The Grand Chess Board: अमेरिका-रूस के बीच मोहरा बना यूक्रेन

भारत के लिहाज से इस टकराव को देखा जाए तो रूसी आक्रमण या अमेरिका-रूस समझौते को लेकर परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन भारत के लिए उसके महत्वपूर्ण प्रभाव होंगे.

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Nihar Saxena
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कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहा यूक्रेन आज है संकट की वजह.( Photo Credit : न्यूज नेशन)

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अमेरिका (America) के भूतपूर्व राष्ट्रपति जिमी कॉर्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते थे ज़्बिग्नियेव ब्रेज़िन्स्की. उन्होंने अपनी किताब 'द ग्रैंड चेस बोर्ड' में दशकों पहले सवाल उठाया था कि अमेरिका क्यों यूक्रेन का साथ देगा या उसे क्यों यूक्रेन का साथ देना चाहिए? उन्होंने इसका जवाब देते हुए अपनी किताब में लिखा था कि यूक्रेन के बगैर रूस (Russia) महज एक एशियाई साम्राज्यवादी देश रह जाएगा. मध्य एशियाई देशों के विवादों में घसीटे जाने का खतरा उस पर मंडराया करेगा. इसके विपरीत यदि यूक्रेन को वह अपने नियंत्रण में रखता है, तो वह एक ‘शक्तिशाली साम्रज्यवादी सत्ता’ कहलाएगा. ब्रेज़िन्स्की का यह कथन अमेरिका की विदेशनीति का आज भी केंद्रीय सिद्धांत है, विशेषकर शीत युद्ध के बाद रूस से संबंधों में. यानी शीत युद्ध के बाद की स्थितियों में रूस को कमजोर करना है, तो यूक्रेन को उससे अलग करना होगा. इसी अमेरिकी सिद्धांत के तहत यूक्रेन (Ukraine) संकट ने आज अमेरिका-रूस को आमने-सामने ला खड़ा किया है.

यूरोप समेत समग्र विश्व की सुरक्षा खतरे में
बीते ही दिनों अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई की स्थिति में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को नए सिरे से चेतावनी दे दी है. अमेरिका के साथ आ खड़े होने से यूरोपीय देशों और रूस के बीच फंसे यूक्रेन को नाटो का पूरा समर्थन मिल रहा है. यदि यूरोपीय देशों में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रॉ ने नॉर्मेंडी फॉर्मेट के तहत रूस, यूक्रेन, जर्मनी और फ्रांस के बीच संकट का समाधान निकालने के लिए पेशकश की है, तो ब्रिटेन ने यूक्रेन को एंटी टैंक मिसाइल समेत अन्य सैन्य साज-ओ-सामान उपलब्ध करा दिया है. तुर्की भी यूक्रेन की मदद कर रहा है. यह देख रूस ने बेलारूस में बमवर्षक विमानों से गश्त तेज कर दी है. यही नहीं, रूस पर कथित तौर पर यूक्रेन की सीमा पर लाखों सैनिकों के जमावड़े का आरोप भी अमेरिका लगा रहा है. ऐसे में यूक्रेन की सीमा के निकट रूस के सैन्य जमावड़े को लेकर हाल के हफ्तों में तनाव बढ़ा है. इन सबके बीच यूक्रेन ने अपनी आधी सेना यानी लगभग सवा लाख सैनिकों को यूक्रेन के रूसी समर्थक अलगाववादियों वाले पूर्वी हिस्से में लगा दिया है. जाहिर है यूक्रेन और रूस के बीच बढ़ता तनाव शीत युद्ध के बाद यूरोप में सुरक्षा को लेकर सबसे बड़ा संकट साबित हो रहा है. 

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रूस के लिए खास उसकी अस्मिता से जुड़ा है यूक्रेन मसला
यूक्रेन वास्तव में रूस के लिए बेहद खास है. अगर कहा जाए कि वह रूस की अस्मिता से जुड़ा मसला है, तो गलत नहीं है. विखंडित सोवियत संघ का हिस्सा होने से यूक्रेन के रूस के साथ उसके प्राचीन गहरे सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध हैं. यूक्रेन की राजधानी कीव को संभवतः इसीलिए 'रूसी शहरों की मां' भी कहते हैं. इस शहर का सांस्कृतिक प्रभाव रूस की राजधानी मॉस्को या सेंट पीटर्सबर्ग जैसा ही है. सोवियत संघ के पतन के बाद यूक्रेन के अलग होने को कई रूसी राजनेता इतिहास की एक बड़ी गलती मानते है. अब यूक्रेन में अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के दबदबे को कई रूसी राजनेता रूस की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पर गंभीर आघात बतौर देखते हैं. यही वजह है कि रूस यूक्रेन में रहने वाले 80 लाख रूसी लोगों की रक्षा को लेकर मुखर रहा है. व्यापार की दृष्टि से भी रूस के लिए यूक्रेन महत्वपूर्ण है. रूस किसी भी कीमत पर यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनते हुए देखना नहीं चाहता है. रूस का मानना है कि यूक्रेन अगर नाटो में शामिल होता है, तो ये सुरक्षा संगठन रूस पर भी शिकंजा कसने की कोशिश करेगा.
 
क्रीमिया पर कब्जे के समय बाइडन थे अमेरिकी उपराष्ट्रपति 
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अस्तित्व में आया यूक्रेन यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा देश है. यूक्रेन का पश्चिमी हिस्से का यूरोपीय पड़ोसियों खासकर पोलैंड से गहरा रिश्ता है. यूक्रेन के पश्चिमी हिस्से में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल है. हालांकि यूक्रेन में रूसी भाषा बोलने वाले अल्पसंख्यकों की संख्या भी अच्छी खासी है और ये लोग विकसित पूर्वी इलाके में ज्यादा मौजूद हैं. 2014 में रूस की ओर झुकाव रखने वाले यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के खिलाफ यूक्रेन की सरकार में विद्रोह होने लगा था. रूस ने इस मौके का फायदा उठाया और यूक्रेन में मौजूद क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा कर लिया. इसके साथ ही यहां मौजूद विद्रोही गुटों ने पूर्वी यूक्रेन के हिस्सों पर कब्जा कर लिया. इन आंदोलनों के चलते राष्ट्रपति विक्टर को अपना पद छोड़ना पड़ा, लेकिन तब तक रूस क्रीमिया का अपने साथ विलय कर चुका था. गौर करने वाली बात यह भी है कि उस समय बराक ओबामा राष्ट्रपति थे और जो बाइडेन उप-राष्ट्रपति थे. 

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नाटो ने यूक्रेन को पूरा समर्थन दे रूस को दिखाईं आंखें
नाटो का सदस्य ना होने के बावजूद भी यूक्रेन के नाटो संग अच्छे रिश्ते हैं. यूक्रेन अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैन्य गठबंधन से हजारों रूसी सैनिकों द्वारा संभावित आक्रमण को रोकने के लिए रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने का आग्रह भी कर चुका है. यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं है, लेकिन नाटो ने साफ तौर पर कहा है कि वो पूर्व सोवियत गणराज्य की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है. नाटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टनबर्ग भी रूस को चेतावनी दे चुके हैं कि पश्चिमी देश रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध और अन्य कदम भी उठा सकते हैं. यहां यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि रूस अभी भी उस समय लगाए गए प्रतिबंधों के अधीन है, लेकिन वे इस बार प्रतिबंध और भी ज्यादा कठोर हो सकते हैं. रूसी कंपनियों को वैश्विक वित्तपोषण तक पहुंचने से रोका जा सकता है और पुतिन का समर्थन करने वाले रूसी कुलीन वर्गों को वित्तीय दंड का सामना करना पड़ सकता है. आज रूस की किसी उकसावेपूर्ण कार्रवाई पर प्रतिबंध स्वरूप रूसी स्वामित्व वाली नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन को बंद किया जा सकता है, जो रूसी गैस को यूरोप तक पहुंचाती है. रूस यूरोप की 35 फीसदी गैस की आपूर्ति करता है और इसके पास 350 बिलियन डॉलर की यूरोपीय संघ की संपत्ति है. इसके बावजूद यूरोपीय लोगों ने रूसियों का सख्ती से सामना करने के लिए अमेरिका के साथ मिलकर काम किया है. इसके अलावा 

पुतिन भी पलटवार कर दे चुके हैं नाटो को चेतावनी
इसके जवाब में यूक्रेन पर आक्रमण करने की रूस की योजना को लेकर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी पलटवार कर चुके हैं. पुतिन ने बैलौस अंदाज में कहा है कि रूस नाटो से इस बात की गारंटी मांगेगा कि वे पूर्व की तरफ ना बढ़े. उन्होंने कहा कि रूस, अमेरिका और इसके सहयोगी देशों के साथ वार्ता में हम विशेष समझौते करने पर जोर देंगे. ये समझौता पूर्व की ओर नाटो को और अधिक बढ़ने और रूसी क्षेत्र के पास हथियार प्रणाली की तैनाती रोकने के संबंध में होगा. इससे पहले पुतिन ने नाटो को यूक्रेन में अपने सैनिक और हथियार तैनात करने के खिलाफ सख्त चेतावनी देते हुए कहा था कि यह एक कड़ी प्रतिक्रिया को आमंत्रित करेगा. यूक्रेन के मसले पर रूस-अमेरिका में कूटनीतिक दांवपेंच भी चल रहे हैं. कुछ ही दिनों पहले अमेरिका ने रूस के 55 राजनयिकों को देश छोड़ने के लिए कहा था. इस कदम के बाद रूस ने भी अमेरिका के कुछ राजनयिकों को 31 जनवरी से पहले रूस छोड़ने के लिए कहा है. जाहिर है इस कूटनीतिक जंग के मूल में भी यूक्रेन ही केंद्र में है. 

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यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई दुनिया पर थोप सकती है तीसरा विश्वयुद्ध
यदि आज की तनावपूर्ण स्थितियों में रूस यूक्रेन के खिलाफ युद्ध या सैन्य कार्रवाई करने का निर्णय लेता है, तो तत्कालिक तौर पर इसके परिणाम मृत्यु, विनाश और पश्चिम की ओर जाने वाले शरणार्थियों के रूप में देखने को मिलेंगे. पश्चिमी प्रशिक्षण और रक्षात्मक उपकरणों द्वारा अपनी शक्तियों को मजबूत करने के साथ यूक्रेनी सेना युद्ध में रूसियों को कड़ी टक्कर देगी. इसके साथ ही यह भी चिंता है कि युद्ध अन्य यूरोपीय देशों में फैल जाएगा, जिससे नाटो को हस्तक्षेप या कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है. इसके साथ ही परमाणु-हथियार वाले राज्यों के बीच युद्ध या संघर्ष होने से सभी तरह के अप्रत्याशित परिणाम हो सकते हैं. भू-राजनीतिक के तौर पर यह संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के साथ रूसी संबंधों का अंत होगा. पश्चिम के साथ किसी भी तरह की फूट या खटास मॉस्को को बीजिंग के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करने के लिए मजबूर करेगी. इसके साथ ही रूसियों को अपनी सीमा पर नाटो की अधिक मजबूत तैनाती का सामना करना पड़ सकता है.

रूस और अमेरिका के कैसे भी संबंधों से भारत को होगा फायदा
अगर भारत के लिहाज से इस टकराव को देखा जाए तो रूसी आक्रमण या अमेरिका-रूस समझौते को लेकर परिणाम चाहे कुछ भी हो लेकिन भारत के लिए उसके महत्वपूर्ण प्रभाव होंगे. रूसी सैन्य कार्रवाई और अमेरिका व उसके सहयोगियों के साथ रूस के संबंध कड़वे होने से भारत पर पश्चिमी गठबंधन और रूस के बीच चयन करने का दबाव होगा. ऐसे में यह भी संभव है कि अत्याधुनिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम एस-400 खरीद के कारण भारत को काटसा प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है. भारत पर रूस के साथ रक्षा संबंध में कटौती करने का दबाव बनाया जा सकता है. उस परिस्थिति में भारत के लिए इस पर विचार करना आसान नहीं होगा, क्योंकि निकट भविष्य के लिए उसके सशस्त्र बल रूसी पुर्जों और उपकरणों पर निर्भर होंगे. दूसरी ओर अगर अमेरिका और रूस के बीच कोई समझौता होता है, तो इससे रूस-चीन संबंधों व रिश्तों में कमी आ सकती है. इससे भारत को रूस के साथ संबंधों को फिर से स्थापित करने के अपने हालिया प्रयासों के सुदृढ़ करने का अवसर मिलेगा. यदि इसके साथ अमेरिका-ईरान संबंधों में समान गर्मजोशी आती है, तो यह भारत, रूस और ईरान के लिए अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन परियोजना पर सहयोग करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, जो ईरान-रूस के खिलाफ लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से रुकी पड़ी है.

HIGHLIGHTS

  • अमेरिका के लिए रूस को दबाने का मोहरा भर है यूक्रेन
  • रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर दिए हैं नाटो को गहरे घाव
  • भारत के लिए अमेरिका-रूस संबंधों के लिहाज से चुनौती
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