11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर पूरी दुनिया में बढ़ती आबादी पर मंथन हुआ. आज से करीब तीन दशक पहले साल 1989 में इसी दिन से इस पहल की शुरूआत हुई. इसी के मद्देनजर हर 10 साल बाद हमारे मुल्क में जनगणना होती है. इसमें आने वाले आबादी के आंकड़ें ही केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली योजनाओं का प्रमुख आधार होते हैं. 2011 की जनगणना ने बताया कि भारत की मौजूदा आबादी 1 अरब 21 करोड़ है. 2001 से 2011 के दरमियान 17.6 फीसदी की रफ्तार से 18 करोड़ आबादी बढ़ चुकी थी. ये साल 1991 से 2001 की 21.5 फीसदी की वृद्धि दर के मुकाबले करीब 4 फीसदी कम थी. यकीनन ये राहत की बात है, लेकिन चुनौती यहीं खत्म नहीं होती.
भारत और चीन की आबादी का अंतर 10 साल में 23 करोड़ 80 लाख से घटकर 13 करोड़ 10 लाख हो चुका है. जानकार बता रहे हैं कि अगले छह साल में आबादी के मामले में हम चीन को पछाड़ देंगे. अगले 10-12 सालों में हमारी आबादी 1.5 अरब के पार हो जाएगी. ये तब जबकि साल 1952 में परिवार नियोजन अभियान अपनाने वाला दुनिया का पहला देश भारत था. तब भी आज दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला मुल्क भारत है. हमारे हर सूबे की आबादी दुनिया के किसी मुल्क के बराबर है. आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है, जिसकी आबादी ब्राजील के बराबर है.
देश की कुल जनसंख्या के करीब 16 प्रतिशत लोग अकेले यूपी में ही रहते हैं. बाकी राज्यों को भी देखें तो बिहार की आबादी मेक्सिकों के बराबर, जबकि इटली जितनी आबादी अकेले गुजरात की है. कर्नाटक फ्रांस के बराबर है, जबकि सिक्किम ब्रिटेन के बराबर! यही नहीं, उत्तर प्रदेश का सूबा हाथरस भी आबादी के लिहाज से भूटान - मालदीव के आसपास है. वैसे ऐसा नहीं कि बढ़ती आबादी पर नीतियां नहीं बनी या मंथन नहीं हुआ. 1952 में परिवार नियोजन अभियान अपनाने वाला दुनिया का पहला देश बनने के बाद 1960 में जनसंख्या नीति बनाने का सुझाव आया. 1976 में देश की पहली जनसंख्या नीति का एलान हुआ. 1978 में जनता पार्टी सरकार ने संशोधित जनसंख्या नीति का एलान किया. उसके सालों बाद साल 2000 में पीएम की अध्यक्षता में राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन किया गया. तभी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा हुई और जनसंख्या स्थिरीकरण पर जोर दिया गया. 2005 में इस आयोग का पुनर्गठन हुआ.
बदलते वक्त में हालात कुछ सुधरे भी हैं. जागरूकता और बेहतर सुविधाओं के चलते शहरों में गांवों के मुकाबले बेहतर हालात नजर आते हैं. शहरी इलाक़ों में जन्म दर सिर्फ़ 1.8 है, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 2.5 है. इसी तरह कम विकसित राज्यों के मुकाबले विकसित राज्यों में आबादी नियंत्रण के आंकड़ें राहत देते हैं. भारत में प्रति महिला टीएफआर 2.3 है. दिल्ली, केरल, तमिलनाडु में टीएफआर 2 से कम है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ या झारखंड में औसत से कहीं ज्यादा!
वैसे दिक्कत ज्यादा आबादी की नहीं, बल्कि उसके हिसाब से जरूरी संसाधनों के उपलब्ध ना हो पाने की है. दुनिया की 17 फीसदी से ज्यादा आबादी हमारी है, जबकि दुनिया का केवल 4 फीसदी पानी और 2.5 फीसदी जमीन ही हमारे पास है. समझा जा सकता है कि चुनौती कितनी बड़ी है. करोड़ों भारतीय जिंदगी की बुनियादी जरूरतों तक से महरूम हैं. विश्व बैंक के मुताबिक करीब 22 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. दुनिया का हर तीसरा गरीब भारत में बसता है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स जैसे ढेरों मानक मुल्क की बदहाली की तस्वीर बयां करते रहे हैं. ज़ाहिर है जब संसाधन सीमित होंगे और ज़रूरत ज़्यादा तो तस्वीर कुछ ऐसी होगी ही.
जाहिर है हालात बेहद गंभीर हैं, लेकिन सियासत भी जारी है. बीजेपी नेता कैराना का डर दिखाकर ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देते हैं तो धर्मगुरू 4 बच्चे पैदा करने की अपील करते हैं. औवेसी अपनी आबादी की ताकत पूरे शहर में दिखाने का धमकीभरा बयान देते हैं तो कांग्रेस संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का बताती है. सियासी घमासान भी कब्रिस्तान और श्मशान तक पहुँच जाता है. इस बीच कुछ राज्यों ने अनोखी पहल भी की. योगी आदित्यनाथ ने नवविवाहित जोड़ों के लिए शगुन योजना की शुरूआत की थी.
असम में दो से ज्यादा बच्चे वालों को सरकारी नौकरी ना मिलने की नीति बनी तो वहीं गुजरात में दो से ज्यादा बच्चों के अभिभावकों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगी. राजस्थान, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तराखंड भी अपने स्तर पर कुछ नीतियाँ लागू कर चुके हैं. लेकिन बढ़ती आबादी को लेकर ढेरों सवाल अभी भी कायम हैं. मसलन, क्या बढ़ती आबादी की बड़ी वजह अशिक्षा और पिछड़ापन रहा है? अगर हां तो बढ़ती आबादी को धर्म और जाति के चश्मे से क्यों देखा जाता है?
राज्यों की नीतिगत विफलताओं का दोष समाज के मत्थे क्यों मड़ा जाता है? बढ़ती आबादी पर सियासी घमासान क्यों है? क्या आबादी काबू करने के लिए सख्त कानून की दरकार है? बेहतर हो नीति निर्माता और समाज मिलकर महिला साक्षरता और स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता कार्यक्रमों पर जोर दें ताकि परिवार चुनौतियों को ध्यान में रखकर परिवार नियोजन से जुड़े सही फैसले ले सके और देश की आबादी उपलब्धि साबित हो ना कि बोझ!
HIGHLIGHTS
- 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर बढ़ती आबादी पर मंथन हुआ
- करीब तीन दशक पहले साल 1989 में इस पहल की शुरूआत हुई
- इसी के मद्देनजर हर 10 साल बाद हमारे मुल्क में जनगणना होती है