियत-अफगान जंग खत्म हुई. इसके बाद भी अफगानिस्तान में शांति नहीं हुई. देश कबीलों के आपसी संघर्ष और वर्चस्व की लड़ाई में उलझ गया.
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ऐसे में कंधार के रहने वाले मुल्ला उमर ने अपने गृह जिले में 50 छात्रों के जरिए नए संगठन की शुरुआत की. इस संगठन का मकसद देश को सिविल वॉर की स्थिति से बाहर निकालकर इस्लामिक शासन को बहाल करना था. देखते ही देखते मुल्ला उमर के साथ 15,000 ऐसे छात्र जुड़ गए जिन्होंने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों के मदरसों से तालीम हासिल की थी. इसमें सबसे ज्यादा छात्र दारुल उलूम हक्कानिया के थे.
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इस तरह अगर देखा जाए तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इस्लामिक आंतकवाद की जड़े कहीं ना कहीं इस्लाम की देवबंदी धारा से जुड़ी है. वही देवबंदी धारा जिसका गढ़ भारत के देवबंद में है. तो आखिर ऐसा क्योंकर हुआ? भारत में देवबंदी आंदोलन ने कभी भी हिंसक रास्ता अख्तियार नहीं किया. यहां के उलेमा कई बार अपने अजीब-ओ-गरीब फतवों के लिए भले ही चर्चा में रहे हों लेकिन आतंकी गतिविधि के सिलसिले में दारुल उलूम देवबंद कभी भी चर्चा में नहीं रहा.
कट्टरपंथी देवबंदी आंदोलन और तानाशाह जिया-उल-हक
जिया के आने कुछ समय बाद ही अफगान जिहाद की शुरुआत हुई. इसमें देवबंदी मदरसों में पढ़ रहे नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उस समय जिहाद में जाने पर सरकार की तरफ से काफी आर्थिक सहायता मिल रही थी. धार्मिक अपील के अलावा यह भी एक बड़ी वजह थी जिसने बेरोजगार नौजवानों को जिहाद की तरफ खींचा. जिया को जल्द ही समझ में आ गया कि अफगानिस्तान जिहाद कम से कम उनकी सरकार के लिए फायदे का सौदा है. अमेरिका से बोरे भर-भर कर डॉलर पाकिस्तान आ रहे. लेकिन जिहाद करने के लिए जिहादियों की भी जरुरत थी. मदरसे जिहादियों की सप्लाई का बड़ा केंद्र थे. ऐसे में जिया ने बड़े पैमाने पर मदरसे खोले. इसमें सबसे ज्यादा मदरसे देवबंदियों के ही थे.
HIGHLIGHTS
- जामिया उलूम-उल-इस्लामिया के छात्र इस्लामिक आतंकवाद के पोस्टर ब्वाॅय
- जिया ने बड़े पैमाने पर मदरसे खोले. इसमें सबसे ज्यादा मदरसे देवबंदियों के ही थे
- हक्कानी नेटवर्क का सरगना जलालुद्दीन हक्कानी, तालिबान का नंबर दो अख्तर मंसूर
Source : साजिद अशरफ