UP ELECTION : यूपी में चुनावी गठबंधन–कभी पास कभी फेल

अब 10 मार्च को नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा कि कौन सा गठबंधन होगा पास, कौन सा होगा फेल या बिना गठबंधन की पार्टी अपने सर बांधेगी जीत का सेहरा.

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Pradeep Singh
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यूपी के प्रमुख राजनेता

योगी आदित्यनाथ( Photo Credit : News Nation)

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गठबंधन दो तरह के-एक चुनाव से पहले दूसरा चुनाव के बाद, लेकिन हम बात कर रहे हैं विधानसभा चुनाव से पहले होने वाले गठबंधन की और परिणाम में दिखने वाले उसके असर की. पहले जरा बात करते हैं 1991 के चुनाव की- साल 1991 का यूपी विधानसभा चुनाव था. राम मंदिर आंदोलन के माहौल में बीजेपी चुनाव लड़ रही थी. 1989 के चुनाव में बीजेपी को महज 57 सीटों पर जीत मिली थी. 1990 में राम मंदिर आंदोलन चरम पर था. यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह थे. 1990 में ही 30 अक्टूबर और 2 नवंबर को कारसेवकों पर गोली चली. 1991 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 31.45 फीसदी मत के साथ 221 सीटें जीत लीं. तब के अविभाजित यूपी में 425 सीटें हुआ करती थीं. यानि कि यूपी में बीजेपी की अपने दम पर पूर्ण बहुमत वाली सरकार.

मुख्यमंत्री बने कल्याण सिंह. कल्याण सिंह हिंदुत्ववादी नेता थे. राम मंदिर आंदोलन के बड़े नेताओं में शुमार. उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद तो राम मंदिर आंदोलन की गति और तेज हुई. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने ढहा दिया. माना जाता है कि राम मंदिर के लिये कल्याण सिंह ने अपनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार कुर्बान कर दी. यूपी में राष्ट्रपति शासन लग गया.

1993 का चुनाव-मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गये जय श्री राम

1990 में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देने वजह से मुलायम सिंह को “मुल्ला मुलायम” कहा जाने लगा. उनकी मुस्लिम परस्त नेता की छवि बनाई जाने लगी. मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग होकर अपनी पार्टी समाजवादी पार्टी बना ली.

1993 के चुनाव से पहले विवादित बाबरी ढांचा ढ़हाया जा चुका था. लगा कि बीजेपी को हराना मुश्किल होगा. लेकिन कमंडल की राजनीति का जवाब देने के लिये मुलायम सिंह ने कांशीराम के साथ हाथ मिला लिया. ये गठबंधन ने कमंडल राजनीति के जवाब में  दलित पिछड़ा सोशल इंजीनियरिंग का ताना बाना बुना.

परिणाम आया तो सपा बसपा गठबंधन ने बीजेपी के विजय रथ को थाम लिया था. बीजेपी 177 सीट जीतकर  सबसे बड़ी पार्टी बनी. सपा बसपा गठबंधन ने मिलकर 176 सीटें जीतीं यानि कि बीजेपी से 1 कम, पर बीजेपी को बहुमत हासिल करने नहीं दिया.

बाद में मुलायम सिंह ने बीजेपी को विधानसभा में भी मात देते हुये जोड़ तोड़ करके सरकार बना ली. 4 दिसंबर 1993 को मुलायम सिंह ने दूसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

लेकिन ये सरकार गठबंधन के आपसी मनमुटाव की वजह  से ज्यादा चल नहीं पाई. 2 जून  1995 को ये सरकार गिर गई. 2 जून 1995 को ही यूपी की राजनीति का एक काला अध्याय गेस्ट हाउस कांड भी हुआ था.

बसपा ने बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई और मायावती पहली बार यूपी की मुख्यमंत्री चुनी गईं. लेकिन ये सरकार भी 4 महीने बाद ही गिर गई. प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया.

1993 के चुनाव में एक और बात का जिक्र बहुत जरुरी है. 1993 से जो त्रिशंकु विधानसभा का दौर शुरु हुआ तो वो 2007 में बसपा के पूर्ण बहुमत हासिल करने बाद ही खत्म हुआ. मतलब 93, 96 और 2002 लगातार तीन चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनी. चुनाव के बाद जोड़तोड़ से सरकारें चली.

1996 का चुनाव

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1996 का विधानसभा चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान हुआ

1996 का चुनाव बीजेपी ने अकेले लड़ा

सपा ने जनता दल और अजीत सिंह की भारतीय  किसान कामगार पार्टी के साथ मिलकर लड़ा

बसपा ने कांग्रेस के साथ समझौते में चुनाव लड़ा

लेकिन परिणाम के बाद त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन गई

बीजेपी 174 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी

सपा ने खुद 110 सीटें जीतीं जबकि उसके दो अन्य सहयोगी 15 सीटें ही जीत सके

बसपा ने 67 सीटें जीतीं और सहयोगी कांग्रेस 33 सीटें जीत सकीं

चुनाव परिणाम आने के बाद भी कोई सरकार अगले 6 महीने तक नहीं बन सकी

परदे के पीछे सराकर बनाने की कोशिश जारी रही . बसपा और बीजेपी ने 6-6 महीने के मुख्यमंत्री के फार्मूले पर सहमति बनाते हुये सरकार बनाई.

21 मार्च 1997 को मायावती दूसरी बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं. 6 महीने बाद फार्मूले के तहत 21 सितंबर 1997 को  कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. दोनों पार्टियों की बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा था. कल्याण सिंह ने मायावती के लिये कुछ फैसलों को पलटना शुरु कर दिया. बदले में बसपा ने 19 अक्टूबर को अपना समर्थथन वापस ले लिया. राज्यपाल रोमेश भंडारी ने दो दिन के अंदर कल्याण सिंह को अपना बहुमत साबित करने को कहा.

बसपा , कांग्रेस और जनता दल के विधायक टूटने लगे. 21 अक्टूबर को विधानसभा में विधायकों ने एक दूसरे पर माइक चप्पल जूते फेंके. 222 विधायकों परीक्षण में कल्याण सिंह के साथ रहे. लेकिन हिंसा का हवाला देते हुये राज्यपाल रोमेश भंडारी ने राष्ट्रपति शासन की सिपारिश कर दी. लेकिन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने इसे मानने से मना कर दिया. इस तरह कल्याण सिंह की सरकार किसी तरह बच पाई.

हालांकि बाद में 2002 तक चली इस सरकार में कल्याण सिंह के बाद 1-1 साल के लिये राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह भी मुख्यमंत्री बने.

अब बात 2002 के चुनाव की

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2002 का चुनाव उत्तराखंड के अलग होने के बाद पहला चुनाव. सीटें 425 से घटकर 403 हो गई थीं. 1999 में मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद नाराज कल्याण सिंह ने बीजेपी छोड़ दिया.  कल्याण सिंह अपनी पार्टी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाकर बीजेपी से अलग होकर 2002 में चुनाव लड़ रहे  थे. मतलब बीजेपी का चेहरा कल्याण सिंह ना होकर इस बार राजनाथ सिंह थे.

बीजेपी के साथ गठबंधन में बीजेपी सहित 7 पार्टियां थीं.  राष्ट्रीय लोक दल, जदयू , लोजपा, लोकतांत्रिक कांग्रेस, मेनका गांधी की सत्ता दल, किसान मजदूर बहुजन पार्टी.

बीजेपी ने 88 सीटें जीतीं. अन्य सहयोगी कुल मिलाकर 19 सीटें ही जीत सके जिसमें रालोद की 14 सीटें शामिल हैं.

सपा ने समता पार्टी, वाम दल, वी.पी. सिंह किसान मोर्चा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा.

सपा 143 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. उसके सहयोगी केवल 2 सीट ही जीत सके.

बसपा ने अकेले चुनाव लड़कर 98 सीटें जीतीं.

कांग्रेस भी अकेले लड़ी और 25 सीट ही जीत सकी.

कल्याण सिंह की पार्टी ने 4 सीटों पर जीत दर्ज की और तमाम सीटों पर बीजेपी की हार का कारण बनी.

त्रिशंकु विधानसभा होने के चलते सरकार नहीं बन सकी नतीजतन लगभग 2 महीने के लिये राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.

3 मई 2002 को बीजेपी और रालोद के समर्थन से मायावती तीसरी बार यूपी की मुख्यमंत्री चुनी गईं . लेकिन राजा भैया पर पोटा लगाने और बाद में ताज कॉरिडोर का मुद्दा सामने आने पर बसपा बीजेपी के संबंध खराब होने लगे. तनाव बढ़ता चला गया. बाद में 26 अगस्त 2003 को मायावती ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश के साथ राज्यपाल को अपना इस्तीफा सौंप दिया.

26 अगस्त  को ही मुलायम सिंह ने बागी बसपा विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया . 29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. बाद में बसपा के बागी विधायकों, रालोद, कल्याण सिंह की पार्टी, निर्दलीयों, सीपीएम और  कांग्रेस के समर्थन से विधानसभा में बहुमत साबित करने में सफल रहे. मुलायम सिंह की सरकार अगले लगभग 4 साल तक चलती रही.

2007 का चुनाव -16 साल बाद यूपी में बनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार

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कल्याण सिंह की बीजेपी में वापसी हो चुकी थी. वो 2007 में चुनाव अभियान का चेहरा थे. बीजेपी ने अपना दल के साथ कुर्मी वोटों को साधने के लिये गठबंधन किया. 2009 लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी को यूपी विधानसभा में जीत की बहुत जरुरत थी. लेकिन बीजेपी महज 51 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी. उसकी सहयोगी अपना दल तो खाता भी नहीं खोल पाई.

सपा ने सीपीएम और लोकतांत्रिक कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. सपा 97 सीटें जीतकर दूसरे नंबर की पार्टी बनी.  लोकतांत्रिक कांग्रेस 1 सीट जीत सकी.

कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा और महज 22 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई.

बसपा भी अकेले ही चुनाव लड़ रही थी. लेकिन अकेले लड़ते हुये भी उसने 16 साल बाद यूपी में 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल किया. मायावती चौथी बार यूपी की मुख्यमंत्री बनीं.

2012 का चुनाव-क्लियर मैंडेट का सिलसिला रहा बरकरार

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इस चुनाव में गठबंधन की जरुरत पार्टियों नहीं समझी. बड़ी पार्टियों में सिर्फ कांग्रेस ने रालोद के साथ गठबंधन किया जबकि सपा , बसपा और बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया.

बीजेपी से कल्याण सिंह अलग हो चुके थे. उनकी जनक्रांति पार्टी ( राष्ट्रवादी ) चुनाव मैदान में थी.

कांग्रेस 28 सीटें जीत सकी और उसकी सहयोगी रालोद 9 सीटों पर विजय हासिल कर पाई.

बीजेपी का हाल पिछले चुनाव से भी बुरा हो गया. उसे महज 47 सीटें हासिल हुईं और वोट प्रतिशत भी घटकर 15.21 फीसदी हो गया.

सत्ताधारी दल बसपा के प्रत्याशी 80 सीटों पर जीत हासिल कर पाये.

समाजवादी पार्टी ने 224 सीटें हासिल करके अपनी सरकार बनाईं. मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की जगह उनके बेटे अखिलेश यादव बने. वो 38 साल की उम्र में शपथ लेकर यूपी के सबसे कम उम्र के सीएम बने.

2017 का चुनाव – छोटे दलों के साथ बीजेपी गठबंधन ने जीतीं 80 फीसदी से ज्यादा सीटें

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बीजेपी ने अनुप्रिया पटेल की अपनादल (सोनेलाल) और ओम प्रकाश राजभर की SBSP के साथ गठबंधन किया. ये गठबंधन बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा था. बीजेपी गैर यादव ओबीसी मतदाताओं में पैठ बनाना चाहती थी.

गठबंधन के तहत बीजेपी 384 सीटों पर, अपनादल (सोनेलाल) 11 सीटों पर और SBSP 8 सीटों पर लड़ी.

बीजेपी को जीतकर मिलीं 312 सीट, अपनादल ( सोनेलाल ) को 9 और SBSP को 4 सीट. कुल मिलाकर गठबंधन ने जीती 325 सीटें यानि कि लगभग 81 फीसदी सीटें जीत लीं.

बसपा ने अकेले ही चुनाव लड़ा और 19 सीटें हासिल कर सकी.

सपा ने बदले माहौल को भांपते हुये कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. सपा 311 सीटों पर जबकि कांग्रेस 114 सीटों पर लड़ी. यानि कि 22 सीटों पर दोनों के प्रत्याशी आमने सामने भी थे.

पर ये गठबंधन भी हार बचा ना पाया. सपा ने जीतीं 47 सीटें और कांग्रेस दहाई का भी आंकड़ा पार नहीं कर सकी. उसे मिली महज 7 सीटें.

अब बात जरा  2019 के लोकसभा चुनाव की

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सपा बसपा दोनों ही पार्टियां 2014 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी थीं. मार्च 2018 में गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीट का उपचुनाव हुआ. ये सीटें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के चलते रिक्त हुई थीं. इन दोनों सीटों पर सपा के प्रत्याशियों को बसपा ने अपना समर्थन दिया. फूलपुर सीट पर सपा के नागेन्द्र पटेल और गोरखपुर से निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद सपा के सिंबल पर चुनाव लड़े और जीते. जीत के बाद अखिलेश यादव मायावती के घर धन्यवाद देने पहुंचे. यहीं से 2019 लोकसभा चुनावों में होने वाले गठबंधन की नींव पड़ी.

2019 लोकसभा चुनाव के लिये सपा बसपा रालोद का गठबंधन हुआ. चर्चा हुई कि 1993 दोहराया जायेगा. पीएम मोदी का विजयरथ यूपी में रोक लिया जायेगा. लेकिन ऐसा हो ना पाया.

बीजेपी 78 सीटों पर जबकि सहयोगी अपनादल (सोनेलाल) 2 सीटों पर लड़ लही थी.

बसपा 38 , सपा 37 और रालोद के 3 सीटों पर प्रत्याशी थे.

बीजेपी गठबंधन ने 64 सीटें जीतीं  (बीजेपी 62, अपना दल 2) जबकि सपा बसपा रालोद गठंबधन के खाते में 15 सीटें आईं. इसमें बसपा की 10 और सपा की 5 सीटें थीं .

2022 विधानसभा चुनाव में गठबंधन-बीजेपी की रणनीति अब सपा ने अपनाई

गैर यादव ओबीसी मतदाताओं पर निशाना साधते हुये सपा ने रालोद, बीजेपी की पिछले चुनाव में सहयोगी रही SBSP, कृष्णा पटेल गुट के अपनादल (कमेरावादी), संजय चौहान की जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) और केशव देव मौर्या के महान दल के साथ गठबंधन किया है. इन दलों के साथ गठबंधन करके अखिलेश की कोशिश जाट, राजभर, कुर्मी, मौर्या -कुशवाहा मतदाताओं का समर्थन हासिल करने की है.

वहीं बीजेपी के साथ अनुप्रिया पटेल की अपनादल (सोनेलाल ) और सपा की पूर्व सहयोगी संजय निषाद की निषाद पार्टी गठबंधन में है.

बसपा और कांग्रेस अकेले ही बिना गठबंधन के चुनाव लड़ रही हैं.

अब 10 मार्च को नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा कि कौन सा गठबंधन होगा पास, कौन सा होगा फेल या बिना गठबंधन की पार्टी अपने सर बांधेगी जीत का सेहरा.

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