दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध कालखंड के दौर में अमेरिका (America) और रूस (Russia) में हथियारों की होड़ शुरू हुई थी. जनसंहार से जुड़े नाभिकीय, रासायनिक, जैविक और परंपरागत हथियारों की होड़ अन्य देशों में भी रही. खासकर हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन (China) इस होड़ में अगुवा बनकर उभरा. यह अलग बात है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की होड़ रोकने के लिए एनपीटी, सीटीबीटी, आईएनएफ और स्टार्ट जैसी संधियां हुईं. यह अलग बात है कि रूस-यूक्रेन (Ukraine) के ताजा हिंसक संघर्ष और कुछ दिन पहले चीन की ओर से हाइपरसोनिक मिसाइल का परीक्षण करने के बाद हथियारों की होड़ नए सिरे से शुरू होने की आशंका जताई जा रही है. हथियारों की खरीद-बिक्री का वैश्विक समीकरणों पर दूरगामी असर पड़ना तय है. भारत (India) भी पूर्वी-पश्चिमी सीमा पर तनाव के मद्देनजर अपने सैन्य खर्चे में वृद्धि कर सकता है. कुछ सामरिक जानकार मानते हैं कि हथियारों की इस होड़ को बढ़ावा देने में भी अमेरिका का ही हाथ है.
2020 में हथियारों पर खर्च किए गए 2 हजार अरब डॉलर
अगर आंकड़ों की भाषा में बात करें तो अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की रिपोर्ट बताती है कि शीतयुद्ध काल के बाद धीमी पड़ी हथियारों की होड़ फिर से बढ़ने लगी है. 2020 में कोरोना संक्रमण काल की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था में भले ही 4.4 फीसद की गिरावट दर्ज की गई, लेकिन हथियारों की खरीद पर कुल 2,000 अरब डालर की राशि खर्च हुई. यह राशि 2019 के मुकाबले 2.6 फीसद ज्यादा थी. हिंद प्रशांत क्षेत्र के देश ही नहीं अमेरिका, यूरोपीय देश व खाड़ी देशों में हथियारों व सैन्य साज-ओ-सामान की मांग बढ़ने के संकेत मिलने लगे हैं. यूक्रेन पर रूसी हमले ने इसमें इजाफा करने का काम किया है.
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तुलसी गेबार्ड ने किया था अमेरिकी हथियार लॉबी पर इशारा
दुनिया के तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि हथियारों की खरीद-फरोख्त में तेजी के पीछे अमेरिका का ही हाथ रहता है. गौरतलब है कि दुनिया के तमाम देशों में जो हिंसक संघर्ष चल रहा है, उनमें अमेरिकी हथियारों का ही इस्तेमाल होता है. चाहे अफगानिस्तान का मसला हो या फिर वियतनाम का, हर जगह अमेरिका का पैर फंसा मिल ही जाएगा. एक बात और महत्वपूर्ण है कि रूस-चीन जैसे देशों में हथियार निर्माण करने वाली कंपनियों पर जहां सरकार का नियंत्रण है, वहीं अमेरिका में निजी कंपनियां इस काम में अग्रणी है. अमेरिका की हथियार लॉबी इस कदर मजबूत है कि वह कई देशों में सरकार गिराने-बनाने का खेल भी सफलता से खेलती है. अमेरिका की तुलसी गेबार्ड भी खुलेआम कह चुकी हैं बाइडन प्रशासन की नीति हथियार लॉबी को और मजबूत बनाने की है. कुछ दिन पहले अपनी वेबसाइट पर तुलसी गेबार्ड ने लिखा था अमेरिका को मालूम है कि यूक्रेन को नाटो का सदस्य नहीं बनाया जा सकता. फिर भी वह रूस को उकसाने में लगा है. इसके पीछे वही समीकरण हैं कि यूक्रेन पर रूसी हमले से सबसे ज्यादा फायदा अमेरिकी हथियार कंपनियों को होगा.
भारत भी बढ़ा सकता है अपने सैन्य खर्चे
अमेरिका व यूरोप के कुछ समाचार पत्रों ने भी हाल के दिनों में पुराने अनुभव के आधार पर लिखा है कि जब भी नाटो देश किसी विरोधी देश के खिलाफ गोलबंद होते हैं ,तो उन्हें सैन्य खर्चे बढ़ाने पड़ते हैं. कुछ विश्लेषक यूक्रेन विवाद को अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद हथियार व सैन्य साजो सामान की मांग बढ़ाने के तौर पर देख रहे हैं. यूक्रेन को लेकर जो स्थिति बनी है उसके बाद अमेरिका, यूरोपीय देशों व रूस में भी नए हथियार व सैन्य साज-ओ-सामान खरीदा जाएगा. हालांकि एक बड़ा अंतर यह होगा कि रूस की सारी हथियार कंपनियां सरकार द्वारा नियंत्रित हैं, जबकि अमेरिका व यूरोपीय देशों में यह काम पूरी तरह निजी क्षेत्र के हवाले है. हथियारों की इस दौड़ से भारत भी खुद को दूर नहीं रख सकेगा, जो पूर्वी-पश्चिमी सीमा पर दुश्मन देशों से सीमा विवाद में उलझा हुआ है. हालांकि भारत में मोदी सरकार के आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देश में सुरक्षा से जुड़ा साज-ओ-सामान बनने लगे है. फिर भी भारतीय नौसेना और वायुसेना को आधुनिक बनाने औऱ किसी भी चुनौती से पार पाने के लिए जरूरी आधुनिकीकरण के लिए काफी धन खर्च करना पड़ेगा.
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एशियाई देशों ने किया एक दशक में हथियारों पर सबसे ज्यादा खर्च
आंकड़े भी बताते हैं कि 2010 से 2020 के बीच हथियारों पर सबसे ज्यादा खर्च एशियाई देशों में बढ़ा है. इसमें चीन सबसे आगे है. हाल ही में जापान ने भी कहा है कि वह अपनी जीडीपी का दो फीसदी हिस्सा सैन्य आधुनिकीकरण पर खर्च करेगा. फिलीपींस, वियतनाम जैसे देश नए मिसाइल सिस्टम व टैंक खरीदने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति खाड़ी देशों की है. हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन ने हथियारों की होड़ को बढ़ावा देने का काम किया है. यूक्रेन घटनाक्रम के बाद इसमें और तेजी ही आएगी. चीन एनपीटी संधि से बंधे होने के बावजूद चोरी-छिपी पाकिस्तान और उत्तर कोरिया को नाभिकीय हथियारों की तकनीक मुहैया करा चुका है. सामरिक जानकार बताते हैं कि चीन का इरादा 2027 तक 700 परमाणु हथियारों और 2030 तक 1000 परमाणु हथियारों को हासिल करने का है. इसके साथ ही चीन ने अंतरिक्ष में अलग होड़ फैला रखी है. बीते दिनों हाइपरसोनिक मिसाइल के परीक्षण से उसने अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि वह सैन्य क्षेत्र में अपने को अजेय बनाने के किसी भी प्रयास से तौबा करने वाला नहीं है.
HIGHLIGHTS
- 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 4.4 फीसद गिरावट आई
- इसी साल हथियारों पर खर्च किए गए 2 हजार करोड़ डॉलर
- अब यूक्रेन-चीन की वजह से फिर शुरू होगी हथियारों की होड़